आप जिसे धुआं समझ रहे हैं, वहां दहक रहे हैं नफरत के शोले
कश्मीरी हिन्दू-मुसलमान में करीबी की असल वजह समझिये
कुमार सौवीर
लेह : लेह का जेएंडकेआरटीसी यानी सरकारी बस-अड्डा। सुनसान पड़ा है। करीब आधा दर्जन बसें मौजूद हैं, लेकिन सन्नाटा है। हां, आसपास ही नहीं, चारों ओर दर्जनों निजी बसों-कारों-टैक्सियों की मारामारी जरूर है। दो दिनों तक ब्लड-प्रेशर के चलते अस्पताल में भर्ती रहा हूं। रक्तचाप का आंकड़ा 128-194 तक पहुंचता रहा। लेकिन आज सेहत-हालत हल्का-फुल्का मतलब कुछ ठीक-ठाक ही है। सो, अस्पताल से एक सस्ता-मद्दा होटल हासिल किया है। क्या करता, होटल भी तो मंहगा शौक होता है ना। है कि नहीं ?
खैर, अकेलेपन बेहिसाब है। सांस और धड़कन बहुत परेशान कर रही है। अवसाद का पारा भी ज्यादा ही परेशान करता रहा है इन बीच। थोड़ा वक्त मिला तो सोचा कि थोड़ा सोच ही लिया जाए। कम से कम चाय की दूकान तक के बीच का सोच-बिचार करा लिया जाए।
सच बात है कि तीखी धूप बेहाल और झुलसा देती है, लेकिन क्या किया जाए, यह भी तो समझ में नहीं आ पाता है। सूरज की किरणें सुई की तरह खोपड़ी समेत पूरे बदन पर धंसती जा रही हैं।
बस अड़डे की बुकिंग आफिस की सटी एक चाय दुकान में घुस गया। तिब्बती की दूकान है। दो सक्रिय युवतियां कर्मचारी हैं और सात आलसी-टाइप प्रबंधकर्मी, जिनका काम केवल या तो उँघना। आने-जाने वाले लोग काउंटर पर रखे छोटे से माने-नुमा खिलौने को तेजी से हिलाते-घुमाते रखते थे। मजाक सा लगता है या पूरा माहौल। उससे भी ज्यादा मजाक है दो-कौड़ी की चाय। कीमत 15 रूपये।
काउंटर पर बैठे शख्स ने अचानक एक आगन्तुक का स्वागत किया:- सलाम।
मैं चौंका। यह सलाम क्यों। आगन्तुक शायद ज्यादा बातूनी था, मेरी ही तरह। लड़ी भिड़ गयी।
आने वाले से बतियाने में जुट गया मैंं। बातचीत में उसने पूछा: -अच्छा तो आप यूपी के हैं। वैसे यह यूपी कहां है। ओह्हो। अच्छा दिल्ली के पास।
बातचीत में पता चला कि यह शख्स गुलाम मोहम्मद जेएंडके रोडवेज के एक अधिकारी दिलीप राजदान का ड्राइवर है। दिलीप की कार निजी है। दिलीप तो अपने व्यवसाय के चलते दिल्ली, मुम्बई, चंडीगढ़, मद्रास और कलकत्ता तथा देश-दुनिया के बड़े शहरों पर घूमते रहते हैं, लेकिन उनका सरकारी कामधाम गुलाम ही करता है। और सरकारी काम कराने के लिए दिलीप ने उसे गाड़ी सौंप रखी है, जिसमें वह रोज-ब-रोज श्रीनगर-लेह के बीच यात्रियों को ले जाता है। किराया गुलाम की टेंट में जाता है। लब्बोलुआब यह कि श्रीनगर में हिन्दू-मुसलमान के बीच बची मोहब्बत और करीबी के रिश्ते का कारण यह कच्चा धागा ही है।
मैं:- कश्मीर क्या हाल है ?
गुलाम:- बहुत खराब हालत है साहब, बहुत खराब।
मैं:- क्यों ?
गुलाम:- फौज ने यहां का सारा माहौल खराब कर दिया है। अब यह कभी भी नहीं सम्भल पायेगा। चाहे कुछ भी हो जाए।
मैं:- क्यों, क्या हो गया ?
गुलाम:- अजी, फौज ने हम लोगों को कितना बेइज्जत किया है, हमारे घर को तबाह कर दिया और हमारी मां, बहन, बेटी को बेइज्जत किया। इस्लाम को बेइज्जत किया, कश्मीर को बेइज्जत किया, इंसानियत को बेइज्जत किया है।
मैं:- कैसे ?
गुलाम:- आतंकवादियों को खोजने के बहाने, और क्या।
मैं:- क्या अभी भी आतंकवादी हैं वहां ?
