झगड़ा एबीपी न्‍यूज का: दिल्‍ली में गधों की तादात अच्‍छी-खासी है

बिटिया खबर मेरा कोना
: निचले पायदान तक उतरने की उतावली पर आमादा है सरकार : घिनौने आरोप। और निशाने पर हैं ब्रॉडकॉस्‍टर्स गिल्‍ड और एडिटर्स गिल्‍ड : पत्रकारिता में चल रही है कुकुर-झौंझौं : पुण्‍यप्रसून का चरित्र गंदला, तो गिल्‍ड में चारित्रिक दोष :

कुमार सौवीर
लखनऊ : पत्रकारिता बनाम बजरंग दल या गौरक्षक जैसा माहौल। यह तो वाकई चौंकाने वाला मामला बनता जा रहा है। पुण्‍यप्रसून बाजपेई, अभिसार शर्मा और मिलिंद जैसों की विदाई को लेकर जिस तरह की खबरें, चर्चाएं और कयास तथा तथ्‍य सामने लगातार आते जा रहे हैं, उसने मीडिया ही नहीं, बल्कि मीडिया को जानने की कोशिश करने वालों तक की भी धड़कनें धड़धड़ाना शुरू कर दिया है। सारी की सारी चर्चाएं अब एकजुट होकर एक सांगठनिक आरोप की शक्‍ल लेते जा रहे हैं। घिनौने आरोप। और निशाने पर हैं ब्रॉडकॉस्‍टर्स गिल्‍ड और एडिटर्स गिल्‍ड। इन दोनों गिल्‍ड ने इस विवाद के ठीक बाद से जो रहस्‍यमय चुप्‍पी बनाये रखी है, उसका वजन अब तक के पत्रकारिता पर थोपे-मढ़े जा चुके सारे के सारे सवालों की गठरी से हजारों-लाखों गुना ज्‍यादा से भी ज्‍यादा वजनी बन चुका है। अकेला एक सवाल भी ऐसी गठरियों से भी ज्‍यादा वजनी है। और वह यह, कि यह दोनों ही गिल्‍ड बिलकुल आरएसएस-वीएचपी और बीजेपी की ही तरह सोचने, मंथन और उसी के अनुसार व्‍यवहार करने लगे हैं। अभी तो खामोश हैं, लेकिन आशंका यह भी है कि कहीं वे बजरगदल या गौ-रक्षकों की तरह आक्रामक न हो जाएं।
लेकिन पहले संदर्भ तो सुन लीजिए। हुआ यह कि पिछले कई दिनों से मैं एबीपी न्‍यूज चैनल में चल रही बेहद शर्मनाक और घिनौनी हरकतों पर निगहबानी कर रहा था। बावजूद इसके कि पुण्‍यप्रसून बाजपेई जैसे लोग भी पत्रकारिता में अपनी कुण्‍डली मारे हैं, और जहां-तहां मौका मिलते ही अच्‍छा-खासा माल-मत्‍ता गटक जाते हैं। पुण्‍यप्रसून बाजपेई उन पत्रकारों में हैं, जो दलालों को देश का सबसे निष्‍ठावान और ईमानदारी से काम करने वाला साहसी तथा बेबाक पत्रकार करार देने के लिए अपनी कमर कस लेते हैं, और जरूरत पड़े तो पत्रकारिता की लंगोट भी खोल देते हैं।
आज राष्‍ट्रभक्ति और हिन्‍दू-एकता का अखण्‍ड पाठ करने वाला जी-न्‍यूज वाला सुधीर चौधरी अभी कुछ बरस पहले ही कांग्रेसी उद्योगपति नवीन जिन्‍दल से सौ करोड़ रूपयों की दलाली करने में पकड़ा गया था और जेल में बंद हुआ था। इसके पहले एक महिला शिक्षिका से रंगदारी मांगी थी, लेकिन रकम न मिलने पर उसने उस शिक्षिका पर सेक्‍स-रैकेट चलाने का फर्जी आरोप लगाते हुए एक ऐसी खबर प्रसारित की थी, कि जनता भड़क गयी और उस‍ शिक्षिका के कपड़े फाड़ कर उसे नंगा कर पीटा था। मगर जब सुधीर चौधरी को जेल में भेजा गया तो पुण्‍यप्रसून बाजपेई ने सुधीर चौधरी को कुछ इस तरह पेश किया, कि मानो सुधीर को सत्‍ता की बलिवेदी पर चढ़ाया जा रहा है और सुधीर के मामले में सरकार हिटलरी अंदाज में हैं, और मीडिया को कत्‍ल कर देगी, इसलिए सब लोग एकजुट हो जाओ। सरकार की यह हरकतें आपातकाल लाने वाली साजिश बुन रही है। इसके पहले भी पुण्‍यप्रसून बाजपेई की कई खबरें अतिरंजना, सरासर झूठ पर वरक चढी हुई थीं। आप पार्टी के साथ राजनीतिक कदमताल और स्‍पष्‍ट दलाली वाली खुसफुसाहट खूब चर्चित हो चुका है। बदतमीजी का मुलम्‍मा तो पहले से ही चढ़ा हुआ था।
लेकिन आज पुण्‍यप्रसून अकेले हैं। हालत यह कि अपनी ताजा छीछालेदर के दस दिन बाद तक वे अपनी जुबान ही सिले बैठे रहे। लेकिन मान लेते हैं कि सदमे में ऐसा हो जाता है। जब सत्‍ता ही किसी पर हमलावर हो तो फिर ऐसे सदमे स्‍वाभाविक ही हैं। कारण यह कि व्‍यक्तिगत हमला तो किसी पर भी हो सकता है, उससे निपटाया भी जा सकता है। लेकिन जब सत्‍ता की निरंकुशता रक्‍तपिपासु होने पर आमादा हो, तो खतरे लाख गुणा बढ जाते हैं। ऐसे में हम-पेशा ही नहीं, अभिव्‍यक्ति की आजादी के प्रत्‍येक पैरोकारों को एकजुट हो ही जाना चाहिए।

