अमर उजाला की मस्‍त “इष्‍टैल”। पहले थूको, फिर चाट लो

बिटिया खबर

: पुलिस कमिश्‍नरेट प्रणाली को महान बताया, अगले ही दिन उसी महानता को रद्दी में फेंका : कानपुर दंगा पर सरासर झूठ अफवाहें, फिर लखनऊ को निकृष्‍ट कार्यप्रणाली माना : श्रेष्‍ठ पुलिसिंग करने वाले दस जिलों में एक भी कमिश्‍नरेट प्रणाली से नहीं संचालित :

कुमार सौवीर

लखनऊ: अपने ही हाथ से, अपने ही जूते से और अपने आप को ही जुतिया डालने का साहस दिखा पाना तो केवल अमर उजाला के बस की बात है। कल एक अफवाह फैलायी, और अगले दिन उसका ठीक उल्‍टा छाप मारा। वह भी चमाचम, लकदक और रंग-रोशन के साथ। कानपुर दंगा पर पुलिस की कमिश्‍नरेट प्रणाली की पैरवी के लिए कुख्‍यात इस अखबार ने अगले ही दिन अपने दावों को अपने पांवों तले रौंद डाला। कहने की जरूरत नहीं है कि अमर उजाला अखबार की ख्‍याति खबरों की विश्‍वसनीयता की नहीं, बल्कि अपने पन्‍नों में लिंग-वर्द्धक यंत्र बेचने वाले विज्ञापन के लिए है, जहां लिंग को करारा बनाने और उस प्रक्रिया को रिकार्ड करने के लिए 64 से 128 जीबी तक की मेमोरी का खुला ऑफर दिया जाता है।
मामला है कानपुर में ताजा फैले दंगा पर। इस घटना पर सात दिन बाद अमर उजाला ने खबर लिखी, मगर कानपुर के बजाय लखनऊ की तारीख से। खबर क्‍या, अफवाह समझिये। अफवाह भी ऐसी कि जिसमें पुलिस के आला अफसरों की जमकर टोटल तेल-मालिश की गयी, यानी मक्‍खनबाजी। लिखा गया कि कानपुर की पुलिस कमिश्‍नरेट प्रणाली में तैनात अगर पुलिस अधिकारी मौके पर नहीं आते, तो हालात बुरे जो सकते हैं। सच तो यही था कि कानपुर में दंगा बारह घंटों तक चलता रहा, लेकिन अमर उजाला ने लिखा कि डेढ़ घंटे में यह मामला वहां के पुलिस कमिश्‍नरेट के अफसरों ने पूरी कुशलता के साथ निपटाया है। लेकिन अगले ही दिन आज 11 जून को इसी अखबार ने आज मोटे हर्फों में ऐलान कर दिया है कि लखनऊ कमिश्‍नरेट प्रणाली दो-कौड़ी की है। यानी आज की जो खबर पुलिस-प्रशासन की तारीफ में ढोल बजाता है अमर उजाला, उसी को अगले पुलिस कमिश्‍नरेट प्रणाली को खारिज कर देता है। यकीनन केवल ऐसी अफवाहें छापने का हौसला सिर्फ अगर किसी के पास है, तो उसका नाम है अमर उजाला।
लेकिन 11 जून की खबर में अमर उजाला ने लिख दिया कि यूपी में जन-शिकायतों में लापरवाही करने वाले तीन सबसे लिद्धड़ यानी नाकारा और अक्षम में तीसरा स्‍थान कानपुर पुलिस कमिश्‍नरेट को श्रेय आता है, दूसरे नम्‍बर का ताज है प्रयाग राज के एसएसपी के सिर पर, और अव्‍वल सिरमौर बन चुका है लखनऊ पुलिस कमिश्‍नरेट। लेकिन इसी कानपुर पुलिस आयुक्‍त संगठन को एक दिन पहले ही श्रेष्‍ठ साबित कर दिया था अमर उजाला ने। इतना ही नहीं, इस अखबार ही नहीं, बल्कि यूपी के एडीजी-एलओ प्रशांत कुमार सिंह ने अपनी खूब पीठ ठोंक ली थी कि पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम का सबसे बड़ा फायदा कानपुर में देखने को मिला है।
