साहब का क्या। चरित्र में गिरें या बाथरूम में, क्या फर्क ?

मेरा कोना

: क्या मैं झूठ बोल्या, क्या मैं कुफर बोल्या : हार जैसे हठों की सुरभि-सुगन्धि बेहद दूर तक पहुंची, पहले से भी थी : एनडी तिवारी के दरवाजे पर सैंडविच की तरह झुके हुए थे आईएएस बाबूराम : अपनी जीत के लिए दूसरों की हार में पलटने में माहिर हैं बेशकीमती हार वाले लोग : माहिर तैराक को भी उसके ही आंसुओं में डुबोने का माद्दा रखता है अफसर :

कुमार सौवीर

लखनऊ : भइया, हकीकत तो यह है कि अफसर तो अफसर ही होता है। जहान का मालिक होता है। नये दौर का शाहंशाह। भले ही कोई मंत्री-शंत्री हो, मुख्यमंत्री हो या फिर खन्तरी हो। नेता हो या फेता हो। यह सब के सब किसी भी अफसर की जूती के नीचे ही रहते हैं। बल्कि साफ कहिये तो जूती से भी सौ कदम नीचे। अफसर आसमानी ताकत होता है तो बाकी सब हुजूर-चाटू। जनता तो पाताल से भी नीचे रहती है। छि छि छि, दो कौड़ी की जनता कहीं की। न कोई लाज, और न चुल्लू भर शर्म। नेताओं को सरकार चलानी होती है, तो चलाते रहें। असल शासन तो अफसर ही करता है।

होना भी चाहिए। इसमें हर्ज कैसा, शर्म कैसी, हुज्जत कैसी? सब के सब चारों ओर अफसरशाही के ही इर्द-गिर्द परिक्रमा करते रहते हैं। नेता सड़क पर हल्ला मचाता है तो अफसर फाइलों पर घोड़े दौड़ा देता है। ऐसा चकाचक रेसकोर्स बना डालता है कि नेता-फेता की घिग्धी ही बंध जाती है। वरना मजाक थोड़े ही है कि नेता चिल्ली–पों करता रहता है और अफसर चैन की बंशी बजाता ही रहता है।

अफसर जेल भी जाता है तो बहुत शान के साथ। वहां रहता भी है तो राजसी ठाठबाट की तरह। वह जन्मजात अमीर होता है। पैसे की किल्लत उसे होती नहीं। सेवादारों की तादात बेहिसाब होती है। इंद्र भले ही अपने लाख आदेश देकर बादलों से बारिश न करा पायें, लेकिन अफसर एक इशारे में पैसों की झमाझम बारिश कराने की भसोट जानता है। उसमें गूदा होता है प्रशासन करने का, यह करने का, वह करने का, हैन करने का, तैन करने का, ऐसी करने का भी और ऐसी की तैसी करने का भी दमखम भी होता है अफसर में।

अफसर चाहे तो किसी को भी चकरघिन्नी बना सकता है। वह चाहे तो जहां का भी तेल किसी के साथ भी प्रयोग करा सकता है। वह चाहे तो किसी को भी महीनों तक थानों के हवालातों में सड़ा सकता है, उसका भविष्य गला सकता है, उसका परिवार तबाह कर सकता है। ऐसा कर सकता है कि देखने-सुनने वालों की रोंगटे खड़े हो जाएं। ऐसे-ऐसे हादसे करा सकता है कि जिसे सुनने वालों की सातों पुश्त तक सहम जाएं। भले ही चाहे वह मासूम और बेगुनाह ही क्यों न हो। अफसर की भृकुटी टेढ़ी हो जाए तो वह अच्छे–खासे जिन्दादिल शख्स की जिन्दगी को मौत तक में तब्दील कर सकता है। जो पुलिस आम आदमी और समाज की सुरक्षा के लिए बनायी गयी है, उसे और उसकी एसटीएफ तक को आम आदमी के खिलाफ जुटा सकती है। मानवाधिकारों का कोई मतलब ही नहीं होता है अफसर के लिए। अफसर को कोई दुख-शोक नहीं होता है। हां, अगर वह अपनी या फिर अपनी पत्नी की खुशी हासिल करना चाहे तो फिर वह अफसर किसी भी गरीब की आंखों और जिगर-दिल से आंसुओं की आश्रु-धारा निकाल सकता है, पनाला, नाला निकाल सकता है।

अव्वल तो अफसर बेईमान होता नहीं है। वजह यह कि वह कभी पकड़ा ही नहीं जाता। और मान भी लीजिए कि अगर कभी पकड़ा भी जाए तो कोई न कोई बहाना लेकर अपनी पोस्टिंग किसी न किसी दीगर पोस्ट पर करवा ही लेता है। मकसद यह कि जब तक मामला गरम हो, अफसर को हटा कर मामला शांत-ठण्ड कर लिया जाए। फिर कुर्सी पर तो अफसर को ही बैठना है। वहां कोई श्वान-श्रंगाल तो बैठेगा नहीं। जब भी बैठेगा, तो अफसर ही बैठेगा। ऊंट की करवट की तरह। खरबूजे और गिरगिट की रंगत की तरह। अभी गरम, तो कभी शांत। अभी से डांट खायी, तो उसके ठीक बाद किसी दूसरे पर खौखिया पड़ा।

सचिवालय में सचिव के पद पर तैनात लम्‍बे-चौड़े कद्दावर एक अफसर हैं। वे जब लखनऊ में एडीएम-प्रशासन हुआ करते थे, तब उन्होंने अफसरों की खासियत बतायी थी। एक बातचीत में बोले थे:- एक बार एनडी तिवारी जी के कमरे के बाहर दरवाजे पर एक दोहरी कमर तक झुके एक व्यैक्ति को सीने में फाइलें सटाये हुए कोर्निश करते देखा था। लेकिन उन्हें तब बेहद हैरत हुई जब तिवारी जी ने उसे हल्की प्यारी झिड़की देते हुए पुकारा कि बाबूराम, चल इधर आ।

कहने की जरूरत नहीं कि बाबू राम एक वरिष्ठ आईएएस अफसर हुआ करते थे।

तो क्या समझे आप। खुदा न ख्वास्ता, अगर अफसर किसी मामले में फंसने के अंदेसा में फंस जाता है तो उसे उस काई को साफ करने में महारत भी है। अच्छे खासे की मजबूत नजर को वह मोतियाबंद में तब्दील कर सकता है। किसी तैराक को उसके ही आंसुओं में डुबो सकता है। किसी धावक को हमेशा-हमेशा के लिए विकलांग-दिव्यांग का ओहदा अता कर सकता है।

अजी साहब, मैं तो कहता हूं कि बहुत कारसाज होता है अफसर। अफसर चाहे तो सैकडों एकड़ जमीन पर कब्‍जा करा दे। वह चाहे तो अपने लिए फार्म हाउसों की नगरी बना दे। वह चाहे तो किसी की भी जीत को हमेशा-हमेशा के लिए उसकी हार में तब्दील कर दे। और अगर चाहे तो किसी भी बेशकीमती हार को अपने अहंकार के चलते दूसरों के जी का जंजाल बदल दे। हार को जीत या फिर हार को अमानवीय हार में बदल दे। बाप रे बाप, क्या क्या् नहीं कर सकता है अफसर?

खैर, अजी, हमसे मत पूछिये कि अफसर क्या-क्या कर सकता है। सवाल तो यह पूछिये कि अफसर क्या-क्या नहीं सकता है। अफसर को पल्टी मारने में खासी महारत होती है। वह नब्ज-पहचानता है। यह अफसर का ही कमाल है कि वह कभी रिटायरमेंट के बाद भी जुगाड़-टेक्नॉलॉजी अप्लाई करके एक्सटेंशन हासिल कर लेता है, तो कभी जरूरत पड़े तो खबरों को दबाने के लिए खुद को किसी बाथरूम में चारों खाने चित्त धड़ाम कर सकता है। ऐसी चोटों को जांचने-परखने-ढांपने-छिपाने या फिर उसे बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए लोहिया अस्पताल भी तो इसीलिए होते हैं।

अब बोलिए न, कि क्या मैं झूठ बोल्या? क्या मैं कुफर बोल्या?

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