काशी की विभूतियां, यानी चिर-जीवंत लीजेंड्स ऑफ बनारस

मेरा कोना

जिनके नाम पर है ‘ बना रहे बनारस ‘

लीजेंड्स ऑफ बनारस ( एक ) : प्रोफेसर पंडित वीरभद्र मिश्र जी के निधन के बाद से ही बात सूझी कि क्यों न काशी के महानतम लोगों पर कोई सीरीज लिख डालूं। हालांकि यह काम तो मैं सन-06 तक पूरा कर चुका था, लेकिन कुछ झंझटों के चलते यह प्रकाशित नहीं कर पाया। खैर, अब इसे श्रेय मेरी बिटिया डॉट कॉम यानी http://www.meribitiya.com पर प्रकाशित करना चाहता हूं।

जीवन का तीन साल  मैंने दैनिक हिन्दुस्तान में काम करते हुए वाराणसी को बहुत करीब से जिया। चूंकि काम नारद वाला था और नारद कभी भी कही भी नदारद नहीं होते, तो, भोले की इस नगरी में तांक-झांक की मेरी पैदाइशी आदत जरूरत से ज्यादा बढ़ी-चढ़ी मस्तायी या फगुआयी। या यूं कहें कि जबरदस्त खिली। बनारस में हर शख्‍स केवल राजा ही नहीं, बाकायदा राजा बनारस है। आत्‍म-गौरव बढ़ा तो लगा जैसे मैं ही शिव हूं और मां-गंगा मेरी ही बेटियों की तरह अब अब-तब मुझसे लिपटने के लिए अपना मार्ग छोड़कर अपनी बाहें मेरे गले से लिपटाने बस आने वाली ही होगी। जल्‍दी ही पता चल गया कि जिया राजा बनारस का कवन मतलब हौ। यह बेमिसाल शहर है, जहां के जहरीली जैसी नदी गंगा का स्नान ही नहीं, बल्कि जल से आचमन तक करते हैं लोग। कमर पर गमछा लपेटे हुए और लंगोट को कंधे पर बीच-सड़क चहलकदमी करते लोग सरेआम अपनी जांघ खुजलाते दीखते हैं। काशी की इसी मस्ती से अलग सर्वविद्या की राजधानी कहे जाने वाले इस शहर के हर कोने-कतरे को मैंने सूंघा, देखा और चखा। ऐसे-ऐसे लोगों से मिला, जिनसे मिल पाना कहीं और मुमकिन नहीं होता। बेहद सरल भी लोग मिले, लेकिन बेहद घमंडी भी तो कुछ नाराजगी का लबादा ओढ़े मिले। बावजूद वे वाकई महान ही थे।

बनारस में इन लोगों से मुझे जो अगाध प्रेम, स्नेह और जानकारियों की जो गंगा मिली, मैं तृप्त हो गया। मुझे गर्व है कि मुझे यह मौका दिलाया तब के स्थानीय संपादक शशांक शेखर त्रिपाठी ने। खुद भी उतने बेहद अक्खड़। नारियल की तरह, जिसे सिर पर मार दीजिए तो खोपड़ी फट जाए, लेकिन प्या़र से तोडि़ये तो मिल जाएगी स्वादिष्ट गिरी के साथ नारियल-पानी। तो, मेरा आइडिया शेखर त्रिपाठी ने हाथोंहाथ लिया। इस साक्षात्कारों वाली श्रंखला का नाम दिया द लिविंग लीजेंड्स और उसके संपादन का दायित्व दिया वरिष्ठ सहयोगी और मित्र सुशील त्रिपाठी। किसी भी खबर को बोलती हुई हेडिंग और संपादन में बदलने की महारत तो शायद वेद-व्यास को भी नहीं होगी।

दुर्भाग्य है कि सुशील त्रिपाठी अब हमारे बीच नहीं हैं। ठीक उसी तरह वे कुछ महान लोग भी नहीं हैं, जिनसे मैंने बातचीत की। मेरा दुर्भाग्य है कि इसी बीच शेखर त्रिपाठी ने भी दैनिक हिन्दुस्तान छोड़ दिया और नये आये विश्वेश्वर कुमार ने केवल अपने अहंकार के चलते मेरी उस सारी मेहनत पर पानी फेर डाला। मेरा मानना है कि शेखर त्रिपाठी अगर नारियल थे, तो विश्वेश्वर कुमार साक्षात बेर। बाहर से बिलकुल मुलायम, लेकिन जरा चूक गये तो दांत टूट जाएं। खाने वाले का सेहत का तो बंटाढार ही हो जाए। यकीन मानिये कि जो होना था, सो हो गया। लेकिन अब मुझे विश्वेश्वर कुमार से अब कोई शिकायत नहीं। आखिर विश्वेश्वर कुमार ने ही तो मुझे नारियल और बेर का फर्क समझा दिया था ना।

खैर, तो अब शुरूआत करते हैं सबसे उन लोगों पर जो इस बीच हमारे साथ अब नहीं रहे। उन्हें मेरी श्रद्धांजलियां। काशी के ऐसे महानतम लोगों पर यह लेख-नुमा साक्षात्कार की श्रंखला अब रोजाना प्रकाशित की जाएगी। हमारे पोर्टल मेरी बिटिया डॉट कॉम यानी http://www.meribitiya.com/my-space/453-2013-03-13-15-32-30.html के मेरा कोना स्तम्भ‍ में। नजीर आपके सामने है, पहला अंक है प्रोफेसर पंडित वीरभद्र मिश्र से। हालांकि इस बारे में मैं उनके निधन के फौरन लिख चुका था, लेकिन इस सीरीज को तैयार करने का श्रेय उनके प्रति मेरे सम्मान से ही शुरू हुआ।

इस प्रयास पर मुझे आपकी प्रतिक्रियाओं की हमेशा प्रतीक्षा रहेगी।

लीजेंड्स ऑफ बनारस की पहली किश्त पंडित वीरभद्र मिश्र को समर्पित है। श्रंखला की दीगर किश्तों पर ऐसी शख्सियतें होंगी जो अब नहीं हैं। लेकिन ऐसे लोगों के बाद उन लोगों पर श्रंखला शुरू की जाएगी, जिसका नाम रखा जाएगा:- लीजेंड्स ऑफ बनारस। अब चूंकि अब वीरभद्र पर काम प्रकाशित हो चुका है, इसलिए अगली किश्त में अगला नाम होगा:- लीजेंड्स ऑफ बनारस: तबले का शाहंशाह किशन महराज

इस सीरीज को पूरी तरह देखने और पढ़ने के लिए कृपया क्लिक करें:लीजेंड्स ऑफ बनारस

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