ये पत्रकार “कमीने” हैं। इनको भारत-रत्न दे दो

दोलत्ती

: दलाल:पत्रकारों की मंडी में न जाने कैसे अवतरित हो गये यह बलिया के नेशनल गेम के खिलाडी : मकसद खबर छापना ही नहीं, जरूरी है फैसलाकुन मुकाम : विधवा को दबंगों से बचाने को खबर प्लांट :

कुमार सौवीर

शाहगंज : पडोसी दबंगों ने एक विधवा की जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया। तीन बेटियों की मां इस बेवा ने इस अत्याचार के खिलाफ पुलिस और प्रशासन से शिकायत की, लेकिन उसकी कोई सुनवाई ही नहीं हुई। इतना ही नहीं, पुलिस और प्रशासन के अफसर दबंगों के पक्ष में कार्रवाई करने लगी। लेकिन शाहगंज के पत्रकारों ने इस मामले में जिस तरह उस विधवा के पक्ष में वह अनोखी एकजुटता और रणनीति का प्रदर्शन किया, वह पत्रकारीय मूल्यों को लेकर अनैतिक होते हुए भी संवेदनशील और भावुक चरित्र का प्रमाण हो गया।
दरअसल, किसी भी पत्रकार का दायित्व है, सच को जस का तस रख देना। उसमें तोडफोड करना, या फिर घटनाओं को असलियत की डगर को बदल देना अथवा तथ्यों के चरित्र को बदल देना पत्रकारीय दायित्वों में अपराध माना जाता है। पत्रकार को पाठकों तक खबर पहुंचाने में किसी भी तरह की अतिरंजना या कम-ज्यादा बदलाव को अनुचित परम्परा माना जाता है।
लेकिन यह भी तो सच है कि पत्रकारिता में खबरची के नैतिक दायित्व तो पत्रकार को मशीन तक ही सीमित कर देते हैं। निजी तौर पर मैं साफ मानता हूं कि हमें खुद को ऐसी निर्जीव खबर-मशीन के तौर पर तब्दील करने के बजाय, हमें खुद को सजीव, सतर्क, संवेदनशील, भावुक, जनप्रतिबद्ध और फैसला की दिशा में एक जीवट इंसान के तौर पर बदलने के लिए तैयार होना पडेगा। यह प्रगति और विकास की बयार है, जिसकी सख्त जरूरत है। ऐसा न होने तक हम पत्रकारिता को एक अनावश्यक और व्यर्थ-अनर्थकारी समूह ही बने रहेंगे।
खास कर तब, जब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलावों में बदलते सामाजिक चेहरों में घिनौनापन अपने क्रूर स्वार्थी मूल्यों की नयी-नयी इमारतें रोज-ब-रोज बनाने में जुटे हों, जहां आम आदमी के हितों की क्रूर हत्याएं चल रही हों। ऐसी हालत में जब आम गरीब और अशक्त सरकार, प्रशासन और पुलिस को दुत्कार मिल रही हो, ऐसी हालत में अगर पत्रकार अपनी कलम को अस्त्र-शस्त्र को उस अशक्त व्यक्ति के पक्ष में एकजुट होकर खबरों को तोड-मरोड करने लगे, तो दोलत्ती डॉट कॉम की नजर में वह अपराध किसी महान श्रेष्ठतम प्रयास से कम नहीं होता है। किसी भी पत्रकार का मकसद सिर्फ कागज काला करके खबर छापना भर ही नहीं होता है। बल्कि एक पत्रकार के लिए यह नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वह अपनी खबर को फैसलाकुन मुकाम तक पहुंचाये। मकसद है सुधार, निदान और कष्टरहित बनाया जाए।
शाहगंज में इसी तरह की एक घटना हुई। पूर्वांचल की सबसे बडी अनाज मंडी है शाहगंज। आज जौनपुर में हूं। पांच दिन तक बलिया की पत्रकारिता में घुसे दलाल, अनैतिक और घोषित घटिया लोगों के खिलाफ धर्मयुद्ध करता रहा। आज लौटते वक्त शाहगंज के पत्रकारों ने मुझे जबरिया रोक लिया। हुक्म दिया कि कुमार सौवीर अब अगले दिन ही जौनपुर छोड पायेंगे। रविशंकर वर्मा, गुलाम साबिर और मोहम्मद एखलाख समेत करीब दर्जन भर पत्रकारों के साथ चर्चाएं शुरू हो गयीं। इसी बैठकी में बातें शुरू हुईं पत्रकारिता, पत्रकार आम आदमी के प्रति सजगता। खबर निकल कर आयी।
पता चला कि दबंग ने उस विधवा के मकान पर दीवार तोड कर कब्जा कर लिया था। पुलिस और अफसरों ने दबंगों के पक्ष में कदमताल शुरू कर दिया। दहाडें मार कर रो रही इस महिला के पक्ष में मोहल्ले वाले खडे हो गये। पडोसियों ने पत्रकारों से सम्पर्क किया। संवेदनशीलता का स्तर यह रहा कि सभी अखबारों के सभी पत्रकारों ने मौके पर मुआयना किया, दोनों ही पक्षों के तर्कों को सुना, और परखा। पता चला कि दबंग गुंडागदी कर रहा है और पुलिस और प्रशासन सिर्फ बेईमानी और अनैतिकता पर आमादा है।
पत्रकारों ने मामले पर खबर लिखी, लेकिन प्रशासन-पुलिस पर जूं तक नहीं रेंगी। यह देख कर पत्रकारों ने तय किया कि इस मामले को किसी बडी खबर के तौर पर प्लांट किया जाए, क्योंकि केवल सामान्य खबर छपने के बावजूद प्रशासन और खामोश ही रहेगा। ऐसी हालत में तय किया गया कि दबंगों और पुलिस-प्रशासन की करतूत से तंग महिला तीन दिन बाद विधानसभा के सामने आत्मदाह कर लेगी। लेकिन इस खबर छपने से ही पत्रकारों ने उस महिला को शाहगंज से कहीं दूर भिजवा दिया।
अगले दिन खबर छपी तो हंगामा खडा हो गया। जिला मुख्यालय, वाराणसी आयुक्त मुख्यालय और लखनउ तक हडकंप मच गया। आनन-फानन प्रशासन व पुलिस के अफसर महिला के घर पहुंचे। घर में महिला की बेटियां तो मौजूद थीं, लेकिन महिला लापता रही, तो प्रशासन बेहाल हो गया। हलकान प्रशासन और पुलिस बाकायदा हौदा हो गयी। दोपहर को प्रशासन ने तय किया कि चाहे कुछ भी हो, दबंग के कब्जे को हटा कर महिला के हिस्से वाले हिस्से पर दीवार बनवा ली जाए।

