धंधा बन चुकी पत्रकारिता में आखिर कैसे टिकें महिलाएं

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

जिलों की पत्रकारिता में महिलाओं का टोटा
गलाकाट धंधेबाजी ने महिलाओं को कोने में धकेला
नेपाल की पत्रकार के सवाल ने उजागर की हकीकत

एक कार्यक्रम में भारत-नेपाल के पत्रकारों को बुलाया गया था। उस कार्यक्रम में हम भी संयोगवश बिन बुलाये शामिल हो गये थे। इसी कार्यक्रम में नेपाल की एक प्रतिष्ठित पत्रकार और सौभाग्य से हमारी अच्छी मित्र श्रृजना आचार्य ने सभा में एक सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि बहराइच से कोई महिला पत्रकार क्यों नही दिखाई पड़ रही है। श्रृंजना ने आगे भी महिलाओं के उत्थान और उनके शोषण के बारे में कहा। परन्तु हमारा ध्यान उनकी इसी बात पर उलझकर रह गया। हमने सोचा या तो उन्हें भारत की पत्रकारिता में बहराइच का स्थान मालूम नही हैं, या नेपाल की पत्रकारिता में महिलाओं को कोई विशेष आरक्षण प्राप्त है।

परन्तु उनका प्रश्न तो अपनी जगह एकदम सही है। यहां जिलों की पत्रकारिता में महिलायें क्यों नही आती हैं। जिले की पत्रकारिता में मुफ्त में काम करने वालों की संख्या इतनी ज्यादा है, जबकि यहां आजीविका मिलने की संभावना बहुत कम है। लेकिन फिर भी किसी भी पत्रकार सम्मेंलन में पत्रकार कुकुरमुत्ते  की तरह दिख जाते हैं। तो यहां कोई क्यों काम करे। इसी के साथ ही पत्रकारिता मुख्यतः जिलों की पत्रकारिता को चरित्र के पैमाने पर भी सबसे खराब स्थान दिया जाता है। जिले की पत्रकारिता में ऐसे तत्वों की भरमार होती जा रही है, जो लखनऊ में बैठे मठाधीशों को कुछ दे-दिलाकर पत्रकार बन जाते हैं। बाद में अफसरों की चापलूसी और दलाली से यह भरपाई की जाती है। ऐसे में महिलायें जिलों में कैसे काम करें, जब काम करने का पैसा ना मिल रहा हो। साथ ही जहां खुले रूप से शोषण का बोल-बाला हो। जिले में अधिकतर लोग पत्रकारिता मात्र इसलिए करते हैं कि उन्हें पत्रकारिता के नाम पर अधिकारियों पर दबाव डालने का मौका मिले। साथ ही अधिकारियों खास तौर पर पुलिस के थानेदारों और अधिकारियों से गलत काम करवाया जा सके।
जिलों में पत्रकार खास तौर पर इलेक्ट्रानिक चैनलो के पत्रकार समाचार की समझ और विषय ज्ञान से मीलों दूर रहते हैं। उन्हे र्सिफ ऐसी खबरो की तलाश होती है, जिससे प्रशासन में उनका भय बना रहे। जिसके परिणामस्वरूप वह उनके अधीनस्थों से काम कराने के बहाने धन का दोहन कर सकें। जिससे उनकी रोजी रोटी चल सके साथ ही वह लोग इन कामों के लिए अपने चारित्रिक दोषों को भी दिखाना नही भूलते हैं। जनपद स्तर के पत्रकार खबर कम और विज्ञापनों पर अधिक ध्यान देते हैं। जिससे अखबार को कमाई हो और उनका पत्रकारिता का तमगा बचा रहे।
इससे भी बुरे हालात तो भारत-नेपाल सीमा पर पत्रकारिता का है। चूंकि इस सीमा पर कोई खास बंधन ना होने के कारण आवागमन आसान होता है। इसी के साथ दो देशों के कुछ ढांचागत अंतर के कारण तस्करी भी अपने उफान पर होती है। नेपाल के सीमावर्ती कस्बों में तो पत्रकारिता की बाढ़ रहती है अधिकतर तस्कर वर्ग के लोग पत्रकार बनकर सीमा पर तैनात एजेंसियों को समाचार के माध्यम से ब्लैक मेल करके अपना काम बनाते हैं। साथ यह लोग नेपाली लोगों को जो स्वभाववश सरल होते हैं उन्हें बड़ा पत्रकार बनकर मिलते हैं। और कई कारणों से उनका फायदा उठाते हैं।
इन तमाम खामियों के कारण कोई भी लडकी या महिला जिला पत्रकारिता में अपने को झोंककर बंधुआ मजदूरी नहीं करना चाहेंगी। इसके साथ यहां शोषण का दानव साथ छोडने को तैयार नहीं होता है। इसके साथ महिलायें बडे शहरों की पत्रकारिता में अच्छी तरह शामिल होती हैं। जहां नाम भी है और साथ ही साथ आजीविका का समुचित प्रबंध है। श्रृंजना के इस प्रश्न ने काफी कुछ खोलकर रख दिया जिसकी समझ और चुभन केवल एक भारतीय पत्रकार को हो सकती है। क्योंकि हालात से तो काबिले वही वाकिफ हैं। परन्तु फिर भी श्रृंजना का यह प्रश्न कुरेदने के लिए धन्यवाद।

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