सुब्रत राय: जब पुलिसवाले ने रंगकर्मी के सीने पर बन्दूक लगा दी

मेरा कोना

: सहारा इंडिया के खिलाफ जेहाद में हथियार बना नुक्कड़ नाटक : ढोल-मंजीरा, गीत, नुक्कड़ नाटक और शहर भर में तहलका : धीरे-धीरे बड़े पत्रकारों ने भी हमारा दामन मजबूत किया : नंगे अवधूत की डायरी पर दर्ज हैं सुनहरे चार बरस- आठ :

कुमार सौवीर

लखनऊ: हां, तो अगले दिन से हम लोगों ने अपने आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नुक्कड़-नाटक श्रंखला तैयार की। ढोल-मंजीरा, गीत, नुक्कड़ नाटक और शहर भर में तहलका मचा दिया था हम लोगों ने। एक नाटक तैयार किया था आदियोग ने और प्रमुख भूमिका में था मैं और हमारे एक साथी सुप्रिय लखनपाल। कई अन्य रंगकर्मी भी मौजूद रहते थे। नाटक का पहला शो हुआ शान-ए-सहारा प्रेस के बाहर, दूसरा शो हुआ सहारा के कमांड आफिस यानी लालबाग के बाहर, तीसरा शो नगर निगम कार्यालय के बाहर, चौथा शो हुआ जनपथ मार्केट पर और पांचवां शो हुआ निशातगंज स्थित गुरूद्वारा के सामने। अब तक शाम हो चुकी थी। पांचवां नाटक शुरू हुआ।

लोगों को आकर्षित करने के लिए मैंने माउथ-आर्गेन बजाना शुरू कर दिया। दर्शक लोग जुटने लगे। इसी बीच हमारे साथी गीत गाने लगे। कि अचानक एक दारोगा और तीन सिपाही मौके पर पहुंचे और गालियां देते हुए हम लोगों को भगाने लगे। हम लोग भी विरोध पर उतरे तो एक पुलिसवाले ने हमारे एक साथी का कालर पकड़ कर धक्का दे दिया। मामला भड़क गया। हम लोगों ने धरना शुरू कर दिया, तो पब्लिक भी हमारे साथ खड़ी हो गयी। लेकिन पुलिस वाले भी न जाने किस नशे में थे, उनमें से एक ने अचानक आदियोग के सीने पर रायफल तान दिया और गालियां देते हुए जान लेने की धमकी देने लगा। मौके पर मौजूद दर्शक अब पूरी तरह हमारे साथ खड़े हो गये थे, और लगे पुलिसवालों के खिलाफ नारेबाजी करने।

दिल्ली में आज बड़े पत्रकार हैं शैलेश जी, तब वे यहां अमृत प्रभात दैनिक समाचार पत्र के रिपोर्टर हुआ करते थे। हमारे और हमारे आंदोलन के हितैषी थे शैलेष। अक्सर वे जब भी रात को खाली होते, हमारे प्रेस स्थित आंदोलन स्थल पर जुट जाते थे। और फिर केवल शैलेष ही क्यों, मंगलेश डबराल, रामदत्त त्रिपाठी, विनोद श्रीवास्तव, प्रमोद झा, प्रद्युम्न तिवारी, ओपी समेत लोग हमारे आंदोलन में साथ खड़े थे। उधर जनसत्ता के रिपोर्टर थे जयप्रकाश शाही, और, और, खैर छोडि़ये। दिक्कत यह है कि अब किस-किस का नाम बताया या छोड़ा जाए। लब्बोलुआब यह कि लखनऊ की आधी से ज्यादा पत्रकार-आबादी हमारे साथ खड़ी थी। खुलेआम। श्रमिक आंदोलनों के प्रति गजब ईमानदारी थी, क्या लाजवाब एकजुटता थी उस दौर के पत्रकारों में,  क्या जुझारूपन था ईमानदार आंदोलनों के प्रति। यकीन नहीं आता है कि आज वर्तमान का उसी वही कल यानी अतीत का वंशज है।

