“अरे सुनो ! ये जस्टिस अब इस वकील के अंडर रहेंगे”

बिटिया खबर


: इलाहाबाद हाईकोर्ट के मौजूदा न्‍यायाधीश की ड्यूटी मुख्य स्थायी अधिवक्ता के अधीन लगायी : उप्र कानून विभाग की लापरवाही, शासकीय आदेश को माखौल बना डाला : इस शासकीय आदेश ने उप्र सचिवालय में कामकाज की हालत को बेपर्दा कर दिया :
कुमार सौवीर
प्रयागराज : “अरे सुनो जस्टिस जी ! ऐसा करो कि तुम अब अपर मुख्‍य स्‍थाई अधिवक्‍ता की सीट पर बैठो। हां, हां, इधर बैठो। और क्‍या, अब यही सीट है तुम्‍हारी। यह शासन का हुकुम है, इसका पालन करना ही होगा। इतना ही नहीं, अब से तुमको नियम से स्‍थाई शासकीय अधिवक्‍ता के अण्‍डर में काम करना पड़ेगा। कौन काम ? कमाल है यार। अरे वही काम जो स्‍थाई शासकीय अधिवक्‍ता कहेंगे, और क्‍या ? उनके हुकुम का पालन करना होगा। कामधाम करना है, तो यह सब करना ही होगा। गौरमिंट का आदेश है, पालन करना जरूरी है। और इसी वक्‍त से उसका पालन करना होगा।”
जी हां, ताजा खबर यह है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रदेश सरकार ने जोरदार पैरवी के लिए अपर महाधिवक्ता के बीच विभागों का बंटवारा कर दिया है। और मुख्य स्थायी अधिवक्ता के सहयोग के लिए अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ताओं को लगा दिया गया है। पिछले एक साल से इसकी कवायद चल रही थी। जोड़तोड़, तोड़फोड़ और जुगाड़ जैसे जितने भी कर्रा-कर्रा तरीके हो सकते हैं, आजमाये जा रहे थे।
और आखिरकार यह लिस्‍ट अब फाइनल हो गयी, और उसको लेकर शासनादेश भी जारी कर दिया गया। यूपी सचिवालय में न्‍याय विभाग के विशेष सचिव राकेश कुमार शुक्‍ला के दस्‍तखत से यह आदेश जारी हुआ है। लेकिन यह आदेश है बड़ा मस्‍त। ऐतिहासिक और हंगामाखेज भी। प्रदेश के विधि एवं न्याय विभाग ने अधिसूचना जारी की है,जिसमे एक न्यायमूर्ति जस्टिस गौतम चौधरी को अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता के रूप मे मुख्य स्थायी अधिवक्ता से संबद्ध कर दिया। न्यायमूर्ति गौतम चौधरी पहले अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता थे। लेकिन पिछली साल दिसम्‍बर में उन्‍हें लखनऊ हाईकोर्ट में न्‍यायमूर्ति बना दिया गया और वे शपथ ग्रहण कर बाकायदा जज बन गये। लेकिन उप्र शासन का न्‍याय विभाग जस्टिस गौतम चौधरी को जज मानने को तैयार ही नहीं है। इतना ही नहीं, शासन ने तो उनको एक स्‍थाई शासकीय अधिवक्‍ता के अधीन ही ड्यूटी थमा दी।
वर्षो पहले एक वकील ने अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता पद से त्यागपत्र दे दिया था, एक हट गये थे। अब अपर शासकीय अधिवक्ता प्रथम है, पद पर न होने के बावजूद इनको भी संबद्ध किया गया है। बाद मे शासन ने गलती सुधार ली है। इन वकीलों का नाम है पीके सिंहल और पंकज श्रीवास्‍तव।
न्याय विभाग की कार्य पद्धति को लेकर किरकिरी हो रही है। सिविल मामलों में अपर महाधिवक्ता को विभाग बाटे गये हैं। वे आवंटित विभागों के मुकदमों में ही बहस कर सकेंगे। अभी तक किसी भी विभाग की तरफ से बहस कर सकते थे। हालांकि महाधिवक्ता को जरूरत के हिसाब से किसी को कोई जिम्मेदारी सौपने का अधिकार दिया गया है।
इससे पहले भी न्याय विभाग की लापरवाही उजागर हो चुकी है। सैकडों अनुभव योग्यता न रखने वाले वकीलों को राज्य विधि अधिकारी नियुक्त कर दिया गया बाद में या तो हटा दिया गया या फिर उनको ज्वाइन ही नहीं कराया गया। अभी हाल में दो अनुभव योग्यता न रखने वाले वकीलों को राज्य विधि अधिकारी नियुक्त किया गया, और शासन ने बिना नियमावली संशोधित किये मनमाने तौर पर अनुभव योग्यता की छूट देते हुए ज्वाइन कराने का आदेश जारी किया गया। यह पहली बार हुआ जब अयोग्य की नियुक्ति कर योग्यता मानक में ढील दी गयी।
अब अपर महाधिवक्ता को विभागों तक सीमित कर एक अच्छा प्रयोग किया गया है। किन्तु वकीलों की संबद्धता करने में घोर लापरवाही एक बार फिर उजागर हुई है। इससे शासन की कार्य प्रणाली पर सवाल उठ रहे हैं।

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