संदर्भ एबीपी न्‍यूज: अनैतिक लोगों के बहाने पूरी पत्रकारिता पर पिल पड़ी है सरकार, शैली गोरक्षकों की सेना जैसी। पूरा मामले का वीडियो देखने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:-
पत्रकारिता में चल रही है कुकुर-झौंझौं

लेकिन पुण्‍य प्रसून के मामले में खामोशी पसरी हुई है। एक तो यह कि पुण्‍यप्रसून के पास कोई टीम ही नहीं रही। वे एकला चलो की धुन पर झूमते रहे हैं। हालांकि कमर वहीद नकवी समेत कई बड़े पत्रकार इस मसले पर मुखर हैं। उधर एडीटर्स गिल्‍ड और ब्रॉडकॉस्‍टर्स गिल्‍ड तो बिलकुल चुप्‍पी साधे बैठ गया है। मैंने नकवी जी से बातचीत की, उनका इंटरव्‍यू छापा। नकवी की शिकायत थी कि यह दोनों ही गिल्‍ड खामोश हैं। इस पर मैंने ब्राडकॉस्‍टर्स गिल्‍ड के एनके सिंह से बातचीत की। उन्‍होंने बताया कि पुण्‍यप्रसून की ओर से कोई शिकायत ही नहीं पहुंची है उनके पास। मैंने एनके सिंह का यह पक्ष भी प्रकाशित किया।
अब आते हैं वीरेंद्र सेंगर पर। दरअसल, दिल्‍ली तो बड़े पत्रकारों की सरजमीं है। हालांकि ऐसा हरगिज नहीं है कि अरब में केवल घोड़े ही रहते हैं। गधों की तादात भी वहां अच्‍छी-खासी है। बनकूकुर और लकड़बग्‍घा से लेकर मगरमच्‍छ-घडि़याल, अजगर और वैशाखनंदनों की भी संख्‍या बहुत है। हां, समझदार, तेज, कर्तव्‍यनिष्‍ठ और परिश्रमी पत्रकारों की तादात भले ही कम हो, लेकिन इसके बावजूद यदा-कदा वे अक्‍सर नमूदार हो ही जाते हैं। जो पत्रकारिता के सड़ते तालाब के पानी को अपनी पूंछ से फटकारते हुए तालाब को यथासम्‍भव साफ करते रहने में जुटे रहते हैं।
ऐसे ही गम्‍भीर पत्रकारों में शुमार लोगों में से एक हैं वीरेंद्र सेंगर। वीरेंद्र ने फोन करके सवाल किया कि क्‍या तुम्‍हें पता नहीं है कि एनके सिंह की पहचान एक पत्रकार कम, बल्कि घोषित और कट्टर संघी कार्यकर्ता ज्‍यादा हैं। ऐसी हालत में आज जो भी हो रहा है, उसमें ऐसी ताकतों की साजिशें सिरे से मौजूद हैं।
