शोले के जय-बीरू हैं सुप्रीम कोर्ट वाले प्रशांत भूषण ?

दोलत्ती

: अवमानना कार्रवाई हैरतनाक, चर्चित और विवादित भी : आरोप था कि सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश जज भ्रष्‍ट : शोले के नये कथानक में तब्‍दीली भी मुमकिन :

कुमार सौवीर

लखनऊ : शोले फिल्‍म में अमजद खान बने थे गब्‍बर सिंह, जबकि बीरू थे धर्मेंद्र और जय बने थे अमिताभ बच्‍चन। उसमें अमजद खान का एक मशहूर डॉयलॉग था:- गांववालों। तुम्‍हें गब्‍बर के घोड़ों की टाप से अगर कोई बचा सकता है, तो वह है सिर्फ गब्‍बर सिंह। और इसके बदले में अगर हमारे लोग तुमसे थोड़ा अनाज ले लेते हैं, तो क्‍या कुछ गलत करते हैं ? मैं तो कहता हूं कि कुछ भी गलत नहीं करते हैं।

ठीक 45 बरस पहले फिल्‍म आयी थी शोले। गोल-गोल घूमते और हिनहिनाते घोड़े पर घूम-घूम कर निकलती गब्‍बर सिंह की गबरू आवाज के दौरान दर्शक दिल थाम कर सहमे से रहते थे। गजब आतंक दिखाया गया उस फिल्‍म ने। उस दौरान सड़कों पर लाउडस्‍पीकर पर लोग जब उन डायलॉग को बजाना शुरू कर देते थे, तो सड़क ही थम जाती थी, भीड़ लग जाती थी। हर शख्‍स की जुबान पर सिर्फ गब्‍बर की ही आवाज गूंजा करती थी। चाहे वह जुझारू और कानून का सच्‍चा इंस्‍पेक्‍टर के पूरे खानदान को मार डाल कर उसके दोनों हाथों को काट देने का हादसा हो, निर्दोष अंधे रहीम चचा के बेटे का दर्दनाक कत्‍ल हो, अबला बसंती को सरेआम नचाने वाला किस्‍सा हो, या फिर पूरे गांव से अनाज लूटने की हरकत हो, पूरी फिल्‍म दर्शकों को दम साधे बांधे रखती थी।

दरअसल गब्‍बर सिंह को फिल्‍म में आतंक का पर्याय के तौर पर पेश किया था। लेकिन करीब ढाई घंटे की इस फिल्‍म में गब्‍बर सिंह को जिस तरह जय और बीरू ने धोया था, उससे बुराई के खिलाफ अच्‍छाई की जीत का दशहरा जैसा माहौल बन गया। वह जय-बीरू, जो खुद ही समाज में कलंक हैं। धोखाधड़ी, जेल तोड़ने वाले, सरेआम दारू पीकर हंगामा करने वाले बदमाश प्रवृत्ति के लोग हैं। लेकिन इसके बावजूद उनके दिल धड़कता है। इसीलिए मालगाड़ी में घायल हो कर बेहोश इंस्‍पेक्‍टर को अकेला नहीं छोड़ते, बल्कि इंस्‍पेक्‍टर को अस्‍पताल पहुंचा देते हैं। भले इसके लिए उन्‍हें फिर जेल जाना पड़ जाए। और फिल्‍म के अंत में जय तो मर जाता है, जबकि सुखांत पहलू यह कि गब्‍बर समेत उसका पूरा गिरोह खत्‍म होता है।

कुछ इसी तर्ज में है आजकल न्‍यायपालिका का माहौल है। हालांकि विधि विशेषज्ञों की बातचीत में इस ताजा शोले फिल्‍म के कथानक में पात्रों का चयन अलग-अलग तरीके से किया जा रहा है। माना जा रहा है कि इस नये न्‍यायिक जगत के कथानक में तब्‍दीली भी आ सकती है। इसमें गब्‍बर सिंह जीत भी सकता है, और गांव में आतंक का नया भयावह इतिहास दर्ज करना शुरू हो सकता है। हो सकता है कि बसंती के साथ धन्‍नो भी सरेआम नाचने पर मजबूर की जाए। बीरू भी मर जाए, और इंस्‍पेक्‍टर का पैर भी काट लिया जाए। सूरमा भोपाली एक नये किरदार में आ सकता है, और ठाकुर की विधवा बहू से गब्‍बर सिंह ही शादी कर ले।

