कोमलता के निरीहता बनने पर उसे कठोर हो जाना

मेरा कोना

: काश मैं स्त्री हो पाती … नारीपन मैं ढ़ल पाती … :

”पैदा हो पायी बच्चियाँ अपने

लड़कीपन में ऐसे उगती हैं,

जैसे दीवार पर उभरी आकृतियाँ।

सुंदरता लाने के लिये दीवारों पर

पोत दिया जाता है रोग़न।”

स्त्रीत्व एक गुण है, एक भाव है, जो देवताओं को भी दुर्लभ है। आज आम स्त्री का स्त्री बने रहना दूभर है। इस समाज मैं उसे कहीं ना कहीं, कभी ना कभी पुरुषत्व का प्रदर्शन करना ही पड़ता है जीने के लिए।

ये विडंबना ही है .. स्त्रीत्व निरीह नहीं कोमल है, उसकी कोमलता के जब तब निरीहता बनने पर उसे कठोर हो जाना होता है। पुरुष स्वयं को उपहास का पात्र समझते हैं जब वे रो जाते हैं। क्या कभी सोचा है कि उसी समय वह एक कोमल मन के स्वामी होते हैं ……वह कोई कमजोरी नहीं निरीहता नहीं बल्कि एक निश्छल स्त्रीत्व से सज जाते हैं।

छल नारी और पुरुष दोनों में ही हो सकता है, अतः यहाँ अन्यथा ना लें, मेरे इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य यह है, कि उस खोई हुयी कोमलता को वापस लाने का कर्तव्य इस समाज का है, जहाँ सदियों की परम्पराओं को ढोते मजबूर पुरुष और नारी स्त्रीत्व के दैवीय गुणों को विसारते जा रहे हैं।आधुनिक सोच के नाम पर पश्चिमीकरण स्त्रीत्व को निगलता जा रहा है कोमल भाव कठोर हो रहा है आस-पास के उदाहरणों के अधिकांश अंश इस सीमा को लांघ रहे हैं।

पुरुष और नारी से निर्मित ये समाज पुर्वग्रहों से ग्रसित हो स्त्रीत्व की कोमलता की परिभाषा को ही भूल रहा है। ऐसी पंक्तियाँ बमुश्किल ही समझ के कोने मैं स्थान पा रही हैं , जिनकी उल्टी सीधी व्याख्या हमारा मस्तिष्‍क मनमाने ढंग से कर रहा है। जड़ तक पहुँच को सामाजिकता जैसे भारी शब्द ख़त्म कर रहे हैं। सभी स्वयं मैं एक स्त्री ढूंढें ये एक भाव है एक ऐसा गुण जो देवताओं को भी दुर्लभ है।

पुरुष भाव के भी अपने महत्व हैं, अपना स्थान है, इस पर भी लिखने का जरुर प्रयत्न करुँगी …पहले स्वयं को स्त्री हो जाने दूँ …

काश मैं स्त्री हो पाती …

नारीपन मैं ढ़ल पाती …

कोमलता ना छिन जाती

तो मैं सहज ही रह पाती …

काश ये विश्वास ना छिनता

नारी सा अहसास ना छिनता

नहीं चाहिए ये बल संबल

होने दो मुझे स्त्री केवल

होने दो मुझे स्त्री केवल ।

”अर्शी”

कवियित्री आशु चौधरी अर्शी की वाल से साभार

चित्र: अशोक जी की वाल से।

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