: सामाजिक दायित्व और बदलावों के लिए सक्रिय जोशीली महिलाओं पर दास्तान : प्रतिकूल हालातों के बावजूद पहचान बनाया इन महिलाओं ने : अरुणिमा सिंहा, माधवी कुकरेजा, रौशन जैकब, डॉ अंजू सिंह, शर्मिला इरोम, अरुणा राय, सुमन रावत, उषा विश्वकर्मा, नाइश हसन, रेखा गुप्ता, सरोजनी अग्रवाल, रूपरेखा वर्मा जैसी बेमिसाल हैसियत : अपने दायित्वों पर पल्लू कसे हैं महिलाएं, पहचान फ्री-फण्ड में :
कुमार सौवीर
लखनऊ : किसी उम्दा सौदे के उलट, जब हम किसी सफल महिला की दास्तान सुनते-देखते हैं तो अक्सर इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि कमल कैसे-कैसे कीचड़ में खिलने की जद्दोजहद करता है। भूल जाते हैं कि आज खूबसूरत और लाजवाब दिखते कमल को आकर्षक बनने के लिए उसे कितना छोड़ना पड़ता है, कैसे दर्दों को पीना पड़ता है और कैसे-कैसे हादसों को भुलाना पड़ता है। इतना ही नहीं, अगर आपने कभी उन पर बीते या मौजूदा हालातों को अगर कुरेदने की कोशिश की तो वे आम तौर पर हंस कर ही बात टाल देंगीं। माहौल शर्तिया ऐसा बना देंगीं कि उनमें सिर्फ और सिर्फ खुशी और हौसलों की अंतहीन फुहारें ही मौजूद हैं। लेकिन खुद और घर पर दीपावली जैसा माहौल बनाये रखने में उन्हें कैसी-कैसी वर्जिश करनी पड़ती होगी, इसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल है।
कुछ समय पहले हमने लखनऊ के प्रमुख समाचारपत्र डेली न्यूज एक्टिविस्ट के लिए हमारे आसपास मौजूद समाज में प्रकाश-स्तम्भ जैसी भव्य और बेमिसाल महिलाओं के दिलों को टटोलने की कोशिश की, तो रोंगटे खड़े देने वाली डरावनी सचाइयों का साबका पड़ा। आज वे जो सफलता के पैमाने पर खरी उतरती दिख रही हैं, दरअसल उनकी सफलताओं के पीछे उनमें घायल और असहनीय चोटों-घावों का बाकायदा भंडार मौजूद है। लेकिन अपनी दिल-दहला देने वाली यादों, हादसों और वारदातों को उन्होंने अपने दिल-दिमाग में किस तरह अपने दिल में दफन कर डाला है। खुद के लिए, और जाहिर बात है कि पूरे समाज की जरूरत के लिए भी। चाहे वह जनाधिकारों की शीर्ष योद्धा मणिपुर की शर्मिला इरोम हो, या जनसूचना अधिकार की सबसे बड़ी नायक रहीं राजस्थान की अरूणा राय।
ज्यादा दूर क्यों जाते हैं, अपने यूपी में ही ऐसी बेहिसाब इरोम और राय जैसी हौसलामंद महिलाओं की भरमार है। जो खूब जूझी हैं।
कभी गुलाबी-गैंग की सरगना बन कर वे कभी महिला अधिकारों के लिए भिड़ती हैं तो कभी गरीब महिलाओं की रहबर बन जाती हैं। कोई वेश्यावृत्ति के खिलाफ समूल निशान मिटाने पर आमादा है तो कोई दूसरी बेसहारा महिलाओं की पहचान बन जा रही है। कोई समाज में महिलाओं को आत्मनिर्भर, सशक्तीकरण और स्वावलम्बी बनाने में व्यस्त हैं तो कोई अनाथ बच्चियों को मजबूत दिशा दिलाने में जुटी हैं। किसी ने किसी को रास्ता दिखाया है तो किसी ने जनता को एकजुट किया। किसी ने गायन में नाम ऊंचा किया तो किसी ने नृत्य, खेल या लेखन और कविता अथवा फैशन में अपना मुकाम बनाया।
आइये। हम चलते हैं ऐसे ही कुछ महिलाओं के पास, जो वाकई पहाड़ जैसी पीड़ाओं का बुलंद दस्तावेज हैं। जो न जाने कब ही खत्म हो चुकी होतीं, लेकिन खुद, अपने बच्चों, परिवार और समाज के लिए खुद को होम कर रही है, बाकायदा खुद को किसी यज्ञ-वेदी की तरह पेश करते हुए।
अरूणिमा सिन्हा भारत से राष्ट्रीय स्तर की पूर्व वालीबाल खिलाड़ी तथा माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली पहली भारतीय विकलांग हैं। हम मिले हैं हरदोई के नटपुरवा वाली चित्रलेखा से, जिनके चार बच्चों को अपने बाप का नाम मयस्सर नहीं हुआ लेकिन दूसरों के बच्चों को सम्मान दिलाने की पुरजोर कोशिश की। जबकि मिर्जापुर में अपने बेरहम पति ने एक महिला की अपने बेरहम पति ने उनकी नाक भले काट ली, लेकिन वे अब दूसरी महिलाओं की नाक हर कीमत पर बचाने ही नहीं, उन्हें अपनी नाक लगातार ऊंची रखने की कोशिश में जुटी हैं।