खैर, निशातगंज गुरूद्वारा के सामने हुए इस बवाल की खबर मिलते ही शैलेष भी मौके पर पहुंच गये। उनके साथ फोटोग्राफर भी मौजूद था। उन्होंने भी देखा यहां का नजारा। काफी बक-झक के बाद पुलिसवालों का नशा उतरा और वे पास अपनी बनी पुलिसचौकी में धंस गये। लेकिन अगले दिन अमृत प्रभात में शैलेष ने तीन कॉलम की एक खबर पहले पन्ने पर छापी। फोटो के साथ। फोटो में वह पुलिसवाला आदियोग के सीने पर रायफल रखे हुए था। इस खबर की हेडिंग थी:-  जब पुलिसवाले ने रंगकर्मी के सीने पर बंदूक लगा दी।

इस खबर का हल्ला हमारे पक्ष में जमकर हुआ। हमारा हौसला भी बेइंतिहा भड़क चुका था। हमारे अनशन स्थल पर लोगों का उत्साह भी हिलोरें लेने लगा था।

लेकिन आज तक मेरी यह समझ में नहीं आया है कि आखिरकार इन पुलिसवालों को क्या दिक्कत थी। क्यों वे इस बुरी तरह भड़क गये थे। हमारे प्रति उनका यह आक्रोश का मूल कारक-कारण क्या था। आखिर वे लोग अपने इस तरह के व्यवहार से क्या साबित करना चाहते थे। उनका यह व्यवहार उनका निजी फ्रस्टेशन था, या उनके अहंकार का प्रदर्शन।और हैरत की बात है कि पुलिसवालों का यह व्यवहार आज भी कमोबेश मौजूद है। ग्रामीण इलाकों में तो यह लोग किसी क्रूर सामन्त से ज्यादा ही घृणित और जघन्य हो जाते हैं।

कुछ भी हो, आज भी मैं जब भी मौका मिलता है, पुलिसवालों के व्यवहार को समझने की कोशिश करना शुरू कर देता हूं। वैसे इसके अनेक कारणों में से एक कारण तो जो मुझे समझ में आया है, वह है पुलिस में छोटे तबके के कर्मचारियों के प्रति बड़े अफसरों की बाकायदा गुण्डागर्दी वाली इस्टाइल, जिसका मकसद केवल इन अधीनस्थों को दलित-दमित कर देना ही होता है। उन अफसरों की नजर में पुलिस का अदना सा कर्मचारी केवल पालित-श्वान से ज्यादा नहीं होता है। पुलिस एसोसियेशन बना कर अपनी नौकरी गंवाने वाले और इसके बावजूद आम पुलिसवाले के प्रति जुझारू भाव रखने वाले सुबोध यादव का कहना है कि पुलिस में बोलना अक्षम्य अपराध होता है और उप्र पुलिस एसोसियेशन के अध्यक्ष सुबोध यादव हर कीमत पर ऐसे अमानवीय अक्षम्य अपराधों का विरोध करने में जुटे रहते हैं। खैर,

तो शुक्रिया लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष मिश्र, पत्रकार उदय सिन्हा, अजय सिंह, अनिल सिन्हा, शैलेश, श्रमिक नेता उमाशंकर मिश्र, रेल कर्मी शिवगोपाल मिश्र, ओपी सिंह, नाट्यकर्मी आतमजीत, बैंक श्रमिक नेता राकेश, एवरेडी नेता गंगा प्रसाद जी और विद्युत जी जैसे महानुभाव, जिन्होंने हमारे आंदोलन को अपना निजी आन्दोलन माना और जितनी भी शिद्दत के साथ वे अपने और सहयोगी कर्मचारी साथियों के लिए जूझ सकते थे। शुक्रिया उन कर्मचारियों का भी जो शहर-प्रदेश की अनेक फैक्ट्रियों में काम करते थे और हमारे आंदोलन में शामिल होने के लिए शान-ए-सहारा के प्रेस तक पहुंचे।

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