: अरे यह पिछले महीने की फोटो है, जब मैं काठमाण्डू गया था : पशुपतिनाथ मंदिर के बाहर ही भेंट हो गयी महादेव की शिव-शंकर की : शिव ने महादेव को जी-भर दुआएं दीं, और भोलेनाथ ने भी आशीष लुटाने में कोई भी कंजूसी नहीं की:
कुमार सौवीर
काठमाण्डू : कुछ बरस पहले नेपाल में हुए जबर्दस्त भू-डोल में जन-धन के भारी विनाश-विध्वंस के बाद पिछले महीने ही मैं पशुपतिनाथ मंदिर गया। हालांकि अभी तक मंदिर और आसपास के इलाकों में काफी-कुछ मलबा और ध्वंसावशेष पसरा हुआ है, लेकिन मंदिर फिलहाल सुरक्षित है। ठीक उसी शैली में, जैसे केदारनाथ घाटी में आयी विनाशकारी बाढ़ के बावजूद केदारबाबा का मंदिर पूरी तरह सुरक्षित बचा रह गया।
पीतल के विशालकाय नंदी से बातचीत करने के लिए मैं अभी बढ़ ही रहा था, कि अचानक कानों में किसी विह्वल-स्वर सुनायी पड़ा :- अरे भोलेनाथ ! जन्म-जन्मान्तरों से आपकी प्रतीक्षा करता रहा हूं। और आप तो यहीं साक्षात दिख गये।
मुड़ कर देखा, तो पाया कि साक्षात शिव मेरे सामने हैं। व्याघ्र-चर्म की डिजाइन वाले मारकीन-लटठे वाले कपड़े से लिपटे, हाथ में त्रिशूल, जटा में चंद्रमा और कांधे पर डमरू से सजे-धजे शिव जी मेरे सामने खड़े थे। ऊपरी छटा नीली थी। देखते ही मैं समझ गया कि समुद्र-मंथन के बाद जो विष निकला था, उसी को पीकर उनकी यह दशा हुई है। जहर का रंग असर दिख रहा था। चाहे कुछ भी हो जाए, शिव अपनी आदत से बाज नहीं आ सकते। शिव-शंकर की इसी चमत्कारिक-विधा को ही तो खूंटा-आसन कहा जाता है। है कि नहीं ?
मेरी नजर पड़ते ही वे उद्विग्न हो गये। खुद पर विश्वास जमाने की प्रक्रिया में उन्होंने अपनी आंखें मिचमिचायीं। भरोसा जम गया तो, लपक कर उठ पड़े, और मेरी ओर बढ़े। गति काफी धीमी थी। कारण था लंगड़ापन, जिसके चलते वे बैसाखी में सरक-सरक कर चल रहे थे। मेरी ओर बढ़ते वक्त उनकी गति तेज थी, इसलिए वे अजीब से डगमग से लुढ़कते दिख रहे थे। मैं समझ गया कि जोरदार खतरा आसन्न है। पास आते ही उन्होंने बैसाखी छोड़ दी और मेरी ओर किसी कटे विशालकाय पेड़ की तरह धड़ाम से गिरते-टाइप लिपट गये। धड़ाम की आवाज और उसकी प्रतिध्वनियां
बोले:- भोलेनाथ। आपकी प्रतीक्षा में ही तो बैठा हूं।
और मैं तो सिर्फ आपसे मिलने आया हूं। सोचा था कि आपके मंदिर के बाहर बैठे नंदी से पहले मुलाकात कर लूं, फिर अंदर जाकर आपसे गल-बंदी करूंगा। लेकिन आप तो यही बाहर ही दिख गये।
दिखे नहीं भोलेनाथ, दौड़ा-दौड़ा आया हूं। कई युगों-जन्मों पहले ही इलहाम हो गया था मुझे, कि आप आने ही वाले हैं। सोचा आपका दर्शन कर अपना जीवन धन्य कर लिया जाए। आप दिख गये, जीवन धन्य हो गया। चरण कहां हैं आपके प्रभु ?
आपके ही चरणों में ही तो हूं। हम-आप कहीं अलग-अलग तो हैं नहीं। एक-दूसरे में आत्मसात किये हैं, जब से सृष्टि की रचना की हमने-आपने।
धन्य हो भोलेनाथ महादेव, तुम धन्य हो।
चलो, यह पुण्य-भूमि है। मैं मोक्ष-दायिनी काशी रह कर यहां आया हूं। चलो अब यहीं बैठ कर समवेत शिव-स्त्रोतम का भाव-दर्शन किया जाए।
वह क्या है महादेव ?
अरे तुम शिव-शंकर हो, या बिलकुल्लै बकलोल ?
क्या हुआ लोकनाथ ? कोई भयंकर त्रुटि हो गयी है क्या ?