लखनऊ का सनतकदा अब किसी पहचान या परिचय का मोहताज नहीं रहा। इसकी मुखिया हैं माधवी कुकरेजा। देश-प्रदेश में कई जुझारू महिलाओं को न केवल ठीहा मुहैया कराया है माधवी ने, बल्कि उन्हें उनकी पहचान भी बिल्ड की है। लहरपुर की कैसर जहां ने अपनी जिन्दगी साधारण ढाबे में अपने पति के साथ झूठे बर्तन-ग्लास धोकर हुई खुद को ऐसा मुकाम हासिल किया कि लोग अपनी ऊंगलियां दांतों से काट लेते हैं। लेकिन उनके संघर्ष फलीभूत हुए और वे सांसद बन कर लोकसभा सत्र में पूरी ठसक से बोलने लगीं। महज 17 की उम्र में सवित्री को समाजसेवा की लगन क्या लग गयी कि आज वे विधायक की कुर्सी पर हैं।
जबकि सीतापुर के नैमिषारण्य यानी नीमसार में सुदूर यानी दक्षिण भारत से आकर एक ने ललिता देवी की भूमि पर विष्णु-भगवान की एक नयी हवा झलकाया है। दूर-दूर तक के लोग उनको यहां मां कहते हैं। लखनऊ में ही हैं उषा विश्वकर्मा, जो महिलाओं के लिए स्कूली व सामाजिक लड़कियों के लिए जूझती हैं। सुमन रावत ने तो पॉवर-विंग जैसी एक बड़ी ताकत पैदा कर दी।
प्रशासन और जन-समस्याओं को निपटाने की ईमानदार कवायद की प्रतीक रही हैं प्रदेश की पूर्व वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी आयरन-लेडी रेखा गुप्ता, जिन्होंने अपने दायित्वों के चलते अपनी शादी तक को ही ठुकरा दिया। ईमानदारी और दायित्वों के प्रति निष्ठा यह कि लखनऊ विकास प्राधिकरण की उप-मुखिया होने के बावजूद उनके पास एक मकान या जमीन का टुकड़ा तक नहीं।
जौनपुर के सिंगरामऊ कस्बे की डॉक्टर अंजू सिंह से मिलिए ना। डॉक्टर अंजू अपने आसपास के ग्रामीण इलाके में गरीब महिलाओं के पैरों को मजबूती दिलानी की कोशिशें में जुटी हैं, ताकि वे आत्मनिर्भर हों और उनके परिवार के साथ ही पूरे समाज में खुशहाली की बयार बहे। उधर लखनऊ विश्वविद्यालय की नामचीन प्रोफेसर साबरा हबीब ने सारे सुखों को धकेल कर खुद को इल्म के प्रति समर्पित कर दिया ताकि दूसरों को भी शिक्षा की बेहतर रौशनी मिल सके।
जौनपुर के ही टीडी कालेज में मनोविज्ञान विभाग की रीडर रहीं हामिदा बानो ने अपनी सारी जिन्दगी कुत्तों, बिल्लियों और अनाथ गायों की हिफाजत को समर्पित कर दिया, जबकि कभी यूनीसेफ की मुखिया रहीं साहिबा हुसैन अपने बेटी फाउंडेशन के तहत जरूरत महिलाओं की मदद के लिए अभियान छेड़े हुए।
बहराइच के नानपारा में मलूकन की तीन शादियां हुईं जरूर, लेकिन खुशियां उनके खाते में थी ही नहीं। दूसरे पति ने अपनी बेटी को पहचानने से ही इनकार कर दिया, लेकिन आज पूरे प्रदेश में एक पहचान हासिल कर चुकी हैं मलूकन। लगातार नगर परिषद की कुर्सी पर लगातार अध्यदक्ष का पद सम्भालना आसान नहीं होता। वह भी तब, जब यह संघर्ष अकेले बस पर चला रहा हो, जबर्दस्त विवाद बने रहें हो और सहारे नाम पर केवल जन-समर्थन। मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा के खिलाफ लाइट-हाउस बनीं है नाइश हसन, तो मजलूम महिलाओं के अधिकारों पर लड़ रही हैं शाइस्ता अम्बर। लखीमपुर-खीरी की निधि शुक्ला को अपनी बहन के हत्यारों समेत ऐसे दोषियों को सजा दिलाने के लिए खुद को होम कर चुकी हैं।
बलरामपुर की श्रद्धा दीक्षित के पिता की मृत्यु बचपन में हो गयी थी, लेकिन हौसला लाजवाब मौजूद है। आज यह युवती नेपाल के इस तराई इलाके में ताइक्वांडो में पहचान बना चुकी है। जबकि मनीषा मंदिर की स्थापना करने वाली डॉक्टर सरोजिनी अग्रवाल के पास अब तक सौ से ज्यादा बेटियां हैं जो उन्होंने अपनी बेटी मनीषा की एक दुर्घटना में मौत के नाम पर बनाये संगठन को पोसा-पाला। सांझी दुनिया वाली डॉ रूपरेखा वर्मा ने भले ही अपना निजी जीवन अकेला ही जिया हो, लेकिन बेहिसाब महिलाओं की आवाज बन कर वे खुद एक समूह बन गयीं।
चाहे वह बाराबंकी, श्रावस्ती, फैजाबाद, अम्बेडकर नगर, बस्ती और सिद्धार्थनगर हो या प्रतापगढ, उन्नाव, हरदोई, रायबरेली, कानपुर, अमेठी, सुल्तातनपुर, हमीरपुर, इलाहाबाद, भदोही, मिर्जापुर,चित्रकूट, कौशाम्बी अथवा कोई भी जिला या इलाका हो, ऐसी जाबांज महिलाओं की कमी नहीं है। जरूरत सिर्फ इस बात है कि उन्हें पहचाना जाए। टीम इस काम में जुट गयी है ताकि माहौल ऐसा बने जहां:- यत्र नार्यस्त पूज्यते, रमंते तत्र देवता।
आपके आसपास ऐसी कोई जाबांज ताकतें दिखें तो बताइयेगा जरूर।