दोस्‍तों। मैं जानता हूं। एनके सिंह के बारे में यह जानकारी मुझ तक पहुंचती रही हैं। मेरा अनुभव भी यही है कि एनके सिंह अपनी अहमन्‍यता-दर्प के बोझ से दबे रहते हैं। घमंड उनकी कमर को दोहरा करता रहता है। उस पर तुर्रा यह कि वे पत्रकारिता के उस कोटि के व्‍यक्ति हैं, जो बाकी को मूर्ख, अनपढ़, और पत्रकारिता पर बोझ मान कर ही सामने वाले से बातचीत करते हैं। संघी-पत्रकारिता की सबसे बड़ी पहचान यही है। दोलत्‍ती ने अजीत अंजुम से इस बारे में बातचीत की, तो उन्‍होंने आधे घंटे बाद बात करने को कहा, लेकिन उसके बाद उन्‍होंने मेरे दो दर्जन से ज्‍यादा फोन की घंटियां तो खूब तबला बजा-बजा कर सुना दीं, लेकिन बातचीत से परहेज करते रहे।
उधर इस विवाद पर शीतल पी सिंह इस सवाल पर बिलकुल साफ बात करते है। वे एनके सिंह पर हमला तो नहीं करते, लेकिन वे यह साफ जरूर कहते हैं कि गिल्‍ड की खामोशी का संकेत बिलकुल साफ है। पुण्‍य प्रसून ने अगर गिल्‍ड के पास शिकायत नहीं पहुंची, तो भी गिल्‍ड को हस्‍तक्षेप करना चाहिए था। कई सवाल तो गिल्‍ड तक पहुंच ही चुके थे। मसलन, मास्‍टर-स्‍ट्रोक के वक्‍त डिस्‍टरबेंस होना। और वह भी लगातार कई दिनों तक। अगर प्रसारण में दिक्‍कत लगातार बनी ही रही थी, तो उसमें पुण्‍यप्रसून की क्‍या गलती थी। गिल्‍ड को पूछना चाहिए था सरकार से, टाटा स्‍काई से, एबीपी न्‍यूज से भी कि आखिर यह क्‍या मामला है।
मैं जानता हूं। साफ मानता हूं कि एबीपी न्‍यूज, सरकार, टाटा स्‍काई और उससे जुड़े बाकी दीगर लोगों को नोटिस किया ही जाना चाहिए था। ऐसा न होना गिल्‍ड के चारित्रिक दोष का प्रमाण है। और दोस्‍तों, इसीलिए इस मामले में एकजुटता सबसे जरूरी तत्‍व है। बावजूद इसके कि पुण्‍यप्रसून बाजपेई का चरित्र भी खासा गंदला है, जो पत्रकारिता के कई लोगों को प्रभावित कर सकता है। उनकी करतूतों को तार्किक रूप से मजबूत कर सकता है। लेकिन इसके बावजूद सच बात तो यही है कि ऐसे खतरे हमेशा व्‍यक्तिगत ही होंगे, जबकि सरकारी साजिशें पूरी पत्रकारिता ही नहीं, बल्कि पूरी आवाम को बुरी तरह तहस-नहस और तबाह-बर्बाद करेगी। इसलिए मैं पुण्‍यप्रसून के मामले में कदमताल कर रहा हूं।

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