अनुमान लगाइये कि रामराज में शम्बूक के साथ क्या हुआ होगा

बिटिया खबर

: सतनारायन-कथा और शबरी-गाथा के फर्क समझिये : यानी रामराज तब होगा, जब हम पढ़ें और शूद्र न पढ़ें ? : गाली है हरामी शब्‍द, पर अत्‍याचार के समूल-नाश का आह्वान भी तो है : एक स्‍कूल ऑफ थॉट है शम्‍बूक, द्विजों के आश्रमवादियों ने मार डाला : अपने आसपास वाल्टेयरों को खोजिए, वरना पादरी-वाद का वध होगा :

प्रेमकुमार मणि

पटना : कल जीतनराम मांझी के सवाल पर मैंने जब पोस्ट लिखा तब बड़ी संख्या में लोगों का समर्थन मिला, किन्तु ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी,जो मांझी जी को मर्यादा का पाठ पढ़ा रहे थे। कल दिन भर सोशल मीडिया में तथाकथित द्विजों के कुछ लम्पट तत्व मांझी के खिलाफ लिखते बोलते रहे। यह अजीब विरोधाभास था कि मर्यादाविहीन शब्दावली में मांझी जी को मर्यादा का पाठ पढ़ाया जा रहा था। पाठ पढ़ाने वालों में भाजपा से अधिक जदयू के संपोले थे। मांझी जी का संकट समझ सकता हूँ। किशोर काल में जब राम को ऐतिहासिक पात्र समझता था ( उन दिनों पौराणिकता और इतिहास के भेद को नहीं समझता था ) तब रामकथा के लव -कुश और शम्बूक प्रसंग मुझे रुलाते थे।
सोचता था कैसी दुनिया थी जब एक राजा जिसे मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जा रहा था, एक शूद्र की केवल इसलिए हत्या कर देता है कि उसने शूद्रों के लिए एक विद्यापीठ स्थापित किया हुआ था। वह भी सुदूर वनप्रांतर में। बेचारे शम्बूक ने तो किसी को हरामी नहीं कहा था। वह तो चुपचाप नई दुनिया गढ़ने की कोशिश कर रहा था। वह भी अयोध्या से चिरदूर वनप्रांतर में। लेकिन क्या उसे बक्श दिया गया? कथा है कि विद्यपीठ के प्रभाव से द्विज बालक मरने लगे। जैसे आज मांझी की बात से एक तबके को मिर्ची लगी है, वैसी ही मिर्ची लगी होगी। भाई, किसी ने जंगल में यदि चरवाहा विद्यालय खोल ही दिया है तो आप इतने बेचैन क्यों हो रहे हो ? लेकिन अयोध्या के पंडितों को चैन नहीं था। हम भी पढ़ें और शूद्र भी पढ़ें, तब फिर हमारा वर्चस्व कैसे रहेगा। हम पढ़ें और शूद्र न पढ़ें तब तो रामराज होगा। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम का ख़िताब बनाए रखना था। उनके वोटबैंक की फिक्र थी। वह द्विज उकसावे पर जंगल जाते हैं और ढूँढ कर शम्बूक की हत्या कर देते हैं।
यह रामकथा का उत्तरपक्ष है। आज भी मांझी का शंबूकीकरण करने केलिए कुछ द्विज शक्तियां मचल रही हैं। उनके नथुने फडक रहे हैं कि मांझी को सबक सिखाना जरूरी है। त्रेतायुग और कलयुग में इतना साम्य तो रखना ही है, यह उनकी जिद है। वोट है मुट्ठीभर, लेकिन घमंड है कि देश-दुनिया का पूरा लोकतंत्र हमारे ही बूते चल रहा है। सब उनकी ही मर्जी से हो रहा है।
एक विद्वान प्रोफ़ेसर ने मेरे पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि आम्बेडकर ऐसी यानि मांझी जैसी जुबान नहीं बोलते थे। मैं नहीं जानता कि हमारे विद्वान प्रोफ़ेसर ने आम्बेडकर को कितना पढ़ा है। आम्बेडकर तो ब्राह्मणों के बीच से ही विद्रोही पैदा हों इसकी कामना करते थे। पुरोहितवाद के खिलाफ भारत के ब्राह्मणों ने कोई विद्रोह नहीं किया ,यह दुर्भाग्यपूर्ण था। यहाँ विद्रोह द्विजों के क्षत्रिय तबके ने जरूर किया। जनक क्षत्रिय थे। उनके नेतृत्व में एक वैचारिक विद्रोह हुआ और वैदिक देवता इंद्र की छुट्टी कर दी गई। वैदिक ब्राह्मणों का देवता इंद्र अथवा पुरन्दर था। सोमरस ( तत्कालीन शराब ) पीकर मस्त रहने वाला और असंख्य रमणियों से सहवास करने वाला बिगड़ैल देवता, जिसका आज कोई नामलेवा नहीं है। जनक जैसे क्षत्रियों के उपनिषद-चिंतन ने इंद्र को ख़त्म कर दिया और एक ऐसे देवता की निर्मिति की जो कुछ खाता-पीता नहीं है। वह बस वायरस की भाँति एक पुद्गल तत्व है, बिल्कुल निष्क्रिय। इसी ब्रह्म को बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद की अवधारणा ने शून्य ( कुछ नहीं ) में तब्दील कर दिया। एक अनीश्वरवादी धर्म-दर्शन।
बौद्ध दार्शनिकों की दीर्घ-परंपरा में अनेक ब्राह्मण भी हुए। तब भारत अपने ज्ञान-शक्ति के बूते विश्वगुरू था। बौद्धों को किसने भारत भूमि से भगाया, क्यों भगाया, इसका ज्ञान लोगों को हासिल करना चाहिए। इस ज्ञान-परंपरा के विनष्ट होते ही भारत गुलाम-युग में आ गया।
