: हिजड़ों से साफ कहा कि पांच सौ से ज्यादा नहीं : लल्ला के मां-बाप से 11 हजार से कम नहीं लेंगे हम : हिजड़ा हैं हम, अपनी बेटी के जन्म का नेग लेने का घोर अपराध हम न करेंगे : हिजड़ों ने गुरू मान लिया कुमार सौवीर को :
कुमार सौवीर
लखनऊ : ( गतांक से आगे ) दो दिन बाद सुबह के वक्त अचानक घर के बाहर गीत के साथ ढोल-हारमोनियम के स्वर गूंजने लगे। दरवाजा खोला तो देखा कि करीब एक दर्जन हिजड़ों का झुण्ड मेरे दरवाजे को छेके खड़ा है। कोई ढोल बजा रहा था, कोई हारमोनियम, और दो-तीन हिजड़े नाच रहे थे। सब का सब अराजक और बेढंगा और बेसुरा सा ही था। जबकि बाकी हिजड़े जमीन पर कुछ इस तरह खुद में व्यस्त थे मानो उनको इससे कोई लेना-देना ही न हो। दरअसल, यह सब तो उनकी रणनीति का हिस्सा ही था, ताकि हम पर मनोवैज्ञानिक रूप से दबाव बना लिया जाए। कोई कह रहा था कि उसे सोने का हार चाहिए, किसी को चाभी वाली चांदी की मोटी कमरबंध चाहिए था। इस मोलभाव के बीच मुझे हिजड़ों के मुखिया ने ऐलानिया अंदाज में कहा कि:- हाय हाय। लल्ला की मां और बाप से तो हम 11 हजार से एक भी कम नहीं लेंगे। हाय हाय। सौ-सौ बरस जिये हमारा लल्ला। हाय हाय।
लेकिन इसके पहले कि मैं इस मोलभाव में शामिल होना ही शुरू होता, कालोनी से मेरे घर आयी एक महिला ने हंसते हुए कहा कि:- बेटा नहीं, लड़की पैदा हुई है, लड़की। और लड़की पर इतनी रकम कौन देता है?
ऐसा लगा कि किसी ने मेरी खुशियों के मकान में आग ही लगा डाली है। मैंने साफ कह दिया कि 11 हजार तो मेरी औकात में नहीं है, लेकिन पांच सौ रुपया तो जरूर दूंगा तुम लोगों को। लेकिन एक शर्त है।
शर्त? कैसी शर्त?
शर्त यह कि तुम लोगों के साथ मैं भी नाचूंगा।
इस प्रस्ताव पर अपना मुंह बाये हिजड़ों ने अपने मुखिया की ओर देखा। इशारे ही इशारे में। और कुछ ही क्षणों बाद ढोल, थाप, हारमोनियम के साथ ही साथ फिल्मी और बधाइयों वाले गीतों का सैलाब उमड़ने लगा। मैं भी अनगढ़ नर्तक की भूमिका निभाने में जुट गया। लेकिन प्राण-प्रण के साथ। पूरी कालोनी में हंगामा मच गया। यह ऐतिहासिक और अभूतपूर्व घटना थी कि किसी बेटी का बाप हिजड़ों के साथ कालोनी की सड़क पर पूरी मस्ती के साथ नाच रहा हो। घर के सामने कालोनी वालों की भीड़ जुट गयी। कालोनी की बॉलकानी में भी मुंड ही मुंड हिजड़ों के साथ मेरे नाच को साश्चर्य निहार रहे थे। मुझे यकीन है कि नव-धनाढ्य बनते जा रहे इस कालोनी के कई अफसरों ने मेरे इस नाच-गीत पर अपना मुंह बिचकाया जरूर होगा। आखिरकार यह उनके आभिजात्य-जनक परिचय का अनिवार्य प्रमाण भी तो था। ऐसे में वे लोग मेरे इस व्यवहार पर कैसे खुश हो सकते थे? उनका आनंद तो अपने जेब-बटुआ में अटे भरे निर्जीव नोटों को लुटा कर खुशियां खरीदने में था। है कि नहीं?
