कर्तव्यनिष्ठा नहीं, सफाई देती है यूपी की नौकरशाही

मेरा कोना

: मुख्यसचिव गर्व से ऐलान बोले:- नेफेड मामले में मैं दोषमुक्त‍ हूं : अजब-गजब है उत्तम प्रदेश की नौकरशाही और उसके कारिंदे : लो देख लो, बड़े बाबुओं की करतूतें- दो :

कुमार सौवीर

लखनऊ : उत्तम प्रदेश का मतलब समझते हैं आप? उत्तम प्रदेश का मतलब होता है जहां कर्तव्यनिष्ठा, जनता के प्रति समर्पण, विकास-कार्यों में चुस्ती, जन-शिकायतों का समाधान और सरकार की नीतियों का अक्षरश: पालन होने के दावे हों। लेकिन यूपी में ऐसा है नहीं। यहां के बड़े बाबू यानी आईएएस नौकरशाहों की संततियां काम के बजाय ढिंढोरा मचाने में महारत हासिल कर चुकी है।

चाहे यह किसी दूरस्थ जिले का मामला हो या फिर किसी मंडल के जिम्मेदार आयुक्त अथवा किसी विभागाध्यक्ष का। हर जगह केवल सफाई का ही मामला चल रहा है। हांडी पर पकते चावल किसी भी एक दाने को उंगलियों में परखना ही चाहते हों तो सीधे मुख्य सचिव आलोक रंजन का मामला देख लीजिए। आलोक रंजन ने आज के अखबारों में अपना सफाई दी है कि: ” नेफेड मामले से मैं दोषमुक्त हो चुका हूं। ” और गजब बात यह रही कि आलोक रंजन की इस सफाई को केवल दैनिक जागरण ने ही छापा, बाकी अखबार आज खामोश ही

आप आलोक रंजन की ही बात क्यों कर रहे हैं? बाकी आला अफसरों की हालत आलोक रंजन से बेहतर नहीं है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्‍थ्‍य मिशन वाले विभाग को सम्भालने वाले प्रदीप शुक्ला को देख लीजिए। प्रदीप शुक्ला प्रमुख सचिव पद पर थे, जब बाबू सिंह कुशवाहा के साथ एनआरएचएम के साथ उनका नाम जुड़ा। अरबों रूपयों के घोटालों में। लेकिन प्रदीप शुक्ला को अपनी जमानत देनी पड़ी तो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गये और आर्तनाद किया:- ” मैं गरीब कर्मचारी पचास लाख रूपयों की जमानत का इंतजाम कैसे कर पाऊंगा? ” ऐसी ही गिड़गिड़ाहट अखंडप्रताप सिंह और नीरा यादव भी कर चुके हैं।

हैरत की बात है न? नौकरशाही की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठे शख्स का यह बयान क्या आपको आश्चर्यजनक नहीं लगता है। जब मुख्यसचिव जैसे आला अफसर अपनी सफाई देता घूम रहा हो, तो बाकी नौकरशाहों और उनके छिटभइया बाबुओं-अफसरों की क्या हालत होगी। हकीकत यह है कि यूपी की नौकरशाही इतनी बेलगाम हो चुकी है कि प्रदेश का अधिकांश प्रशासनिक ढांचा उसके नीचे चरमरा रहा है। आईएएस से अलग बाकी राष्ट्रीय सेवाएं, मसलन, पुलिस और वन विभाग के अनेक अफसरों की हालत केवल पालतू या फिर बेकाबू अफसर-कर्मचारी से बदतर है। बाकी विभाग के लोग तो आईएएस के जन्मजात नौकर की भूमिका में आ चुके हैं। हालत यह है कि प्रशासनिक मजबूती के बजाय, जिलों में जिलाधिकारीगण साजिशों का ताना-बाना बुनते हैं। उठापटक की राजनीति और स्थासनीय नेताओं की उंगलियों पर नाचना उनका खास शगल बन चुका है।

सचिवालय में तो काफी गनीमत है, क्योंकि वहां उनकी पोल खुलने की सम्भावनाएं कम रहती हैं। वजह यह कि वहां सचिवालय संवर्ग के कर्मचारियों और अधिकारियों का खासा दबाव रहता है। लेकिन कई जिलों में नवजात-सद्यस्तनपायी किस्म के आईएएस अफसर खुलेआम अराजकता फैलाते रहते हैं। उनके लिए नियम-कानून-कायदा सब फिजूल होता जा रहा है। किसी को भी सरेआम बेइज्जत कर देना, ऐसे अफसरों के नियमित खेल का अहम हिस्सा बनता जा रहा है।

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लो देख लो, बड़े बाबुओं की करतूतें

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