गौर से देखिये। यह आपकी-हमारी बेटी तो नहीं, जिसे सिगरेट से दागा गया?

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: आशियाना बलात्कार काण्ड: यह न्याय की जीत नहीं, व्यवस्था की हार है : दो लाख रूपया का मुआवजा, आखिर किसके जख्मों पर मलहम लगायेगा कोर्ट : सरकार की जवाबदेही है यह हौलनाक, मुआवजा भी सरकार फौरन अदा करे : शर्मनाक है सरकार की व्यावस्था, दरिन्दों  ने बच्ची को लाइटर से दागा था : कोर्ट के फैसले से आहत, हाईकोर्ट में अपील करेंगे अधिवक्ता जलज गुप्ता  :

कुमार सौवीर

लखनऊ : आशियाना कालोनी में वाहिशाना सामूहिक बलात्कार पर सरकार के रवैये और अदालत के फैसले को लेकर अब चर्चाएं भड़कनी लगी हैं। मूल मामला यह उठ रहा है कि यह करतूत भले ही उन दरिंदों की थी, लेकिन कानून-व्यवस्था का जिम्मा तो राज्य सरकार का ही था। फिर क्या कारण थे कि इस मामले में तीन बार की राज्य सरकारें उस बच्ची और उसके साथ ही पूरे समाज और जन-समुदाय तक समय से न्याय नहीं पहुंचा सकीं। वह कौन से कारण थे जिसके चलते इस पूरे मामले में आपराधिक और षड्यंत्र की गोटियां मुख्य अभियुक्तों को बचाने के लिए चलायीं गयीं।

अब जरा इस मुकदमे का पूरा आदेश पढ़ लीजिए। राजधानी लखनऊ के बेहद चर्चित इस आशियाना गैंग रेप केस में सोमवार को मुख्यल आरोपी गौरव शुक्ला को 10 साल की सजा सुनाई गई है। फास्ट ट्रैक कोर्ट के विशेष जज अनिल कुमार शुक्ल ने सजा सुनाने के साथ मुख्य आरोपी पर 10 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया। खबर है कि अदालत ने राज्य सरकार को भी आदेश दिया है कि वह पीडि़त बच्ची को दो लाख रूपयों का मुआवजा दे। सजा सुनाये जाने के समय गौरव शुक्ला अदालत में मौजूद था। इससे पहले अभियोजन पक्ष ने मुख्य आरोपी गौरव शुक्ला को इस मामले में अधिकतम सजा सुनाये जाने की अपील की। जबकि बचाव पक्ष ने मुख्य आरोपी के परिवार का हवाला देते हुए उसे कम से कम सजा देने की गुजारिश की।

इसके बाद उन सवालों का जवाब खोजने की कोशिश कीजिए जो इस अदालती फैसले से उठे हैं। इतना ही नहीं, राज्य सरकार को भी यह आदेश दिये जाने से भी बहस छिड़ गयी है कि केवल दो लाख रूपयों से किसके जख्‍म और दर्द पर मलहम लगाया जा सकेगा। सवाल यह भी उठना शुरू हो गया है कि आखिर यह हादसा तो राज्य सरकार के अनिवार्य दायित्व कानून-व्यवस्था की असफलता का प्रतीक था। इतना ही नहीं, उस हादसे के बाद भी जिस तरह सरकारी अफसरों का बच्ची-विरोधी रवैया था, उससे दुराचारियों के हौसले और मजबूत हुए। नतीजा यह हुआ कि जो न्याय जल्द से जल्द हो जाना चाहिए था, उसे निपटाने में 11 साल लग गये। इनमें से नौ साल तो केवल सरकारी साजिशों की भेंट चढ़ गये। सरकार की मंशा कभी भी नहीं दिखा कि वह उस बच्ची को इंसाफ दिलाने पर प्रतिबद्ध है।

क्या उसके बाद बनीं तीन सरकारों ने एक बार भी इस बच्ची के बारे में कोई गम्भीर कोशिश की? क्या इस बारे में कोई राहत पहुंचानी कोशिश की, जो सामान्य तौर पर यह सरकारें तथाकथित पीडि़त लोगों के लिए करती रही है? इतिहास है कि समाज पर भार साबित लोगों को चोट पहुंचने या उनकी मृत्यु पर सरकार ने केवल आपनी वाहवाही के लिए उन्हें राहत दिलाने के नाम पर भारी-भरकम रकमें लुटायीं हैं, लेकिन इनमें से किसी भी सरकार ने इस बच्चीह और उसके परिवार के बारे में कोई भी आवाज न तो सुनी और न ही उसे सुनने की कोई जरूरत ही समझी। हां, कहने-दिखाने के लिए यह सरकारें खुद को आम आदमी की हितैषी और हमदर्दी रखने के दावे करती रही हैं।

खैर, अब यह बताइये कि आशियाना कालोनी में जिस 13 साल की बच्ची के साथ रसूखदार गुण्डों ने रातभर बलात्कार किया, क्या वह हमारी-आपकी बेटी तो नहीं थी? गौर से देखियेगा, फिर अपने दिल पर हाथ रख कर खुद से पूछियेगा कि बेटी का दर्द क्या हमारे सारे समाज की बेटियों का नहीं है? और हां, अगर ऐसा है, तो फिर पहले हमें खुद पर शर्म लाने पडेगा, और उसके बाद सरकार और अदालतों पर भी सशक्त पैरवी करनी पड़ेगी, ताकि आइंदा किसी दूसरी बेटी के साथ न हो सके।

यह सवाल इसलिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि हम अब तय करें कि हम अपनी बच्चियों को इसी नारकीय माहौल में रखना चाहते हैं या फिर उसके खिलाफ हमारे मन में  कोई आक्रोश, जज्बा और फैसलाकुन रणनीति भी है।

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