: फिलहाल तो राजनीति में राजनाथ सिंह बेहिसाल : मुन्ना व राजनाथ ने क्षत्रियों की राजनीति ही नहीं, बल्कि जनमानस को समझा, जोड़ा और जीता भी : ठाकुरों को देखते ही खूंख्वार बिल्ली बन जाती है दलितों की बेताज-महारानी : नंगे सम्पादक के साथ खाली बोतल का रिश्ता जोड़ दिया था मुन्ना ने : ठाकुर साहब पों-पों – एक :
कुमार सौवीर
लखनऊ : कांग्रेस में तो ठाकुर नेता अगर कोई था, तो वह था अरूणकुमार सिंह मुन्ना। बेमिसाल याददाश्त, बेबाक, बेलौस, रंगबाज, विशाल हृदय, आत्मीय भाव, मिलनसार, शाहंशाहाना अंदाज वगैरह-वगैरह। व्यवहार का हिसाब-किताब सीखने का सेलेबस-पाठ्यक्रम तो लोगों को सिर्फ अरूणकुमार सिंह मुन्ना से सीखना चाहिए। दोस्ती करने की तमीज सीखनी हो तो, या फिर दुश्मनी की लकीरें खींचने की तमीज सीखना हो तो भी, अरूणकुमार सिंह मुन्ना लाजवाब-बेमिसाल।
करीब तीस साल पहले की बात है। स्टेट गेस्ट-हाउस में किराया और भोजन की मद में एक सान्ध्य समाचार पत्र के सम्पादक ने करीब डेढ़ लाख रूपयों का बकाया कर दिया था। सम्पादक और उसके रीढ़-विहीन चेले-रिपोर्टर की ख्वाहिश थी कि यह भुगतान मुन्ना जी करा दें। मुन्ना ने साफ मना कर दिया। बोले:- मैं नेता हूं, बेईमान दलाल नहीं। दो-चार हजार रूपयों की बात हो तो एक बार फिर सोचा जा सकता है। लेकिन डेढ़ लाख रूपया, बाप रे बाप। कहां से लाऊंगा तुम्हारे लिए इतनी रकम? मेरे वश की बात नहीं है। और आइंदा मुझसे ऐसी कोई ख्चाहिश दिखाना भी मत। अरे मैं खांटी कांग्रेसी हूं, फर्जी समाजवादी नहीं। क्या समझे?
इस पर भड़के सम्पादक और उसके चेले की अभद्रताएं जब सीमा पार कर गयीं। रोज-ब-रोज मुन्ना पर केंद्रित खबरें मुन्ना के खिलाफ छपनी शुरू हो गयी। तो मुन्ना ने उन दोनों को एक रात भोजन पर बुलाया, पिलाया बेहिसाब। लेकिन दोनों खाली बोतलों का जो इस्तेमाल उन दोनों नग्न-देहयष्टि के साथ किया, और उसकी फोटो खींच कर उनके दफ्तर पर भिजवा दिया, उसे सुन कर किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं। यह सन-86 की बात है, मुन्ना तब सहकारिता मंत्री थे, बाद में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी बने। और खास बात यह कि वे आज भी बाकायदा जिन्दा हैं, और पूरे होश-ओ-हवास में रहते हैं।
उधर संजय सिंह भी एक बड़े पहुरूआ थे कांग्रेस से, लेकिन केवल एक खास ख्वाहिश-चाहत के चलते उनका नाम सैयद मोदी से जुड़ गया, लेकिन उसके बदले में सारा सम्मान छिन गया उनका। अब न घर के रह गये हैं, और न घाट के। घर में छीछालेदर चल रही है। राजमहल पर कब्जा कर चुकी असली बीवी विधानसभा तक में बैठ कर उनकी छाती पर मूंग दल रही है, मूठ थामे है बेटा-बेटी। हां, अक्सर यहां दिग्विजय सिंह दिग्गी जरूर आया करते थे, लेकिन अमृता राय का लफड़ा शुरू हुआ, उन्हें भी यूपी से इस्तीफा दिला दे दिया गया।
भारतीय जनता पार्टी में एक सर्वाधिक जिन्दा ठाकुर है, जिसकी छवि कभी भी क्षत्रिय नेता की नहीं रही, लेकिन ठाकुरों की लॉबी उसके आसपास आज भी पूरी ताकत के साथ है। नाम है राजनाथ सिंह। हालांकि भाजपा के हालिया आये बदलावों में राजनाथ सिंह की ताकत कुछ कमजोर पड़ी है, लेकिन राजनाथ सिंह जैसा व्यवहार और उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व किसी अन्य ठाकुर नेता में नहीं। कम से कम मेरा अनुभव तो राजनाथ सिंह को लेकर है कि वे एक निहायत आत्मीय भावुक शख्स हैं, संवेदनशील भी। हां, राजनीति ने उनमें कुछ बदलाव जरूर किये हैं।
रही बात भाजपा में राजनाथ सिंह की स्थिति की, तो सच यही है कि राजनाथ को कमजोर करने के लिए भाजपा हाईकमान ने कोशिशें तो बेहिसाब की हैं, उनके सामने दीगर मोहरे खड़े किये हैं। लेकिन सच बात यह भी है कि राजनाथ सिंह का चुम्बकीय तिलिस्म आज भी पूरी शिद्दत के साथ बरकरार है। ठाकुरों के प्रति स्वाभाविक स्नेह-प्रेम भी मौजूद है राजनाथ सिंह के भीतर।
और यही वह खास वजह है कि चाहे वह राजनाथ सिंह हों, अथवा अरूण कुमार सिंह मुन्ना, वे लोग पार्टी के ठाकुर नेता तो खूब रहे, लेकिन पार्टी में ठाकुरों के नेता का लेबल उन पर कभी भी नहीं चिपक पाया। उन्होंने कभी भी क्षत्रियों की राजनीति नहीं की, बल्कि जनमानस को समझा, जोड़ा और जीता भी है।
बसपा में ठाकुरों की हैसियत। हा हा हा। अगर कोई शोध-छात्र इस विषय पर अपना शोध-प्रबंध तैयार करना चाहें तो यह विषय खासा दिलचस्प है। वजह यह कि बसपा में ठाकुर दीखते ही बसपा का चरित्र ही बदल जाता है। चाहे वह जौनपुर वाले बाहुबली धनंजय सिंह का मामला हो, या फिर बाराबंकी के हरगोविंद सिंह का, इन दोनों को बसपा वाली अपनी ससुराल आखिरकार छोड़नी ही पड़ी थी। इस संकल्प के साथ कि फिर चाहे कुछ भी हो जाए, मगर वे बसपा में नहीं जाएंगे।
बसपा में शामिल एक एक क्षत्रिय नेता ने अपना नाम न छापने की शर्त पर बोला कि:- दलितों की बेताज-महारानी ठाकुरों को देखते ही खूंख्वार बिल्ली बन जाती है, जबकि क्षत्रिय लोग या तो इस बिल्ली के पंजों के चलते फना-नेस्तनाबूत हो जाते हैं, या फिर खुद ही बिल्ली की पहुंच से कोसों दूर खड़े होकर मुंह बिचकाते दिख जाते हैं। बसपा ने कई ठाकुरों को अपने पहलू में कुर्सी अता फरमायी है, लेकिन उतनी की क्रूरता के साथ उनका कत्ल भी किया है। आप मायावती का नाम किसी भी ठाकुर के सामने लीजिए, नतीजा आपको नकद मिल जाएगा।
बहरहाल, मायावती और क्षत्रियों के बीच अब इतनी गहरी खाई बन चुकी है, कि ठाकुर का नाम सुनते ही मायावती को हिचकी आ जाती है, और मायावती का नाम सुनते ही राजपूतों की जुबान का स्वाद कसैला हो जाता है। ऐसी हालत में अब यह दोनों भविष्य में अगले दो-चार सौ बरस तक एकसाथ नहीं रह सकते। इति सिद्धम।
यह सिर्फ एक कहानी भर ही नहीं, बल्कि हमारे समाज के सर्वाधिक प्रभावशाली समुदाय की असलियत भी है, जिसका नाम है क्षत्रिय। वंस अपॉन अ टाइम, जब देश को क्षत्र देने का जिम्मा इन्हीं ठाकुरों पर था। इस लेख या कहानी-श्रंखला में हम आपको इस समुदाय की वर्तमान परिस्थितियों का रेखांकन पेश करने की कोशिश करेंगे।
दरअसल, बाबू-साहब समाज में आये बदलावों पर यह श्रंखलाबद्ध कहानी को उकेरने की कोशिश की है प्रमुख न्यूज पोर्टल मेरी बिटिया डॉट कॉम ने। आप में से जो भी व्यक्ति इस कहानी को तार्किक मोड़ दे कर उसे विस्तार देना चाहें, तो हम आपका स्वागत करेंगे। आइये, जुड़ जाइये हमारी इस लेख-श्रंखला के सहयोगी लेखक के सहयोगी के तौर पर।
इसकी बाकी कडि़यों को पढ़ने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-