मेरा नाम शबनम है, प्यार से लोग मुझे शब्बो कहते हैं। और तुमको बाबू

मेरा कोना

: आईएएस अफसर अगर काम करते तो बुंदेलखंड में पानी पर यह हाहाकार नहीं होता : आफत का समाधान खोजना नहीं, उसे टालना और उसके बाद नौकरशाही की चद्दर ओढने से पहले महानतम डांसर हेलेन की सुनो बाबू जी : एक मामूली नर्तकी में भी होती है बाबुओं से लाख गुना बुद्धि और समझ : अब तो दस हजार टैंकरों की खरीद पर मौज-मस्ती् होगी न : लो देख लो, बड़ाबाबू की करतूतें- 18 :

कुमार सौवीर

लखनऊ : सन-72 में जबर्दस्त हिट रही फिल्म कटी पतंग में हेलेन ने एक गजब नृत्य किया है। गीत पद्य में है, लेकिन हेलेन ने उस पद्य में ऐसा कठिन नृत्य किया, कि लोगों की आंखें फटी की फटी ही रह गयीं। नृत्य की शैली पाश्चात्य थी। गीत के बोल थे:- मेरा नाम शबनम है, प्यार से लोग मुझे शब्बो कहते हैं।

बस पांच लाइनें हेलेन पर सुन लीजिए, तो आपको पूरा किस्सा समझ में आ जाएगा कि हेलेन आज की आईएएस नौकरशाही से लाख दर्जा क्यों महान है। खैर, उस वक्त किसी भी फिल्म में हेलेन की मौजूदगी फिल्म की सफलता की गारंटी हुआ करती थी। हेलेन की वेशभूषा उस दौर में बहुत उत्तेजक मानी जाती थी। उसकी एक-एक अदा पर परदे पर सिक्कों की बरसात हो जाया करती थी। अपनी हर फिल्म में जब भी गीत, उसका भाव, कहानी की डिमांड, लोकेशन और उसकी अदाओं आदि को फिल्माने पर सवाल उठते थे, हेलेन हर बार यही बात कहती थीं:- आप गीत और लोकेशन बता दीजिए। डांस मुझे ही करना है, और मुझे खूब पता है कि मुझे कब, क्या, कैसे, क्यों और कितना नृत्य करना है। और कहने की जरूरत नहीं कि हेलेन अपने दौर की महानतम नृत्यांगना साबित हुईं, वजह यह कि वे अपने फन की खुद निर्देशक हुआ करती थीं।

अब हेलेन की तुलना आज के नौकरशाहों-ब्यूरोक्रेट यानी आईएएस अफसरों से कर लीजिए। इसकी समीक्षा की जरूरत ही नहीं है। एक रिक्शावाला और छोटा-मोटा दूकानदार तक बता देगा कि उसकी नजर में एक आईएएस की छवि क्या है। जो लोग तुम्हें गुस्से में बाबू कहते हैं, तो गलत नहीं कहते हैं। तुम्हारी कारस्तानियां ही ऐसी हैं। ऐसा न होता तो आज जो बुंदेलखंड में पानी को लेकर हाहाकार मच रहा है, वह हर्गिज नहीं होता। बल्कि वास्त्विकता तो यही है कि यह समस्या कभी होती ही नहीं। दो दिन पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भेंट की और कहा कि बुंदेलखंड में पानी की बदहाली से निपटने के लिए तत्काल दस हजार छह सौ हजार करोड़ रूपयों की जरूरत है। इस भेंट में यूपी की ब्यूरोक्रेसी के मुखिया मुख्य सचिव आलोक रंजन समेत करीब दर्जन भर आला अफसर भी मौजूद थे। अखिलेश यादव ने अपनी शिकायतों का पुलिंदा खोला और आलोक रंजन ने उस पुलिंदा के समर्थन में हजारों पन्नों की निरर्थक कवायद का मोटी फाइल थमा दीं। यह जाहिर करने के लिए इसे इलाके में पानी की यह समस्या है और उससे निपटने के लिए बिना केंद्रीय सरकार की सहायता के लिए कुछ नहीं किया जा सकता है।

