हुर्रे, हम जीत गये। कांपते सुब्रत राय का ऐलान:- आपकी सारी मांगें मंजूर

मेरा कोना

: लगा, जैसे किसी विशाल मैदान में हजारों-लाखों सिंह-व्याघ्र एकसाथ दहाड़ रहे हों : जीत के लिए बेहद परिश्रम और जीत का उल्लास इसी तरह मनाया जाता है : हर सांस में जिजीविषा, हर पल हौसलों की लहर, हर कदम में जीत, हर धड़कन में जीवन्तता :

कुमार सौवीर

लखनऊ : लेकिन यह तो छलावा ही था। हम तो भले ही इस बात पर विश्वास कर लेते। लेकिन हमारे आंदोलन से जुड़े दीगर फैक्ट्रियों और कर्मचारियों के संघों के वरिष्ठि नेताओं को मालिकों की करतूतों का खासा अनुभव था। उन्होंहने ऐसे कई मामला खुलासा बताते हुए बताया कि हालांकि ऐसा नहीं होना चाहिए था, लेकिन जो भी हो, मामला अब हिंसक हो चुका है। अब अगर इन बंधकों को छोड़ दिया गया तो आंदोलन हार जाएगा। इसमें अब खैरत ही बात की है कि दबाव लगातार बनाये ही रखा जाए। हुर्रे, हम जीत गये। कांपते सुब्रत राय का ऐलान:- आपकी सारी मांगें मंजूर subodh-nath-sahara-india-subrat-rai-hadatal-nukkad-natak-press-manjur

हम लोगों ने स्पाष्टख जवाब दे दिया। सुबोध नाथ हारे जुआरी की तरह लौट गये। लौटते वक्त उन्हों ने प्रेस परिसर की ओर एक मार्मिक और करूणा-भरी नजरें डालीं, जहां हम लोगों ने सुब्रतराय के भाई जयब्रत राय, ओपी श्रीवास्तव और अखिलेश त्रिपाठी जैसे करीब पचास लोग बंधक बनाया गया था। कमाण्ड आफिस मरघट की तरह तब्दील हो चुका था। लुटे-पिटे अंदाज में सुबोध नाथ कमांड आफिस लौटे।

उधर हम लोग राम-सेना के हनुमान और वानर-सेना की तरह लगातार हुंकार भर रहे थे। लाउडस्‍पीकर लगा कर नारे लगाये जा रहे थे। क्रांतिकारी गीतों से पूरा माहौल गुंजायमान हो रहा था। जोश बेहिसाब था। हर मजदूर की हर सांस में जिजीविषा, हर पल हौसलों की लहर, हर कदम मे जीत, हर धड़कन में जीवन्तरता।

पौन घंटा हुआ, हांफते सुबोध नाथ फिर लौटे। मंच के पास हम सब से बातचीत की। हम लोगों ने हमारे आसपास जुटे मजदूरों के बीच रास्तां बनाया और सुबोध नाथ को कमर से सहारा देते हुए मंच तक चढ़ा दिया। सुबोध नाथ की आवाज फंस रही थी। बुरी तरह। कहना कुछ चाहते थे, आवाज निकल रही थी कुछ और। गों-गों घों-घों की तरह। समझ में ही नहीं आया। अचानक एक समझदार साथी ने एक ग्लास पानी सुबोध नाथ को थमाया। सुबोध जी शायद इसी की प्रतीक्षा में थे। गटगटा लिए ही एक ही सांस में। फिर खांसा-खंखारा। और बोले:- आप सब की मांगें मान ली गयी हैं। अब इसी वक्त से प्रेस की हड़ताल खत्म  कर काम पर लौट आइये। सहारा के सारे बंधकों को रिहा करने की कृपा कीजिए।

अब तक खामोश रहे मजदूरों ने एक जबर्दस्त हुंकार भरी:- “जो भी फैसला हो, लिखित चाहिए।”

“मैं आप सब के साथ प्रेस में चल रहा हूं।” सुबोध नाथ ने जवाब दिया, “वहीं पर आपको लिखित दे दूंगा।”

इतना शोर।

बाप रे बाप।

लगा, कि किसी विशाल मैदान में हजारों-लाखों सिंह-व्याघ्र एकसाथ दहाड़ रहे हों।

दोस्‍तों। मेरा मानना है कि जीत के लिए बेहद परिश्रम की जरूरत होती है, और जीत का उल्लास इसी तरह मनाया जाता है। अगले कई हफ्तों तक हम लोगों ने जश्‍न मनाया।

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