: सरकार ने पल्लू झाड़ा, बोले हम एडवाइजरी जारी कर चुके कि पत्रकार अपना ध्यान खुद रखें : चाहे हैजा कांड हो या अयोध्या मैं तो कभी नहीं पिटा : न पत्रकारिता का ककहरा पता है, न तमीज :
कुमार सौवीर
लखनऊ : 31 बरस पहले लखनऊ में हैजा का प्रकोप हुआ था। अलीगंज से लेकर डंडहिया और आसपास के पूरे इलाके में मौतें हो रही थीं। तड़ातड़। मैं पूरे नौ दिनों तक उस हादसे की रिपोर्टिंग करता रहा, लेकिन अपनी सीमा में रह कर और खुद को सुरक्षित रख कर। सन-09 में चित्रकूट में एक दुर्दान्त डाकू घनश्याम मल्लाह को पुलिस ने घेर लिया था। हजारों की तादात में पुलिसवाले निशाने लगा रहे थे। घनश्याम भी फायरिंग कर रहा था। उसमें एक इंस्पेक्टर समेत तीन पुलिसवालों की मौत हुई थी, जबकि एक आईजी और एक डीआईजी के पेट में गोली लगी थी। करीब 53 घंटों तक यह मुठभेड़ चलती रही। और हम लोग मुस्तैद रहे। वहां शलभमणि त्रिपाठी समेत और भी पत्रकार मौजूद थे, लेकिन किसी भी पत्रकार को खरोंच तक नहीं आयी। जीवन में ऐसे दर्जनों मौके आये, जब मुझ पर नुकसान हो सकता था, लेकिन हमारी सतर्कता हमारे साथ रही।
मुझे याद है सन- 90 में दो नवम्बर का मंजर, जब 14 नवम्बर तक मैंने अयोध्या की रिपोर्टिंग की। साथ थे डॉ उपेंद्र पांडेय। मेरे सामने ही गोलीकांड हुआ। पुलिस की गोलियां तड़तड़ा रही थीं, और कारसेवक धड़ाम होकर गिरते जा रहे थे। दो नवम्बर से लेकर 14 नवम्बर तक पूरे इलाके में कर्फ्यू लगा हुआ था। आसपास के सारे जिले सील थे। लेकिन मैं और रवि वर्मा ( अब स्वर्गीय ) पूरे इलाके को छानते रहे। एक बार एक कुख्यात जातिवादी आईपीएस से भेंट हुई। नाम था बंसीलाल। उसके तेवर उबल रहे थे। धार्मिक और जातीय प्रतीकों को गालियां देते हुए उसने हम पर लाठियां तानीं, पीएसी के जवानों को ललकारा। लेकिन हम लोग सुरक्षित भाग निकले।
और केवल हम ही क्यों, अधिकांश पत्रकार ऐसे थे, जो सुरक्षित थे और बाकायदा रिपोर्टिंग में जुटे थे। तीन और चार नवम्बर को भी अयोध्या में कारसेवकों का आक्रोश में जनसमुद्र उबल रहा था। एक बड़े अखबार के संपादक अपनी हेकड़ी में कूद रहे थे। कारसेवकों ने उनको हाथोंहाथ लिया और जम कर कूट दिया। उनका थोबड़ा बिगड़ गया और कपड़े फट गये। लेकिन मुझ पर कोई आंच नहीं आयी। किसी ने गाली तक नहीं दी।
अयोध्या में मैं ही नहीं, वीएन दास तो फैजाबाद में ही डटे रहते थे। लेकिन भीड़ ने उन पर कोई हमला नहीं किया। जबकि वह लगातार अयोध्या में जमे रहे। रामदत्त त्रिपाठी, जय प्रकाश शाही, जैसे लोग भी अयोध्या में जमे थे। लेकिन उन पर तो किसी ने कोई हमला नहीं किया। सिर्फ वे ही क्यों, एक ऐसे व्यक्ति को तो पूरी भीड़ खोज रही थी। उसका नाम था मार्क टुली। अंग्रेज था। नाम ही नहीं, शक्ल से भी विलायती था। लेकिन उसमें रिपोर्टिंग की गजब कूबत थी। पूरे दौरान वह अयोध्या में मंडराता रहा, लेकिन उस पर किसी ने कोई बड़ा हमला नहीं किया। हालांकि कई बार उसकी भिड़ंत कारसेवकों से हुई जरूर।