अब असल सवाल यह है कि आप पिछले बरसों तक क्या कर थे। कभी उस पार्टी की सरकार में तेल लगा रहे थे तो कभी उस पार्टी की सरकार के लिए मेनीफेस्टो तैयार कर रहे थे न। बुंदेलखंड की इस दुर्दशा के लिए तुमने क्या किया? क्यों चाहिए तुम्हें साढे दस हजार करोड़ रूपया? क्या तैयारी थी तुम्हारी। तुम यही चाहते थे न कि ऐन वक्त पर बवाल भड़के, फिर केंदीय सहायता मिले, फिर टैंकर-फैंकर खरीदें जाएं, फिर राहत की प्लानिंग के लिए कवायद शुरू हो जाए। तब तक मानसून हो जाए और फिर बुंदेलखंड की इस त्रासदी का वार्षिक समापान हो जाए।

सूखे पर दिल्ली में हुई बैठक में अखिलेश यादव ने कहा कि पानी के लिए यूपी के दस हजार टैंकरों की तत्काल जरूरत है। यह तो मुख्यमंत्री का आदेश हुआ। अब क्या  इसके पहले नौकरशाहों की जिम्मेदारी नहीं थी कि वे आंकते कि इस इलाके में क्या-क्या दिक्कतें हैं, कौन स्थाई हैं, कौन मौसमी हैं, कौन मारक हैं, किनसे तबाही हो सकती है, किन का समाधान किस प्राथमिकता पर देखना चाहिए, उसके लिए कैसे चरणबद्ध योजना तैयार की जानी चाहिए, कैसे ऐसी भीषण से निपटने के लिए राहत योजनाओं को समय होने से पहले लागू कर दिया जाना चाहिए, ताकि महामारी की नौबत न आ जाए। अगर ऐसा किया जाता तो, दावे के साथ कहा जा सकता था कि ऐसी समस्या सिर उठा ही नहीं पाती। जाहिर है कि पानी का ताजा-मौजूदा बवाल केवल राजनीतिक है और उसे भड़काने में अगर कोई जिम्मेदार है तो केवल यूपी की बाबूगिरी के नेता यानी आईएएस अफसर। तब पानी का स्टोरेज समय से हो चुका होता, जरूरी बांध वगैरह साल भर पहले ही नहीं, कम से कम दस-बीस साल पहले ही तैयार हो चुके होते। अगर आकस्मिक दिक्कत होती हो उसे तत्काल मलहम लगाया जा सकता था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वजह यह कि यह एक सोची-समझी और बनायी गयी समस्या थी, जिसका समाधान करने के बारे में सोचा तक नहीं गया।

लेकिन चूंकि अब यह हालत बिगड़ चुकी है, हव्वा खड़ा हो चुका है। इसलिए उसके लिए निदान खोजने की भागादौड़ी खूब होगी। दस हजार टैंकरों की खरीद होगी। अल्पकालिक टेंडर आयेंगे। मनमाने रेट लगाये गये जाएं। अफसर-नेता मालामाल होंगे। टैंकर बनाने वाली कम्पनियां ऐसे ही मौकों पर सक्रिय होती हैं, लोहे के बजाय हल्की टीन की बॉडी वाली टंकियां लगेंगी। ऐसे टैंकर खरीदे जाएंगे जो या तो चल ही न पायेंगे, और जो कुछ दिन चल भी पायेंगे, वे चंद दिनों में ही चू पडेंगे। चंद टैंकरों के साथ समस्या के समाधान का डंका बजाया जाए। फिर चंद दिनों बाद बारिश तो होनी ही होगी, उसके साथ ही समस्या का वार्षिकोत्साव का समापन हो जाएगा। फिर सूखे की बात उठेगी, फिर फसल के मुआवजे पर ड्रामा होगा, फिर भुखमरी का क्षेपक शुरू होगा, फिर रोजगार की राजनीतिक नृत्य-नाटिका होगी। रंगमंच झक्कास रचेगा। अफसर-नेता तांडव करेंगे, हेलेन नेपथ्य पर चली जाएंगीं। लेकिन जाते-जाते यह सवाल तो उठा ही देंगीं कि:- तुम बाबू ही हो न ?

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