करीब पौन घंटों तक यही चलता रहा। मैं पसीने से तर-ब-तर। हांफ भी रहा था। मैं भावुकता में झूम रहा था, वे व्यावसायिक ठुमके लगा रहे थे। आखिरकार यह उल्लास में उछलकूद शांत हुई। सभी हिजड़े जहां-तहां बैठ गये। हमने सभी हिजड़ों को मिठाई खिलायी। तब तक चाय भी बन गयी। ना-नुकुर के बाद हिजड़ों ने चाय पी, और फिर उनका मुखिया ने मेरा शुक्रिया अदा करते हुए अपने साथियों को ऐलानिया कहा कि:- चलो, अब चलो।
मैंने पांच सौ एक रुपया मुखिया की ओर बढ़ाया, जैसा मेरा संकल्प था।
लेकिन यह तो कमाल हो गया। हिजड़ों के मुखिया ने वह रुपये लेने से इनकार कर दिया। अपनी पूरी विनयशीलता का प्रदर्शन करते हुए। मेरे सवाल पर उसका जवाब था कि उसकी जिन्दगी में यह पहला मौका है जब किसी बेटी के जन्म पर उसके बाप ने इस तरह मूसलाधार बारिश की मानिंद बाकायदा झूम कर नाचा है। मुखिया बोला कि आज मेरा जीवन सकारथ हो गया, सफल हो गया। चलो बहनों, चलो। अभी और भी जगह चलना है।
अब आग्रह करने का युद्ध मैंने छेड़ दिया। मैंने साफ कह दिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन हिजड़ों को उनका अपना यह हक लेना ही पड़ेगा। कुछ महिलाओं ने भी अपनी-अपनी सोच के हिसाब से यह भी जोड़ दिया कि कि नेग न देने से बच्चे के जिन्दगी में भारी अपशकुन होता है। ऐसी हालत में हिजड़ों का हिस्सा तो हिजड़ों को लेना ही पड़ेगा। कुछ ने तो मिन्नतें भी करनी शुरू कर दीं।
लेकिन मुखिया नहीं माने। उन्होंने तो यह भी कह दिया कि कुदरत ने उन्हें बच्चा पैदा करने की खुशी नहीं दी, तो क्या हुआ? यह बच्ची को हम अपनी ही बेटी मान लिये लेते हैं। अब क्या कोई ऐसी कोई मां या बाप होगा, जो अपनी ही बेटी की पैदाइश पर खुद ही नेग ले लेता हो। यह तो घोर अपराध होगा, और हम यह अपराध नहीं करेंगे।
दोनों ही ओर तर्कों-वितर्कों के असलहे तने थे, तरकश से तीर ताने जा रहे थे। काफी देर इसी में लग गयी। आखिरकार हिजड़ों के मुखिया ने इस हठधर्मिता पर सुखद विराम दे दिया। उसने नेग में से केवल एक रुपये कुबूल किया और फिर अपनी ओर से पचास रुपयों के साथ वह एक रुपया भी इस नवजात बच्ची पर न्यौछावर कर डाला। इसके बाद हिजड़ों की यह टोली नाचते-गाते-बजाते हुए विदा हो गयी। साथ में बेशकीमती आशीर्वाद हमारी बच्ची को लुटाते-सौंपते हुए।
उसके बाद जब भी हिजड़ों की यह टोली हमारी कालोनी या आसपास भी गुजरती थी, अनिवार्य रूप से हमारी बच्ची को देखने और उसको आशीष लुटाने आ जाती थी। चाय पीकर यह लोग लौटते थे और पूरी कालोनी इस नजारे को स्तब्ध होकर देखती रह जाया करती थी। छोटी बेटी के जन्म में भी वही जश्न मनाया इन हिजड़ों ने। हां, छुटकी को बड़की के हिसाब से दोगुना सौगात दी उन हिजड़ों के मुखिया ने। पूरा एक सौ रुपया। मेरा एक रुपया अतिरिक्त रूप से।
सन-2002 में यह टोली हमारे घर पर पहुंची। बच्चियों को बुलाया, दुलराया, और आशीष दिया। फिर जाने लगे, तो मैंने सवाल किया कि आज आपके साथ वह मुखिया नहीं दिख रहे हैं।
यह सवाल उन्हें किसी गहरे जख्म की तरह कुरेदने लगा। हिजड़ों की आंखें नम हो गयीं। दो-तीन तो हिचकियां भरने लगे। सुबकते हुए एक हिजड़े ने बताया कि:- कई महीना पहले मुखिया की मौत हो गयी है। हम अनाथ हो गये। हमारा भगवान हमसे रूठ गया।
यकीनन। उसके बाद से ही इन हिजड़ों की टोली हमारे घर कभी भी नहीं आयी।
हिजड़ों की जिन्दगी खासी दिलचस्प होती है। इस मसले पर कुमार सौवीर की रिपोर्ट्स को अगर पढ़ना चाहें, तो कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-
“उनसे सावधान, जहां ब्रह्मचारी पुरूष तय करें कि क्या होता है अच्छा सहवास”
फखरे का नाम सुनते ही हिजड़ा फफक कर रो पड़ा
काश ! दुनिया में फखरे जैसे हिजड़ों की सरकार बने