: अदालत में मुकदमा, वकील, कानून, दलील और जज की श्रेष्ठता होगी, या फिर गुंडागर्दी, धक्कम-धुक्की, धमा-चौकड़ी, मारपीट का राज होगा : अब इतना तो बताइये कि न्याय आखिरकार है कहां : दारोगाओं ने एक फंड बनाया था, जिसमें 52 लाख रुपया जुटा कर एक बड़े नामचीन वकील को सौंपा, वह फंड कहां गया :
कुमार सौवीर
लखनऊ : विधायक-सांसद को कानून बनाने का अधिकार है, पत्रकार को कलम को आजादी के साथ चलाने का अधिकार है, वकील को विधि-सम्मत बहस करने का अधिकार होता है, ठीक उसी तरह किसी दारोगा के पास किसी हमलावर अपराधी को परास्त करने ही नहीं, बल्कि आत्मरक्षा के लिए रिवाल्वर दी जाती है। फिर 11 मार्च-2015 को इलाहाबाद के अदालत परिसर में अगर किसी दारोगा ने आत्मरक्षा के लिए रिवाल्वर का इस्तेमाल कर लिया, तो उस पर आजीवन कारावास की सजा अनौचित्य ही नहीं, बल्कि पुलिस का मनोबल तोड़ने की एक नयी शुरुआत भी है।
शैलेंद्र सिंह अब जिन्दगी भर जेल में चक्की ही पीसेगा। रायबरेली के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने शैलेंद्र पर यह आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर कर दी है। उस दारोगा पर इल्जाम साबित हो गया है कि इलाहाबाद की अदालत कोर्ट के बाहर शैलेंद्र सिंह ने एक वकील को अपनी सरकारी रिवाल्वर से गोली मार कर हत्या कर दी थी। घटना के मुताबिक प्रयागराज की कचहरी में दारोगा शैलेन्द्र सिंह एक मुकदमे में गवाही के मामले में आया था। दारोगा शैलेन्द्र सिंह की उस समय शंकरगंज थाने की नारी बारी चौकी में तैनाती थी। जुलाई 2014 में नबी अहमद ने राशिद सिद्दीकी नामक एक व्यक्ति के खिलाफ मारपीट का केस दर्ज कराया था। लेकिन बाद में उस मामले में शैलेंद्र ने फाइनल रिपोर्ट लगा कर राशिद को उस मामले से अलग कर दिया था।
सूत्रों के अनुसार 11 मार्च को इलाहाबाद कचेहरी में मोहम्मद शाहिद अपने बेटे और वकील नबी अहमद से मिलने आए थे। इसी दौरान उन्होंने देखा कि इसी प्रकरण को लेकर नबी अहमद और दारोगा शैलेंद्र आपस में तेज आवाज से बात कर रहा थे। अचानक दारोगा शैलेन्द्र और अधिवक्ता नबी अहमद के बीच धक्का-मुक्की शुरू हो गई। वहां लोगों ने बीच बचाव कर दोनों को अलग कर दिया था। थोड़ी देर बाद ही जिला कचहरी परिसर के बहुमंजिला न्याय भवन की सीढ़ी के पास सीजेएम कोर्ट के सामने अधिवक्ताओं के झुंड ने दरोगा शैलेन्द्र को घेर कर पीटना शुरू कर दिया था। उस घटना को लेकर जारी वीडियोज में वकीलों ने शैलेंद्र सिंह को बुरी तरह घेर रखा था और मारपीट की नौबत हो चुकी थी। इसी बीच शैलेन्द्र ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से फायर कर दिया जिससे अधिवक्ता नबी अहमद की मौत हो गई।
दारोगा शैलेन्द्र को पुलिस ने मौके से ही गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। जिला न्यायालय में दिनदहाड़े हुई इस वारदात के बाद कचहरी से लेकर हाईकोर्ट के बाहर तक वकीलों ने जमकर बवाल किया था। इसके विरोध में देशभर के अधिवक्ताओं ने न्यायिक कार्य का बहिष्कार किया। यहां तक की देश की सर्वोच्च न्यायालय में भी हड़ताल हुई थी। उधर पुलिस महकमे ने भी शैलेन्द्र को बर्खास्त कर दिया जबकि मामला अधिवक्ताओं से जुड़ा होने के चलते इस केस का ट्रायल रायबरेली सत्र न्यायालय में ट्रांसफर हो गया था। इतना ही नहीं, शैलेंद्र सिंह की पैरवी के लिए कोर्ट ने अधिवक्ता डीपी पाल को न्याय-मित्र की जिम्मेदारी सौंपी थी। अधिवक्ता सूबेदार सिंह व लालेंद्र श्रीवास्तव ने भी शैलेंद्र की पैरवी की थी।
और अब शैलेंद्र सिंह को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी है। लेकिन इसके साथ ही कई ज्वलंत सवाल तो भड़कने ही लगे हैं, जो लगातार अनसुलझे पड़े हैं। कई ऐसे आरोप भी इसी तरह धूल खाते हुए पड़े हैं, लेकिन वे सब के सब पूरी शिद्दत के साथ जवाब मांगते हैं। सवाल है कि :-
अदालत में मुकदमा, वकील, कानून, दलील और जज की श्रेष्ठता होगी, या फिर गुंडागर्दी, धक्कम-धुक्की, धमा-चौकड़ी, मारपीट का राज होगा ?