करीब दर्जन भर मजदूर और मिस्त्री लाये गये। ईंट, बालू, सीमेंट वगैरह का ढेर लग गया। और दिनरात में काम शुरू हो गया। डेढ दिन में ही दीवार बन कर तैयार हो गयी। उसके बाद एसडीएम के नेतत्व में भारी पुलिस फोर्स महिला के घर गये। विधवा की बेटियों के सामने गिडगिडाने लगे कि अपनी मां को बुला लो। पत्रकारों से भी बिलबिलाने लगे अफसर और पुलिसवाले, कि वे मौके पर आकर यह चेक करवा लें कि पूरा काम सही हुआ है।
तसल्ली हो जाने के बाद ही यह महिला अपने घर लौटी, और उसके साथ ही पत्रकारिता की सक्रियता और संवेदनशीलता भी स्थापित हो गयी। काश, बलिया जैसे जिलों में पत्रकारिता में घुसे ब्लैकमेलरों को वहां के पत्रकारों को अपनी बिरादरी से निकाल बाहर कर पाते, तो यकीन मानिये कि बलिया फिर से बागी-बलिया बन जाता।

1 thought on “ये पत्रकार “कमीने” हैं। इनको भारत-रत्न दे दो

  1. तुम जन/पत्रकार जागरूकता भ्रमण पर गए हो कि तोंद ब्यूटी कांटेस्ट में🙄😞 दोनों तोंदुलकर के मध्य बेचारा अज़हरुद्दीन 😝

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