अमर उजाला: तुम खबर लिखते हो, या पुलिस की दलाली

बिटिया खबर

: कानपुर में दंगा बारह घंटों तक, लिखा कि डेढ़ घंटे में निपटाया : एडीजी-एलओ की प्राइवेट-प्रैक्टिस कर रहे हैं अमर उजाला वाले : बेहूदा हेडिंग कि कमिश्‍नरेट के अफसर न पहुंचते तो पूरे कानपुर में फैलता था दंगा, यानी बाकी जिलों के अफसर गांजा फूंकते हैं :

कुमार सौवीर

लखनऊ: कानपुर का दंगा करीब तीन जून की सवा दो बजे दोपहर भड़का था। लेकिन दंगा की तनिक भी भनक न तो स्‍थानीय पुलिस को पता चल पायी थी और न ही कानपुर का इंटेलीजेंस नींद से जाग पाया था। घंटों तक दंगाइयों की भीड़ मुख्‍य मार्गों पर आतंक मचाये थी। बड़े अफसर मौके पर तो आ ही गये थे, लेकिन शुरुआत में तो सारे के सारे हवाक थे। किसी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्‍या किया जाए। स्‍थानीय पुलिसवालों को भी दिक्‍कत थी कि वे आला अफसरों के आदेशों का पालन करें, या अपनी समझ से दंगा को थामने की कोशिश करें। वह तो गनीमत थी कि जल्‍दी ही मामला प्रशासन ने निपटा लिया और करीब आधी रात तक पूरा मामला काबू में हो गया।
लेकिन अमर उजाला ने इस मामले की खबर लिखने के बजाय पुलिस विभाग के आला अफसरों की शह पर यूपी में पुलिस आयुक्‍त प्रणाली की वाहवाही कर तोता की तरह टांय-टांय करना शुरू कर दिया। आप इस खबर को पढि़ये, और बताइये कि इस खबर में अमर उजाला ने खबर को खोद निकाला है, या फिर केवल पुलिसवालों की तेल-मालिश की है। सच बात तो यही है कि दंगा भड़कने की खबर मिलते ही पुलिस आयुक्‍त विजय सिंह मीना, संयुक्‍त आयुक्‍त आनंद प्रकाश तिवारी और दो उपायुक्‍त के अलावा डीएम नेहा शर्मा भी मौके पर पहुंच गये थे। लेकिन यह तो हर जगह में होता है। जो भी प्रभारी और जिम्‍मेदार अफसर होता है, वह तो मौके पर पहुंचता ही है। इसमें पुलिस आयुक्‍त प्रणाली की श्रेष्‍ठता की डींग का बखान छौंकने का औचित्‍य क्‍या है, इसका जवाब अमर उजाला ने दिया ही नहीं।

शर्मनाक तरीका तो अमर उजाला से सीखना चाहिए। अमर उजाला ने इस खबर में लिखा है कि डेढ़ घंटे में मामला निपट गया, जबकि सब हेडिंग में वह वक्‍त दो घंटे का दर्ज कर लिया है।
अपनी इस सम्‍पूर्ण मूर्खतापूर्ण खबर में अमर उजाला ने लिखा है कि चंद मिनटों में ही मुख्‍य सड़कों से दंगाइयों को खदेड़ दिया। जबकि अगर वरिष्‍ठ पुलिस अधीक्षक होता तो वरिष्‍ठ अधिकारियों को मौके पर पहुंचने में समय लगना तय था। उससे हालात बेकाबू हो सकते थे। अधिकारियों के बीच समन्‍वय को लेकर कई बार दिक्‍कतें होती हैं। जबकि कमिश्‍नरेट में मातहत को सीधे निर्देश दिये जाते हैं। दरअसल, पुलिस आयुक्‍त प्रणाली लागू होने के बाद कानून-व्‍यवस्‍था से जिला प्रशासन का दखल खत्‍म हो जाता है। अब उन अधिकारियों की जिम्‍मेदारी तय की जा रही है कि जिनकी लापरवाही से हिंसा हुई।
गजब बेवकूफी की बात है। मतलब तो यही है कि अमर उजाला कहना चाहता है कि जहां आयुक्‍त प्रणाली नहीं है, वहां का प्रशासन दो-कौड़ी का है। और इसके पहले डीएम के नेतृत्‍व में काम होता था, वे दरअसल परले दर्जे के मूर्ख, नाकारा और निकृष्‍ट अफसर हुआ करते थे। अपनी इस बकवास जैसे अभियान में अमर उजाला यह पैरवी करना चाहता है कि जहां भी आयुक्‍त प्रणाली नहीं है, वहां के नाकारा प्रशासन को बदल कर वहां तत्‍काल पुलिस आयुक्‍त प्रणाली लागू कर दी जाए। कहने की जरूरत नहीं कि अमर उजाला का यह अभियान साबित करता है कि यह खबर अमर उजाला ने पुलिस के बड़े आला अफसरों के इशारे पर और खुश करने के लिए लिखी है, ताकि वे अफसर यूपी में पुलिस आयुक्‍त प्रणाली को जस्टिफाई कर सकें।
हैरत की बात तो यह है कि इस खबर में अमर उजाला ने प्रदेश के एडीजी ( लॉ-ऑर्डर) प्रशांत कुमार का वर्जन भी दर्ज किया है। लेकिन इस वर्जन में प्रशांत कुमार ने कानपुर की घटना पर चर्चा करने के बजाय पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम की वाहवाही की है। प्रशांत कुमार कहते हैं कि:- पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम का सबसे बड़ा फायदा कानपुर में देखने को मिला। वहां अगर कमिश्‍नर के वरिष्‍ठ अधिकारी तत्‍काल मौके पर न पहुंचे होते तो स्थिति को नियंत्रित करने में समय लगता।

एडीजी प्रशांत कुमार के इस बयान का अर्थ तो साफ-साफ है कि जहां भी पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम नहीं है, वहां किसी भी आपदा को नियंत्रित करने में बहुत समय लगता है। इसमें इशारा भी तो है कि बाकी जिलों में कानून-व्‍यवस्‍था बकवास है, निदान अगर कहीं है तो वह केवल पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम में ही है।

इस अखबार के संपादक और रिपोर्टर को इतनी भी शऊर नहीं है कि हेडिंग कैसी लगायी जाती है। दरअसल, कोई भी हेडिंग उस खबर का जिस्‍ट होती है। इसके बावजूद यह बकवास लिख मारी अमर उजाला ने। अरे कमिश्‍नरेट के अफसरों का काम ही होता है कि जरूरत पर फौरन पहुंचना। न पहुंचे तो उनकी वर्दियां ने उतार दी जातीं, यह समझ में ही नहीं आया इस अखबार को। या फिर अमर उजाला यह कहना चाहता होगा कि यह घटना अपवाद है, और बाकी मामलों में पुलिस कमिश्‍नरेट के लोग मौके पर पहुंचते भी नहीं हैं।

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