लेकिन असल झंझट तो इस बात पर है कि इसमें जय-बीरू कौन बनेगा। कई लोगों के मुताबिक ऐसी दावेदारी तो प्रशांत भूषण के पक्ष में ही मानी जा रही है। मगर विरोधियों का कहना है कि प्रशांत भूषण खुद ही कई आरोपों में घिर चुके हैं। कई लोग कहते हैं कि जो कुछ भी हो रहा है, वह प्रशांत भूषण अपने पक्ष में बुनने के लिए ही प्‍लान कर रहे हैं, और उनके इतिहास में भी काफी धब्‍बे हैं। बेईमानी भी एक बड़ा आरोप माना जा रहा है प्रशांत भूषण के खिलाफ। लेकिन प्रशांत भूषण के पक्ष में पैरवी करने वालों के तर्क भी हैं। उनका कहना है कि प्रशांत ने विधि के क्षेत्र में अपनी अनूठी छाप बनायी है। करीब पचास मामलों में प्रशांत की दलीलों ने फैसलों को मील का पत्‍थर साबित कराया। पक्षकारों के मुताबिक इस वक्‍त प्रशांत भूषण का युद्ध जजों की ईमानदारी और बेईमानी के द्वंद्व को लेकर है, जिसमें प्रशांत सत्‍य के पैरोकार बने हुए हैं।

कुछ भी हो, आशंकाओं के बादल खासे गहरे हो चुके हैं। लेकिन जिस तरह सन-09 में सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण के बयान को अवमानना की आनन-फानन कार्रवाई शुरू की गयी, वह अपने आप में खासा हैरतनाक ही नहीं, चर्चित और विवादित भी हो चुका है। जिस तरह आरोपों का दौर शुरू हो गया है, उसे देखते हुए इतना तो जरूर है कि इस बार न्‍यायपालिका खुद कठघरे में फंसी दिख रही है।

प्रशांत भूषण ने सन-09 में बयान दिया था कि सुप्रीम कोर्ट के आधे से ज्‍यादा जज भ्रष्‍ट और बेईमान हैं। सवाल उठ रहा है कि आखिर उसके 11 बरस बाद सुप्रीम कोर्ट ने अचानक इतनी तेजी कैसे दिखायी। वह भी तब, जब कोरोना-काल में अधिकांश मामले लम्बित हैं, वीडियो कॉलिंग से सुनवाई की प्रक्रिया जस तस हो रही है। मामले की सुनवाई करने वाले तीन जजों की बेंच के अध्‍यक्ष जस्टिस अरुण मिश्र दो सितम्‍बर-20 को रिटायर हो रहे हैं। ऐसे में अर्जेंसी क्‍या है। वैसे भी बेंच पर भी सवाल हैं कि अरुण मिश्र तीसरे नम्‍बर पर जज हैं, जबकि बीआर गवई 18 और कृष्‍ण मुरारी 28 वें क्रम में जज हैं। इतना बड़ा अंतर भी कानून के जानकारों की नजर में संदिग्‍ध दिख रहा है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस मामले में देश के सर्वोच्‍च न्‍यायाधीश शरद अरविंद बोबडे भी चर्चा में आ गये हैं। चर्चाएं हैं कि बोबड़े के इशारे में ही अरुण मिश्र ने प्रशांत भूषण के मामले की आनन-फानन सुनवाई शुरू की है। माना जा रहा है कि पिछले दिनों प्रशांत भूषण ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया द्वारा नागपुर में एक बाइक की सवारी की फोटो जिस तरह प्रकाशित की है, उससे न्‍यायाधीशों के पांव ही उखड़ने लगे थे।

सवाल उठा कि संकट में पड़े न्‍याय-कर्म की धीमी चाल को छोड़ कर प्रधान जज क्‍यों नागपुर चले गये, और किस तरह उन्‍होंने एक भाजपा नेता की पचास लाख रुपयों की कीमत वाली अमेरिकन बाइक किसी फिल्‍मी हीरो की तरह चलाया और बाकायदा फोटो सेशन भी कराया। उस दौरान चीफ जस्टिस ने न तो हेलमेट पहनी और न ही कोरोना-मास्‍क पहना। इतना ही नहीं, इस पूरे दौरान वे एक टीशर्ट में ही रहे। इस पर हंगामा हुआ।

बेहतर तो यह होता कि सर्वोच्‍च न्‍यायाधीश भाजपा कार्यकर्ता की बाइक चलाने के लिए नागपुर जाने के बजाय कोरोना-काल में उपजे भयावह न्‍यायिक-संकट के समाधान के लिए कोई ठोस रास्‍ता खोजते। परिवार का मुखिया होने के चलते उनकी यह प्राथमिक जिम्‍मेदारी थी, न कि टीशर्ट में बाइक का फोटो-सेशन कराना।
बहरहाल, मीडिया और खास कर कार्टूनिस्‍टों ने इस पर खूब चुटकियां ली हैं।

मगर छीछालेदर तो पूरी न्‍यायिक-व्‍यवस्‍था की हो रही है न। वह भी अपूर्णीय। न्‍यायिक इतिहास में इस हादसे को बेहद घिनौने अक्षरों में देखा जाएगा।

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