…लेकिन चितरंजन सिंह ऐसे बुद्धिजीवी नहीं थे

बिटिया खबर


: बुद्धिजीवियों की जीवन-शैली और व्‍यवहारगत-रणनीति हमेशा बुद्धिजीवी बनाम श्रमजीवी ही रहती है : संपादक का लहजा निष्क्रिय समलैंगिक की आह्वान-शैली में कि आमंत्रण न स्‍वीकार करोगे, तो जाओ हम तुम्‍हारा आर्टिकल न छापेंगे :
कुमार सौवीर
लखनऊ : पीयूसीएल के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष रहे चितरंजन सिंह उन लोगों में रहे हैं, जो श्रमिक जगत से भी उतना ही जुड़े रहे हैं, जितना बुद्धिजीवियों के साथ। लेकिन अगर उनमें कमी अथवा बेसी की बात की जाए, तो उनका पलड़ा हमेशा श्रमजीवियों के पक्ष में ही रहा है। पाखंड से कोसों दूर, और सहज, सरल और निष्‍पाप। चितरंजन सिंह आज भले ही आज इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए टाटा-टाटा बाय-बाय कर गये हों, लेकिन मुझे लगता है कि इसके बहाने हमें उस विमर्श को और आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए, जिसमें बुद्धिजीवी बातें तो श्रमजीवी समाज के पक्ष में खड़ा होता है, लेकिन वस्‍तुत: उसकी जीवन-शैली और व्‍यवहारगत-रणनीति हमेशा बुद्धिजीवी बनाम श्रमजीवी ही बनी रहती है।
बुद्धिजीवियों में सिर्फ गुण ही होते हों, ऐसा कोई भ्रम मुझे कभी नहीं रहा। बल्कि मैं सामान्‍य तौर पर बुद्धिजीवियों के मुकाबले मजदूर-श्रमजीवियों को सबसे ऊंचे पायदान पर देखता और मानता हूं। बुद्धिजीवियों में बुद्धि होती है, तर्कशीलता होती है, संघर्ष के दस्‍तावेज, साहित्‍य, कविता और नारे गढ़ने में उनका कोई सानी नहीं होता है। जबकि मजदूर हमेशा अपने काम तक ही सीमित रहता है। लेकिन उसकी प्रवृत्तियों में एक खास बात जरूर होती है कि वे अपने साथियों सह-कर्मियों के प्रति बेहद लगाव रखता है और हमदर्दी के स्‍तर तक जुड़ा ही रहता है। हमेशा-हमेशा। इसके बावजूद कि वह खुद ही कठिन आर्थिक संकटों में रहता है, लेकिन अपने साथियों के प्रति समर्पण में उसके सारे ही नहीं, लेकिन अधिकांश स्‍वार्थ तिरोहित होते रहते हैं। सन-80 से लेकर आज तक मैंने खुद मजदूर आंदोलनों में भागीदारी की है, और बाद में भी श्रमिक-जगत की खबरों पर खास तौर पर लिखता-संजोता रहा हूं। ऐसे अनुभवों के आधार पर मैं साफ तौर पर दावा कर सकता हूं कि श्रमिक समुदाय के लोग हमेशा सरल ही बना रहते हैं। वे पसीने के मूल्‍य को समझते हैं। भले ही वह पसीना उनका हो, या फिर किसी दूसरे का।
लेकिन निजी तौर पर मैंने बहुत करीब से यह महसूस किया है कि बुद्धिजीवियों में एक अजीब सा घमण्‍ड, अहंकार, अहमन्‍यता और खुद को श्रेष्‍ठ मानने या दिखाने की ख्‍वाहिशें निहायत बदतमीजी के स्‍तर तक हिलोरें लिया करती हैं। मेरी यह अनुभूति सभी बुद्धिजीवी समुदाय के प्रति नहीं है, लेकिन अधिकांश बुद्धिजीवी लोग इसी तरह का व्‍यवहार करते हैं। और तब तक सबसे ज्‍यादा क्रूर और बेहूदा हो जाते हैं, जब उन्‍हें हल्‍का सा भी अधिकार मिल जाए। आप किसी भी तनिक भी साम्‍यवादी सोच रखने वाले बुद्धिजीवी से बात कीजिए, वह कभी भी आपके पसीने पर चर्चा नहीं करेगा। बल्कि यह प्रदर्शन करने की लगातार कोशिश करता रहेगा कि उसे कहां, कितना सम्‍मान मिला, किन लोगों ने उसका माल्‍यार्पण किया और उस समारोह में कौन-कौन महान शख्सियतें थीं, जिनसे उसने हाथ मिलाया।
ऐसे बुद्धिजीवी समुदाय में सबसे क्रूर और अभद्र प्राणी होता है कवि, साहित्‍यकार और पत्रकार। वह कब किस किसी दूसरे को अचानक अपमानित कर दे, उसे खुद ही अहसास नहीं होता। और अगर ऐसा बुद्धिजीवी खुदा-न-ख्‍वास्‍ता संपादक की कुर्सी का जुगाड़ कर लेता है, तो फिर समझिये कि उसके व्‍यक्तित्‍व का ही दाह-संस्‍कार हो जाता है। एक अजीब सा स्‍त्रैण-गुण विकसित कर लेता है बुद्धिजीवी, कि अगर उसके व्‍यवहार का वीडियो बना कर उसे ही दिखा दिया जाए तो शर्तिया वह शर्म से चुल्‍लू भर पानी में डूब मरेगा। अजीब ढंग से अपने हाथों को घुमाना, नचाना। उंगलियों को इशारे के स्‍तर तक घुमाना। सिर को जुम्बिश देना, जैसे कोई निष्क्रिय समलैंगिक किसी सक्रिय व्‍यक्ति का आह्वान कर रहा हो, लेकिन कुछ इस शैली में कि मानो अगर वह ऐसा आमंत्रण नहीं स्‍वीकार करेगा, तो जाओ हम तुम्‍हारा आर्टिकल नहीं छापेंगे।
श्रमिक ऐसा नहीं करता। अगर किसी ठेलिया या रिक्‍शे वाले को संकट में देखेगा, तो अपना कामधाम छोड़ कर उसकी दिक्‍कतों को निपटाने में जुट जाएगा। अपने साथ चना-चबेना बांटने में उसे हर्ष की अनुभूति होगी। लेकिन बुद्धिजीवी महंगी शराब, लजीज भोजन और मूर्खतापूर्ण बहस में ही अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता रहता है। काकोलूक। अगर सम्‍पादक बन गया तो खुद को खुदा ही मानना लगेगा। चाहेगा कि सब उसकी चमचागिरी करें। सामने वाले को मूर्ख समझना और उसे अपमानित कर देना तो ऐसे लोगों का शगल होता है। दूसरा अगर उसकी मदद कर रहा हो, तो वे समझेंगे कि वे चूंकि महान हैं, इसलिए लोग उसकी सेवा में अपना जीवन अर्पित कर रहे हैं।
खैर, उन अहमक-मूर्खों की क्‍या बात की जाए।
मैं तो इतनी देर रात तक इसलिए जाग रहा हूं, क्‍योंकि आंखें रह-रह कर डबडबाती जा रही हैं। वजह कि चितरंजन सिंह को भूल पाना असम्‍भव लग रहा है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *