शहर में खुशी की लहर उठी: तालिबानी भाग गये

बिटिया खबर

तालिबानी धमकी से ज्यादा खतरनाक है बेटियों को अशिक्षित रखना

: पिता ने दो टूक जवाब दिया कि बेटियां जो पढ़ेंगी जरूर, जो चाहे कर लो : छह फीसदी से कम ही बेटियां ही देख पाती हैं हाईस्कूल का मुंह :

स्कूल ऑफ लीडरशिप, अफगानिस्तान (सोला) की प्रबंध निदेशक शबाना बसीज रासिख बचपन में तालिबान के खौफ की वजह से छुपकर स्कूल जाया करती थीं। अमेरिका में स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद शबाना स्वदेश लौटीं ताकि वे लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा दे सके। एक कार्यक्रम में दिए उनके एक भाषण के अंश:

वाह-वाह । आखिरकार चले गये तालिबानी

बात काफी पुरानी है। तब मैं सिर्फ 11 साल की थी। एक दिन सुबह सोकर उठी तो पूरे घर में खुशी का माहौल था। मेरे पिता रेडियो पर बीबीसी न्यूज सुन रहे थे। वे खुश से चिल्लाए, ‘तालिबान चले गए।’ एक पल के लिए तो मुझे समझ में ही नहीं आया कि अचानक क्या हुआ है घर में। सब इतने खुश क्यों हैं। खासकर पिता जी इतने खुश क्यों हैं। मुझे देखते ही वह चहक पड़े, अब तुम स्कूल जा सकती हो। हां, अब तुम बिना किसी खौफ के स्कूल जा सकती है, तुम खुलकर, सबके सामने पढ़ सकती हो। अब किसी से डरने की जरूरत नही। वह सुबह मैं कभी नहीं भूल सकती।

कैसे तालिबानी, जब रोक लगा दी स्कूलों पर

मैं छह साल की थी जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर अपना कब्जा जमा लिया। उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल जाना गैर कानूनी घोषित कर दिया। सब डर गए, तमाम बच्चियों का स्कूल जाना बंद हो गया। हालांकि मैं और कुछ अन्य बच्चियां गुपचुप तरीके से स्कूल जाया करती थीं। पांच साल तक मैं लड़के के कपड़े पहनकर स्कूल जाती थी ताकि कोई मुझे लड़की न समझ ले। मैं लड़के के भेष में अपनी बड़ी बहन की सुरक्षा के लिए उनके साथ रहती थी, खासकर जब वह स्कूल जाती थीं।

हमेशा डरा रहता था मौत के खौफ का साया

हम खौफ के साये में पढ रहे थे। हम अक्सर अलग-अलग रास्तों से स्कूल जाया करते थे, ताकि किसी को हम पर शक न हो। मैं और मेरी बहन सब्जी के थैले में अपनी किताबें छुपाकर ले जाते थे। हमारा स्कूल एक घर के अंदर चलता था, जहां एक छोटे से कमरे में करीब सौ लड़कियां पढ़ती थीं। खतरा सब पर था, टीचर, बच्चे और उनके माता-पिता। जब कभी तालिबान का खतरा बढ़ जाता, तब हमारा स्कूल कई दिनों या फिर कई हफ्तों के लिए बंद कर दिया जाता।

माता-पिता और परिवार का सहयोग बेमिसाल मिला

मैं भाग्यशाली थी कि मेरे घर वाले शिक्षा की अहमियत समझते थे। वे बेटियों को सम्मान देते थे। मेरे नाना बहुत ही समझदार और नेक इंसान थे। उन्होंने तमाम विरोध के बावजूद मेरी मां को स्कूल भेजने का फैसला किया था। मेरी मां ने पड़ोस के घर में लड़कियों को पढ़ाने का फैसला किया। मेरे पिता अपने खानदान में पहले बच्चे थे जिन्हें स्कूल भेजा गया। लिहाजा वह भी शिक्षा की अहमियत जानते थे। वे तालिबान के खौफ को भी समझते थे लेकिन उनका तर्क था कि लड़कियों को अशिक्षित रखना आतंकी धमकी से कहीं ज्यादा खतरनाक है। लिहाजा बच्चियों को पढ़ाई से वंचित नहीं रखा जा सकता।

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