शैलेंद्र सिंह तो एक केस मामले में गवाही देने गया था, उस समय अदालत के बाहर इस तरह की हरकत का औचित्य क्या था ?
शैलेंद्र सिंह के मामले में कोई भी वकील उसका वकील बनने को तैयार नहीं था। एक घटना क्या देश भर में अदालतों में वकीलों की हड़ताल को जायज कर सकती है ? क्या बार संघों या बार कौंसिलों को यह अधिकार है कि वे अपने सदस्यों को समवेत तौर पर यह निर्देश जारी कर दिया करें कि वे अमुक अभियुक्त का वकील बनने से रोक दिये जाएंगे ? यह क्या न्याय-व्यवस्था है ?
इस कांड के बाद जिला कचहरी इलाहाबाद में वकीलों की दो माह तक हड़ताल चली थी। किसी भी वकील ने इस पर सवाल नहीं उठाया। इस कांड के विरोध में बार काउंसिल ऑफ इंडिया के आह्वान पर पूरे देश में एक दिन की अधिवक्ताओं की हड़ताल भी रही, जबकि सुप्रीम कोर्ट साफ कह चुकी है कि वकीलों को हड़ताल का अधिकार नहीं है क्योंकि उनके ऐसे कृत्य से आम वादी के हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। क्या यह न्याय प्रणाली बनायी है हमारे समाज और देश ने ?
दारोगा शैलेंद्र सिंह गिरफ्तारी के बाद से लगातार जेल में बंद है। हाईकोर्ट से भी उसकी जमानत अर्जी तीन बार खारिज हो चुकी है। पुलिस विभाग में दोलत्ती डॉट कॉम के विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि शैलेंद्र सिंह को जमानत और कानूनी लड़ाई के लिए पुलिस के दारोगा और इंस्पेक्टर संवर्ग के बहुतेरे कर्मचारियों ने एक फंड बनाया था, जिसमें 52 लाख रुपया जुटा कर एक बड़े नामचीन वकील को सौंपा गया। सवाल यह है कि इस रकम का इस्तेमाल क्या किया गया ? क्या बडे़-बड़े दिग्गज वकील भी उस दारोगा तक तनिक भी न्याय नहीं पहुंचा सके ?
क्या यह एक सहज, सामान्य और न्यायपूर्ण व्यवस्था है कि किसी अभियुक्त को जमानत से ही वंचित कर दिया जाए, खास तौर पर तब, जबकि कुख्यात माफिया मुख्तार अंसारी 49 बरस पुराने मामले में दशकों तक जमानत पर ही रहा ? वाराणसी का माफिया ब्रजेश सिंह को जमानत मिल चुकी है ? जौनपुर का बाहुबली धनंजय सिंह बाकायदा फरार होते हुए भी जौनपुर में अपनी पत्नी को जिला पंचायत अध्यक्ष बना गया और पुलिस कप्तान के घर के सामने वाले मैदान में बाकायदा क्रिकेट खेलता रहा ?
अब इतना तो बताइये कि न्याय आखिरकार है कहां ?