गुलाम:- अब तो कम ही हैं, लेकिन 20 साल पहले तो घर-घर तक घुस गये थे।
मैं:- कैसे, यह कैसे हुआ ?
गुलाम:- अरे जब कोई बंदूक लेकर घुस जाता तो हम लोग क्या करते
मैं:- लेकिन घर-घर में कैसे घुसपैठ हुई ?
गुलाम:- बस एक के बाद एक आते रहे, और क्या
मैं:- फिर क्या हुआ ?
गुलाम:- फिर क्या, फौज वालों ने उनको पकड़ने के नाम पर सारे जुल्म हम लोगों पर ढाने शुरू कर दिये। हमें तबाह कर दिया
मैं:- आतंकवादियों का खत्मा हुआ या नहीं ?
गुलाम:- हां, हुआ। लेकिन हम लोग तो तबाह हो गये
मैं:- लेकिन फौज ने तो आपको आतंकवादियों से बचाया भी तो है ?
गुलाम:- उससे क्या, हमें तबाह भी तो किया
मैं:- और आतंकवादियों ने ?
गुलाम:- उन्होंने भी हमें तबाह किया
मैं:- तो उनमें बेहतर कौन है, फौज या आतंकवादी ?
गुलाम:- ( चुप्पी )
मैं:- जब आतंकवादी आपके घरो में कहर ढा रहे थे, तो आपने विरोध क्यों नहीं किया
गुलाम:- आपके सामने बंदूक तानी जाए तो आप क्या करेंगे ?
मैं:- मतलब एक के बाद एक पूरे इलाके में बंदूकधारी आतंकवादी घुस जाएंगे, लेकिन आप उनका विरोध नहीं करेंगे ?
गुलाम:- हमारी कौन सुनता
मैं:- फौज ने सुनी तो थी आपकी बदहाली और गुहार। या नहीं ?
गुलाम:- लेकिन उनका तरीका तो ठीक नहीं था
मैं:- तो बेहतर कौन है, आतंकवादी या फौज ? फौज ने तो आपको बचाया ही है। है कि नहीं ?
गुलाम:- देखिये, हम फौज को माफ नहीं कर सकते।
मैं:- अच्छा यह बताइये कि आपने आतंकवादियों को पाल लिया, माना कि मजबूरी में ही पाला। लेकिन फौज तो आपको बचाने के लिए गयी थी। फिर गलत क्या हुआ ?
गुलाम:- बहुत गलत किया।
मैं:- क्या आतंकवादी आपके घर में घुस कर आपकी मां, बहन, बेटी के साथ अच्छा सुलूक करते थे ?
गुलाम:- नहीं, लेकिन आखिरकार वह लोग भी तो हमारे ही लोग हैं। माना कि भटके हुए हैं, लेकिन फौज को तो समझदारी दिखानी चाहिए थी।
मैं:- कैसे दिखाते समझदारी, क्या हाथ जोडकर घर के बाहर खड़े होकर कुंडी खटखटाते कि भाईजान हम आपको गिरफ्तार करना चाहते हैं। लिहाजा खुद को हमारे हवाले कर दीजिए ?
गुलाम:- अब आप हुज्जत पर आमादा होते जा रहे हैं।
मैं:- खैर, छोडि़ये, कश्मीरी हिन्दुस्तान में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान ?
गुलाम:- कहीं भी नहीं, हम आजाद कश्मीर चाहते हैं। जिसकी हुकूमत मुजफ्फराबाद से चलेगी।
मैं:- लेकिन मुजफ्फराबाद में तो पाकिस्तान की हुकूमत चलती है ?
गुलाम:- यह किसने कहा। पाकिस्तान तो हम लोगों की सिर्फ मदद ही कर रहा है।
मैं ज्यादा बात करना चाहता था, लेकिन गुलाम मोहम्मद ने बातचीत का सिलसिला खत्म करने के गर्ज से खड़े होकर ऐलान किया:- हम खुदमुख्तारी चाहते हैं। जम्मू से लेकर लदाख तक। बस।
दूकान में मौजूद लदाखी युवक भौंचक्के रह गये। लेकिन क्या कर सकते थे। लेह-लदाख में लदाखियों की आबादी ही कितनी है।
बीस साल पहले कश्मीर में हिन्दुओं की तादात 48 फीसदी थी, आज श्रीनगर में एक-डेढ दर्जन घरों को छोड़कर हिन्दुओं का कोई नामोनिशान तक नहीं है। हां, जम्मू में हिन्दू काफी हैं। शुरूआत से ही। लेकिन लेह में 20 साल पहले 20 साल पहले 18 फीसदी मुसलमान थे जो आज 36 फीसदी तक पहुंच गये हैं। यहां भी तनाव अब बहुत गम्भीर विस्फोटक हालत तक पहुंच रहा है।