आपको बता दें कि जन-शिकायतों पर काम न करने का सबसे बड़ा खामियाजा पूरे पुलिस सिस्‍टम से आम आदमी के रिश्‍तों को बर्बाद करने के तौर पर दिखायी पड़ता है। इस नाकारापन से पुलिस के प्रति आम आदमी का सरकार के प्रति अविश्‍वास पैदा होता है, अराजकता के माहौल में आम आदमी की सकारात्‍मकता गायब होने लगती है और इंटेलिजेंस पूरी तरह ध्‍वस्‍त हो जाता है। इतना ही नहीं, इस हालत से पुलिस अफसरों में भ्रष्‍टाचार, मनमानी और अराजकता का भाव भड़क जाता है।
आपको बता दें कि तीन जून की सवा दो बजे दोपहर भड़का था। लेकिन दंगा की तनिक भी भनक न तो स्‍थानीय पुलिस को पता चल पायी थी और न ही कानपुर का इंटेलीजेंस नींद से जाग पाया था। घंटों तक दंगाइयों की भीड़ मुख्‍य मार्गों पर आतंक मचाये थी। बड़े अफसर मौके पर तो आ ही गये थे, लेकिन शुरुआत में तो सारे के सारे हवाक थे। किसी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्‍या किया जाए। स्‍थानीय पुलिसवालों को भी दिक्‍कत थी कि वे आला अफसरों के आदेशों का पालन करें, या अपनी समझ से दंगा को थामने की कोशिश करें। वह तो गनीमत थी कि जल्‍दी ही मामला प्रशासन ने निपटा लिया और करीब आधी रात तक पूरा मामला काबू में हो गया।
लेकिन अमर उजाला ने इस मामले की खबर लिखने के बजाय पुलिस विभाग के आला अफसरों की शह पर यूपी में पुलिस आयुक्‍त प्रणाली की वाहवाही कर तोता की तरह टांय-टांय करना शुरू कर दिया। खबर के बजाय, केवल पुलिसवालों की स्‍पॉ-इष्‍टैल में जोरदार तेल-मालिश करते रहे। लेकिन इस खबर में कानपुर की खबर के बजाय, इसमें पुलिस आयुक्‍त प्रणाली की श्रेष्‍ठता की डींग का बखान खूब छौंका अमर उजाला ने। शर्मनाक तरीका तो अमर उजाला से सीखना चाहिए। अमर उजाला ने इस खबर में लिखा है कि डेढ़ घंटे में मामला निपट गया, जबकि सब हेडिंग में वह वक्‍त दो घंटे का दर्ज कर लिया है। बताते हैं कि यह खबर लिखी अमर उजाला के जवांमर्द क्राइम रिपोर्टर यासिर रजा ने, जिनको अमर उजाला में क्राइम फील्‍ड का धुरंधर बल्‍लेबाज का ताज थमाया जाता है, लेकिन इसकी रजा को कुबूल किया अखबार के संपादक राजीव सिंह ने।
अपनी इस सम्‍पूर्ण मूर्खतापूर्ण खबर में अमर उजाला में छपा कि चंद मिनटों में ही मुख्‍य सड़कों से दंगाइयों को खदेड़ दिया, जबकि अगर वरिष्‍ठ पुलिस अधीक्षक होता तो वरिष्‍ठ अधिकारियों को मौके पर पहुंचने में समय लगना तय था और ऐसी हालात बेकाबू हो सकते थे। खबर में लिखा गया कि अधिकारियों के बीच समन्‍वय को लेकर कई बार दिक्‍कतें होती हैं, जबकि कमिश्‍नरेट में मातहत को सीधे निर्देश दिये जाते हैं। पुलिस आयुक्‍त प्रणाली लागू होने के बाद कानून-व्‍यवस्‍था से जिला प्रशासन का दखल खत्‍म हो जाता है।
गजब बेवकूफी की बात है। मतलब तो यही है कि अमर उजाला कहना चाहता है कि जहां आयुक्‍त प्रणाली नहीं है, वहां का प्रशासन दो-कौड़ी का है। और इसके पहले डीएम के नेतृत्‍व में काम होता था, वे दरअसल परले दर्जे के मूर्ख, नाकारा और निकृष्‍ट अफसर हुआ करते थे। अपनी इस बकवास जैसे अभियान में अमर उजाला यह पैरवी करना चाहता है कि जहां भी आयुक्‍त प्रणाली नहीं है, वहां के नाकारा प्रशासन को बदल कर वहां तत्‍काल पुलिस आयुक्‍त प्रणाली लागू कर दी जाए। कहने की जरूरत नहीं कि अमर उजाला का यह अभियान साबित करता है कि यह खबर अमर उजाला ने पुलिस के बड़े आला अफसरों के इशारे पर और खुश करने के लिए लिखी है, ताकि वे अफसर यूपी में पुलिस आयुक्‍त प्रणाली को जस्टिफाई कर सकें।
हैरत की बात तो यह है कि इस खबर में अमर उजाला ने प्रदेश के एडीजी ( लॉ-ऑर्डर) प्रशांत कुमार का वर्जन भी दर्ज किया है। लेकिन इस वर्जन में प्रशांत कुमार ने कानपुर की घटना पर चर्चा करने के बजाय पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम की वाहवाही की है। प्रशांत कुमार कहते हैं कि:- पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम का सबसे बड़ा फायदा कानपुर में देखने को मिला। वहां अगर कमिश्‍नर के वरिष्‍ठ अधिकारी तत्‍काल मौके पर न पहुंचे होते तो स्थिति को नियंत्रित करने में समय लगता।
लेकिन इस सवाल का जवाब न एडीजी-एलओ प्रशांत कुमार ने दिया और न ही इस बारे में पूछने की साहस तक नहीं उठा पाया अमरउजाला का वह तीसमारखां क्राइम रिपोर्टर, कि आखिर आपदाकाल में अफसर अगर मौके पर नहीं पहुंचेंगे तो क्‍या किसी की शादी में जुटेंगे ?
हैरत की बात है कि यूपी के एडीजी-एलओ प्रशांत कुमार के इस बयान का अर्थ तो साफ-साफ है कि जहां भी पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम नहीं है, वहां किसी भी आपदा को नियंत्रित करने में बहुत समय लगता है। इसमें इशारा भी तो है कि बाकी जिलों में कानून-व्‍यवस्‍था बकवास है, निदान अगर कहीं है तो वह केवल पुलिस कमिश्‍नरेट सिस्‍टम में ही है।
इस अखबार के संपादक और रिपोर्टर को इतनी भी शऊर नहीं है कि हेडिंग कैसी लगायी जाती है। दरअसल, कोई भी हेडिंग उस खबर का जिस्‍ट होती है। इसके बावजूद यह बकवास लिख मारी अमर उजाला ने। अरे कमिश्‍नरेट के अफसरों का काम ही होता है कि जरूरत पर फौरन पहुंचना। न पहुंचे तो उनकी वर्दियां ने उतार दी जातीं, यह समझ में ही नहीं आया इस अखबार को। या फिर अमर उजाला यह कहना चाहता होगा कि यह घटना अपवाद है, और बाकी मामलों में पुलिस कमिश्‍नरेट के लोग मौके पर पहुंचते भी नहीं हैं।

और अमर उजाला को यह जानकर निहायत दुख होगा कि यूपी में श्रेष्‍ठ पुलिसिंग करने वाले दस जिलों में एक भी जिला पुलिस कमिश्‍नरेट प्रणाली से नहीं संचालित होता है।

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