आम्बेडकर की चिंता थी कि जो कार्य क्षत्रियों ने किया वह ब्राह्मणों ने क्यों नहीं किया ? उन्होंने प्रश्न किया कि ब्राह्मणों की इतनी सुदीर्घ ज्ञान-परंपरा रही, लेकिन उनके बीच से एक विद्रोही वाल्टेयर क्यों नहीं निकल सका ? वाल्टेयर सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी ( 1694 -1778 ) का एक फ्रांसीसी दार्शनिक था, जो जन्मा तो था पादरी ( पुरोहित ) परिवार में, लेकिन उसने ईसाइयत पुरोहितवाद की धज्जियाँ उड़ा दी। उसने कहा:- दुनिया में शांति तब आएगी, जब यहाँ के आख़िरी सामंत की आंत से यहाँ के आख़िरी पादरी का गला घोंट दिया जाएगा। वाल्टेयर और रूसो ही थे जिन्होंने यूरोपीय प्रबोधनकाल को उसके वैचारिक शीर्ष पर पहुँचाया, जिसके फलस्वरूप फ्रांसीसी क्रांति संभव हुई। इस क्रांति ने दुनिया का चेहरा बदल दिया। सबकुछ को उलट-पुलट कर रख दिया। कार्ल मार्क्स हों, या लेनिन, आम्बेडकर हों या नेहरू या कि जेपी और लोहिया, सब के सब इस फ्रांसीसी क्रांति के दीवाने रहे हैं। इस क्रांति के मूल में यदि कोई था तो एक फ्रांसीसी ईसाई ब्राह्मण वाल्टेयर, जिसे मृत्यु के बाद उसके पार्थिव शरीर को पादरियों ने कब्रगाह में जगह देने से इंकार कर दिया था। ऐसे ही वाल्टेयर की तलाश आम्बेडकर साहब को भारतीय ब्राह्मणों के बीच से थी। लेकिन ब्राह्मणों के बीच से कोई वाल्टेयर क्यों नहीं हो सका ?
मुझे लगता था कि भारतीय ब्राह्मणों की नई पीढ़ी कुछ जानदार हुई होगी। लेकिन काश ! बड़े पैमाने पर ऐसा नहीं हुआ। गालबजाऊ ही अधिक हुए। हाँ मुट्ठी भर लोग जरूर मिले। हमारे युवा साथी आशीष त्रिपाठी की साहसिक टिप्पणी पढ़ कर मेरी आँखें भीग गईं। इस युवा साथी में वाल्टेयर की एक झलक मुझे मिली। मैं बहुत प्यार और आदर के साथ उन्हें अपना सलाम पेश करता हूँ, यद्यपि वह उम्र में मुझ से बहुत छोटे हैं, लेकिन इस छोटे भाई के ज्ञान-विवेक पर मैं थोड़ा गुमान कर सकता हूँ । ऐसे विद्रोही-विवेकशील लोगों में ही मुझे भारत का भविष्य दिखता है। उनकी संख्या अभी कम हो सकती है, लेकिन भविष्य उनका ही है।
मैं एक दफा फिर लोगों से अपील करूँगा कि वे मांझी जी के भाषण की समीक्षा करें। मांझी उस मुशहर जमात से आते हैं ,जिससे शायद रामकथा की शबरी आती थी। शबरी और राम के प्रेम संबंधों पर लोहिया जी की एक प्यारी टिप्पणी है। दुर्भाग्य है कि आज की पीढ़ी यह सब कुछ नहीं जानती। वह राम को जब बेर-फल खिलाती थी तब पहले खुद चख लेती थी। उसके जूठे बेर राम प्रेमपूर्वक खाते थे। मांझी की पीड़ा है कि हमारे लोग सत्यनारायण की कथा प्रेम से करते-कराते हैं, उसमें पंडित भी बुलाए जाते हैं, लेकिन ये पंडित छल करते हैं। पुरोहिती-पूंजीवाद की स्थिति यह है कि अब अछूत के नाम पर पंडित दलितों का बहिष्कार तो नहीं करते, लेकिन दुष्टता यह करते हैं कि उनके यहां भोजन नहीं करना चाहते। इसके एवज में नगद की मांग करते हैं। अब ऐसे पंडितों को कोई हरामी कहता है तो क्या गलत करता है ? मांझी ने ब्राह्मण बिरादरी की नहीं, उसके पुरोहितवाद की आलोचना की है। हिन्दू संगठनों को देखना चाहिए कि कौन उनके हिंदुत्व में पलीते लगा रहा है। वे दलित जो सत्यनारायण की कथा परंपरा को अपने घरों तक विस्तार दे रहे है कि वे ढपोरशंखी पंडित जो भगवान को चढ़ाए पवित्र प्रसाद के साथ दुरंगा व्यवहार करते हैं और उसे दलित अन्न मान कर ग्रहण करने से इंकार करते हैं। दरअसल ऐसे पंडित ईश्वर की पवित्रता पर ही सवाल उठा रहे हैं। ऐसे पंडितों को तो अस्पृश्यता निवारण कानून के तहत गिरफ्तार कर जेल में ठूंस देना चाहिए। मांझी जी ने इस सचाई को रख कर वृहत्तर हिन्दू समाज की एक तरह से मदद की है। लेकिन मांझी की जाति अधम है। मुख्यमंत्री होने से क्या होता है। है तो मुशहर। कोई उसकी जीभ काट रहा है, कोई गोली मार रहा है। गाली तो मिल ही रही हैं। बेचारे मांझी दुबक गए हैं। आज जब यह हो रहा है, तब रामराज में शम्बूक के साथ क्या हुआ होगा, सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

