: दायित्व और अपेक्षाओं पर कस कर लताड़ा है सुप्रीम कोर्ट ने : तबाह हालातों के बावजूद ऐसे कदम बन जाते हैं उम्मीद की किरण : आतंकी की संवेदना हो, या समाज-सुधार का ठेका, मजाक मत करो :
कुमार सौवीर
लखनऊ : ऐसे वक्त में जब हमारे देश की अधिकतर सांवैधानिक संस्थाएं लगातार अपनी विश्वसनीयता और आस्थाओं को लेकर नाकाम होती दिख रही हैं, सुप्रीम कोर्ट के कुछ ताजा फैसले इनके प्रति जन-आस्थाओं को लगातार पोख्ता कर दिया है। कम से कम दो घटनाओं को देख लिया जाए तो उससे साफ पता चलता है कि सर्वोच्च अदालतें अपनी अपनी मौजूदगी के प्रति न केवल गंभीर हैं बल्कि समाज में विश्वसनीयता की बाकायदा दिशा भी दिखाती हैं कि भारत का भविष्य आखिरकार क्या होगा।
हाल ही सर्वोच्च न्यायालय एक जबरदस्त फैसला दिया। अदालत ने ऐसे मामलों में असल मसले पर सुनवाई न कर मामले को एक नायाब और अलहदा अंदाज में न केवल फैसला दिया बल्कि ऐसे मामलों को दायर कर न्याय की उपेक्षा पालने वालों को कड़ा सबक भी दे दिया। अदालत ने इस मामले में देश के नागरिकों को साफ बता दिया कि राज-सत्ता या उससे जुड़ी सांवैधानिक संस्थाओं से अपेक्षा करना तो किसी भी व्यक्ति का अधिकार है, लेकिन ऐसे अधिकारों की बात करने वालों को यह जरूर देखना होगा कि क्या उसने अपने दायित्वों को तो नहीं बिसार दिया।
पहला पहला मामला तो तथा देश में राजमार्गों सड़कों और सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण और अवैध कब्जों को लेकर था। याचिकाकर्ता ने अपनी मांग की थी कि ऐसी जमीनों और सड़कों पर अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेड़ा जाए, ताकि देश का भविष्य मैं स्वच्छता निर्भरता की ओर अग्रसर हो। आम आदमी को अवैध कब्जों से निजात मिले और इस तरह आम आदमी का जीवन तनाव-मुक्त हो सके। एक गैर सरकारी संगठन की ओर से दायर किया गया यह मामला, खुद को सामाजिक जागरुकता फैलाने वाले एनजीओ की ओर से दायर किया गया था, जिसका मकसद था कि देश में एकरूप कानून और व्यवस्था का शासन किया जाना चाहिए।
कहने को तो कहने को तो यह याचिका और उसमें उठाये मुद्दे बहुत लुभावने लोक-लुभावन थे। सच यही है देश में सार्वजनिक स्थलों अवैध निर्माण लगातार बढ़ते जा रहे हैं लेकिन इसके बावजूद ऐसे मामलों राज्य सरकारें कतई भी ध्यान नहीं दे रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे कब्जे धार्मिक समुदायों द्वारा किए जा रहे हैं बाकी अन्य अन्य कब्जे स्थानीय दबंगऔर माफियाओं द्वारा किया जा रहा है।ऐसे अपराधियों की जड़ें क्योंकि राजनीति में फसी हुई हैं, ऐसी हालत में ऐसे अवैध कब्जों और अतिक्रमण को हटा पाना या उन्हें रोक पाने की क्षमता संबंधित राज्य सरकारों में कभी भी दिखती ही नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर सुनवाई के दौरान जो एक अलग अंदाज व्यक्त किया वह वाकई काबिले तारीफ ही कहा जाएगा। मुख्य सर्वोच्च न्यायाधीश खेहर की इस पीठ ने याचिका की सुनवाई के दौरान एक ऐसा सवाल उठा दिया जिससे पूरी अदालत सकते में आ गयी। पीठ के अध्यक्ष और देश के सर्वोच्च जस्टिस खेहर ने याचिकाकर्ता से अचानक एक सवाल पूछा:- क्या आपने कभी मतदान किया है
कहने की जरूरत नहीं सवाल से भरी अदालत ही नहीं बल्कि याचिका के वादी के माथे पर भी खासी गहरी लकीरें खिंच गयीं। अचकचाये याचिकाकर्ता ने जवाब दिया कि:- नहीं ,मैंने कभी भी मतदान में हिस्सा अपनी भागीदारी नहीं निभाई।
बस फिर क्या था, जस्टिस खेहर ने इस याचिका की फाइल बंद कर उसे बेंच-सचिव को थमाते हुए कहा:- अगर आप मतदान जैसे राष्ट्रीय दायित्व पर अपनी सहभागिता नहीं करते हैं, उसमें सहयोग नहीं करते हैं, लोकतंत्र की पुनीत भावना का सम्मान नहीं करते हैं तो आपको इस तरह की किसी भी मांग करने या याचिका कर उसका लाभ उठा पाने का कोई भी अधिकार नहीं।
कहने की जरूरत नहीं यह मुकदमा खारिज हो गया।
दूसरा मामला सन-96 की 21 मई को लाजपत नगर में हुए एक जबरदस्त बम विस्फोट को लेकर था। इस हादसे में 13 लोग मारे गए थे और 38 से ज्यादा लोग घायल हो गए। इस मामले में निचली अदालत में नौशाद अली, मोहम्मद अली भट्ट और निसार हुसैन को मौत की सजा सुनाई गयी थी। लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने नौशाद अली, मोहम्मद भट्ट और हुसैन को बरी कर दिया। इतना ही नहीं, हाईकोर्ट ने नौशाद की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था।
अब जरा इस इस पूरे मामले पर सुप्रीम कोर्ट के नजरिये पर एक नजर डाल लीजिए, जो नौशाद अली ने मानवता के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के सामने दायर किया था।
आपको बता दें नौशाद अली की बेटी की शादी इसी महीने तय हुई है। नौशाद की ख्वाहिश है कि वह अपनी इकलौती बेटी की शादी में शरीक होकर उसे आशीर्वाद दे। लेकिन चूंकि नौशाद इस वक्त जेल में बंद है, ऐसे में वह अपनी बेटी की शादी में कैसे शामिल हो सकता है। एक ही तरीका था, जो नौशाद ने अपनाया। नौशाद ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और मांग की कि उसे अपनी बेटी की शादी में शामिल होने के लिए मानवता के आधार पर अंतरिम पैरोल की इजाजत दे दीजिए।
नौशाद की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने पहली ही नजर में खरिज कर दिया और कहां राष्ट्र के प्रति गंभीर अपराध के जरिए निर्दोष लोगों की हत्या करने वालों को जमानत या पैरोल नहीं दी जा सकती। जिस अपराधी ने राष्ट्रीय और मानवता के खिलाफ मानवीय व्यवहार किया उससे मानवता की अपेक्षा करना अनुचित होगा। अदालत ने साफ कहा कि निर्दोष लोगों की हत्या करने जैसे गंभीर अपराध को अंजाम देने वाले लोगों के लिए बेहतर होगा कि वे अपने ऐसे कृत्य की योजना बनाने से पहले अपने अपने परिवार से अपने रिश्ते को हमेशा हमेशा के लिए भूल जाए