नहीं। मूढ़ता का मकड़-जाला दिख गया। खैर, तो ऐसा करो कि बदरी नाथ पधारो। डुबकी लगाओ वहां के गरम कुण्ड में और वहां विष्णु का विग्रह खोज कर निकालो। इसके बाद ही भज-गोविंदम का लाभ मिलेगा।
लेकिन यह बदरी-क्षेत्र द्वादश ज्योतिर्लिंगों में तो समाहित है नहीं। मुझे तो शिव-साकार समझना है महादेव।
तो जाओ साक्षात शिव-लिंग को समझना हो तो सीधे अस्सी और वरूणा वाली वाराणसी जाओ। वहां एक प्रतापी कवि है स्वर्गीय चकाचक बनारसी। उसके शिव-कवित्त को आत्मसात करो।
बनारस। नाम तो सुना है, लेकिन जाना नहीं हो पाया वहां।
जाओ तो, वह अवैध सन्तानों की नगरी है। कई महान अवैध संतानवाद के लिए विश्वविख्यात क्षेत्र है काशी। क्या राजनाथ तिवारी, क्या योगेश गुप्ता, क्या एके लारी, क्या तिरलोचन सास्तरी, और क्या अवधराम पाण्डे। डॉ गौतम भी यहीं मिल जाएंगे। अमर उजाला बरेली वालेे प्रदीप मिश्र यही आ धड़ाम हो चुके हैं। वहां के चरण-उत्पाद से ही लाभान्वित होकर शेखर त्रिपाठी दिल्ली में और डॉ उपेंद्र पाण्डेय चंडीगढ़ में महान आसनों में आसीन हैं। तुम भी जाओ, और आकर काशी में आकर करो लारा-लप्पा। जीवन धन्य हो जाएगा, वरना सारा कुछ दक्खिन।
मैं समझ नहीं पाया महादेव ।
कोई बात नहीं। जो नहीं समझ सकते हैं, उनके लिए ही तो रखा है घण्टा। जाओ यहीं बाबा जी का घण्टा बजाओ।
तो फिर कुछ जलपान हो जाए प्रभु। आपके नाश्ता के लिए।
आपने कुछ खाया ?
अब तक तो कुछ नहीं मिला।
देखा, यह कलियुग है। ढेरों भक्त दिख रहे हैं यहां। लेकिन यह सब के सब नये दौर के भक्त हैं। बाबा जी का घण्टा बजा देंगे, पुजारियों को गदगद करा देंगे, लेकिन साक्षात शिव से बिदकते हैं। कहेंगे कि यह नंगा अवधूत है, अघोरी है।
सच कह रहे हैं आप महादेव। मुझे भी ऐसा ही लगता है।
अब तो धतूरा और बिल्व-पत्र तक की औपचारिकता नहीं करता है। अधिकांश को तो इतनी भी तमीज नहीं कि धतूरा का फल और रूद्राक्ष में क्या फर्क होता है। यहां आने वाले भक्त साले बहुत काइयां होते हैं। डायरेक्ट काजू की बरफी लेकर भारी डब्बा लेकर शिवलिंग के पास जाएंगे, वहां डबलू-ढकेल टाइप पुजारी उस डिब्बा-ग्रस्त प्रसाद को शिव के लिंग-आकार का स्पर्श करायेगा, गुण-दोष के आधार पर उनके कई पीस झटक लेगा, भारी-भरकम दक्षिणा लेगा, आश्वासन देगा। ठोस कुछ नहीं। लेकिन हम लोगों को एक रोम-कण तक नहीं देगा। कई बार अपने पोर्टल में लिख चुका हूं कि …
पोर्टल ? मैं आपका अभिप्राय नहीं समझ पाया भोलेनाथ।
पोर्टल, मतलब नारद-गिरी वाला पत्रा। तो इस नारद-पोर्टल का नाम है मेरी बिटिया डॉट कॉम। कई बार अनुरोध कर चुका हूं कि अबे भूत-प्रेतों, आओ मुझे कुछ भिक्षा दे दो। लेकिन चंद लोग-लोगनियों को छोड़ कर बाकी ससुरे कन्नी काट कर मड़ुआडीह या दालमंडी में जा छुपते हैं, लेकिन हमें धेला तक नहीं देते।
लेकिन मुझे तो भूख लग गयी है महादेव।
शिव-उपासना से जुड़े विभिन्न आयामों पर
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मैं पहले ही समझ चुका था कि यह शिव भी मेरी तरह ही लंगड़ा है, लेकिन उसका लंगड़ापन चूंकि ज्यादा था। अक्षम है। अक्षमता ही तो असली ताकत होती है, वरना हर शख्स शिव होता है। हां, अधिकांश को पता ही नहीं होता कि वह कितना शक्तिशाली शिव है। खैर, मैंने अपनी जेब में पड़े चंद नोटों को टटोला, पाया कि बीएसएफ वाले जनार्दन यादव से मिले रूपयों में से केवल सात सौ रूपये बचे हैं। सो, कांस्य-रंगत वाला इकलौता पांच सौ रूपयों का कागज का टुकड़ा इस शिव की जेब में ठूंस दिया। चुपचाप।
उसने मुझे आशीर्वाद दिया, और मैंने उसे जी-भर कर आशीष दी। वायदा किया कि जल्दी ही फिर मिलने आऊंगा।
अगली बार नंगे नंदी को खंगालूंगा।
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