शादियां स्वर्ग में, और नर्क में रहती है औरत

बिटिया खबर

समाज का पिता है सरकार, लेकिन पिता ही भेदभाव में जुटा

: इस बार तो सरकार की कर रही है खुरपेंच की कवायद : एक्ट को लचीला बनाने के नाम पर छीछालेदर किया गया खूब : विवाह के नाम पर हर मुमकिन दुराचार कर चुकी है सरकार :

नई दिल्ली : यानी फिर लफड़े में खड़ा किया जा रहा है कि हिन्दू मैरिज एक्ट। तो पहले इसी पर बातचीत कर ली जाए कि यह एक्ट, दरअसल है क्या? शादियों को कानूनी शर्त में बांधन के लिए हिंदू मैरेज एक्ट बना था. ये बात आजादी के 8 साल बाद 1955 की है. तब से लेकर इस एक्ट में कई तमाम संशोधन हुए- लेकिन इसे लेकर सरकार का ऐसा अंतर्विरोध शायद ही सामने आया. इस बार तो सरकार की कोशिश की आलोचना हर तरफ हो रही है.

विपक्ष तो विपक्ष सामाजिक संगठन भी सरकार की मंशा का विरोध कर रहे हैं. हमारी परंपरा में कहावत तो ये है कि शादियां स्वर्ग मे तय होती हैं. इसे निबाहने के लिए 7 फेरों के 7 वचन ही काफी हैं. लेकिन बदलते जमाने की ये सहजता कई पेचिदगियों से भर चुकी है. इन्हीं पेचिदगियों से बचने के लिए लिए संविधान में हिंदू मैरिज एक्ट का प्रवाधान किया गया था. शादियों को टूटने से बचाने और इसे कानूनी शर्तों में बांधने के लिए 1955 में हिंदु मैरिज एक्ट बनाया गया. मगर टूटते बिखरते रिश्तों का आलम आज ये है, कि कोर्ट को भी एक्ट को लचीला बनाना पड़ा.

अगर किसी भी शादी को बचाने की कोई गुंजाइश नहीं बची हो, रिश्ता तोड़ने पर पति-पत्नी दोनों सहमत हों, तो 6 महीने की ‘कूलिंग पीरियड’ से पहले भी तलाक दिया जा सकता है. देश की ऊंची अदालत ने ये फैसला तो एक निजी मामले में दिय़ा था. लेकिन ये फैसला इशारा करता है, रिश्तों की घुटन से मुक्ति पाने की छटपटाहट वक्त के साथ कितनी बढ़ती गई है. इसी के साथ हिंदू मैरिज एक्ट में संशोधनों भी किए जाते रहे हैं.

मसलन, मूल कानून में लड़कों के लिए शादी की उम्र 18 साल और लड़कियों की 15 साल थी, जिसे आगे चलकर 21 साल और 18 साल किया गया. पहले हिंदू रीति रिवाजों से हुई शादी को मान्य माना जाता था, आगे चलकर इसमें कानूनी पंजीकरण का प्रवाधान किया गया. तलाक की शर्तों में भी बदलाव किया जाता रहा. तलाक के बाद बीवियों को मुआवजे का ख्याल रखा गया. लेकिन अब तक किसी भी संशोधन को लेकर खास हो हल्ला नहीं हुआ. लेकिन इस बार प्रावधान कुछ और है और इसके बाद बनने वाले कानून को लेकर भी आशंकाएं भी बड़ी है.

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