हां, हमला उन पर हुआ, जो अपनी पहचान और व्यवहार में डरावना बदलाव लाये थे। मसलन, कई बड़े पत्रकार ऐसे भी थे, जो उस दौरान लगातार होटलों में ऐयाशी करते रहे थे। बढिया सुरा-सुंदरी की व्यवस्था वे लखनऊ से ही लाये थे। यह हालत छह दिसम्बर-92 तक जारी रही। जय प्रकाश शाही ने तो उस मंजर पर सार्वजनिक टिप्पणी की थी कि अयोध्या में एक गुम्बद पर सैकड़ों कारसेवक चढे़ थे, जबकि फैजाबाद के होटलों के कमरों में एक-एक गुम्बद पर तीन-तीन पत्रकार चढ़े हुए थे।
कहने का मकसद यह बताना, दिखना और पूछना भी है कि आखिर कोई पत्रकार अपने कार्यक्षेत्र में क्यों पिट जाता है। यह सवाल मुम्बई में आज पॉजिटिव पाये गये 53 पत्रकारों की करतूतों से उपजा है। ऐसे कैसे हो सकता है कि मुम्बई के घारावी में रिपोर्टिंग करने गये 157 पत्रकारों में से 53 पत्रकारों को कोरोना वायरस का संक्रमण हो जाए। यानी धारावी में जुटे कुल पत्रकारों में से एक-तिहाई पत्रकार ही कोरोना-पॉजिटिव निकल गये। मैं भी पिछले डेढ़ महीने से लखनऊ और आसपास के जिलों में घूम रहा हूं। लेकिन मुझे तो कोई संक्रमण नहीं हुआ। साफ है कि कोरोना को वैश्विक महामारी का ऐलान किये जाने वाले देश, विदेश और डब्ल्यूएचओ की चेतावनियों को आपने केवल मजाक माना और उसको लगातार माखौल ही उड़ाते रहे।
खैर, जरा सोचिए कि अगर इसी तरह की लापरवाही डॉक्टर, नर्स, कम्पाउंडर या कोई दीगर स्वास्थ्यकर्मी करे, तो फिर स्वास्थ्य सतर्कता का पूरा ढांचा ही बैठ जाएगा।
अब पत्रकारिता के कोने से यह सवाल उठने लगे हैं कि कोरोना से पीडि़त पत्रकारों का जिम्मा सरकार उठाये और उनके परिवारीजनों को आर्थिक मदद करे। ऐसी मांग करने वालों को बता दिया जाए कि सरकार ने इस मामले में से अपना पल्लू झाड़ लिया है। प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कह दिया है कि हम एडवाइजरी जारी कर चुके कि पत्रकार अपना ध्यान खुद रखें।
बहरहाल, मुम्बई में इन 53 पत्रकारों की इस हालत से इतना तय हो ही गया है कि इन पत्रकारों को न तो पत्रकारिता का कोई ककहरा पता था और न ही पत्रकारिता की तमीज। सच यही है कि यह पत्रकारिता के नाम पर कलंक हैं। और उनके संस्थानों को चाहिए कि स्वस्थ्य होने के तत्काल बाद उन सब को एकसाथ संस्थान से छुट्टी दे दी जाए। उन्होंने साबित कर दिया है कि वे पत्रकारिता करने लायक गूदा रखते ही नहीं हैं।
पत्रकार तुम हर जगह पिटते हो।
सर आपका यह लेख काबिले तारीफ़ और हकीकत से रूबरू है ।
अति सराहनीय महत्त्वपूर्ण खबर ।कहते है।कि अनुभव बोलता है। आपकी लेखनी को नमन