इस आलेख को तैयार किया है प्रेमकुमार मणि ने। अधिकांश जीवन राजनीति में बिता कर पटना के रहने वाले प्रेमकुमार फिलहाल चिंतन और लेखन में हैं। हिन्‍दी-बेल्‍ट में राजनीतिक लेखन के मामले में लेखकों-चिंतकों की संख्‍य काफी कम है। लेकिन इन लेखकों में से अधिकांश लोग ऐसे ही हैं जो पौराणिक और कपोल-काल्‍पनिक गाथाओं के आधार पर लोगों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। इनमें से कुछ लोग भी हैं, जो विधायिका, राजनीतिक दलों से जुड़े-गुंथे हुए हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि किसी उद्देश्‍य के लिए झूठे और काल्‍पनिक किस्‍सों-गाथाओं के आधार पर एक झूठी और रेत की झोंपड़ी तो दिखायी जा सकती है, लेकिन एक तार्किक, तथ्‍यपरक, विकासशील और बेहद अडिग समाज नहीं बनाया जा सकता है। और कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे लेखकों का मकसद राजनीति में अपना दखल, जेब में मोटी रकम, और सत्‍ता में अपनी कुर्सी पुख्‍ता करना ही होता है। ऐसे लोगों की मूल मंशा अपने और अपने समुदाय के लिए एक झूठा और शोषण-युक्‍त ताना-बाना तैयार करना ही होता है। जबकि प्रेमकुमार मणि के लेखक का उद्देश्‍य राजनीति, दल, सत्‍ता या समाज में अपने लिए कोई ओहदा जमाना नहीं है, बल्कि उनका मकसद वंचितों के लिए तार्किक भाव में एक सरल, आडम्‍बरहीन और आदर्श जमीन तैयार करना ही होता है।
मणि जी फिलहाल गहन चिंतन के दौर में हैं। इसी बीच उनका यह लेख मुझे एक घनिष्‍ठ मित्र राजेश कुमार सिंह ने भेजा है, जो उनके विशद अध्‍ययन-जनित गहन वैचारिक जमीन की उर्वरता का निर्दोष और पवित्रतम धरातल का प्रतीक है।

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