तीन तलाक़: तथाकथित प्रगतिशील समाज की चुप्पी अफसोसनाक

सैड सांग

: मर्दवादी समाज में घिनौने मजहबी कानूनों की शिकार हैं हजारों बेहाल औरतें : अब तो इस कट्टर समाज को सबक ही सिखायेंगी आज की पढ़ी-लिखी महिलाएँ : जब चाहतें हैं तो हल्‍ला कर देते हैं शरीयत के नाम पर मुल्‍ला और मौलवी :

अवनीश पीएन शर्मा

कोलकाता की इशरत जहाँ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके इस्लाम धर्म में बहु-विवाह, तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी व्यवस्थाओं को चुनौती दी है। उसके पति ने 2001 में विदेश से फोन पर तीन बार तलाक कहकर सब कुछ खत्म कर दिया और बच्चे भी ले लिये…. मर्दवादी समाज में ऐसे घिनौने मजहबी कानूनों की शिकार हजारों औरतें मिलेंगी।

कुछ साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के एक दिलचस्प फैसले से गम्भीर विवाद खड़ा हो गया था। खातून निसा नामक औरत के पति ने भूमि हदबन्दी कानून से अपनी जमीन बचाने के लिये उसे तीन बार तलाक कहकर तलाक दे दिया। इस तरह बीवी के हिस्से में जमीन बँट जाने से रहमतुल्ला की जमीन सीलिंग से बच गयी। लेकिन इसके 25 साल बाद न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने इस तलाक को अमान्य करार दिया। इस तरह 25 साल पहले हुआ तलाक भारतीय संविधान के तहत अवैध माना गया और “तीन तलाक” पर व्यापक बहस खड़ी हो गयी…!तब भी मुल्ला मौलवियों ने इस फैसले का विरोध इस आधार पर किया था कि यह शरीयत में दखलंदाजी है।

आज परिवार के भीतर की तानाशाहियों को तोड़ने का वक्त आ गया है। यह सिर्फ परिवार का मामला नहीं है, बल्कि यह पूरी संस्कृति का मामला है… स्त्री की नियति पूरे समाज की नियति के साथ गुंधी हुई है। महिलाओं की गुलामी की जंजीरें मर्द, पूंजी और मजहब/धर्म के हाथों में है। इस सिलसिले में शाहबानों केस का उदाहरण भी हमारे सामने है। शाहबानों सुप्रीम कोर्ट से तो मुकदमा जीत गयी थी, पर कट्टर समाज से हार गयी थी। इस विवाद के दौरान पारम्परिक समाज पूरी कट्टरता से उसके पीछे पड़ गया। अंत में शाहबानों न सिर्फ पराजित हुई, बल्कि समाज सुधार का केंद्र समझी जाने वाली संसद ने इतनी कठिन लड़ाई के बाद हुई उपलब्धि को छीनते हुए एक प्रतिगामी कानून पास कर दिया….! इन पेचीदा स्थितियों में राज्य और देश की संस्थाएँ भी पुरुषवादी मानसिकता से ही काम लेती हैं, क्योंकि वहाँ भी बहुसंख्यक तो पुरुष ही हैं..।

अब वक्त बदल चुका है। आज महिलायें अपने साथ होने इस अत्याचार और शोषण को बखूबी पहचान चुकी हैं और एकजुट हो रही हैं, फिर भी पुरुषप्रधान समाज के आगे उनकी जीत आसान नहीं लगती! अफसोस है कि आधुनिकतावादी मुसलमान भी उसी तरह का तर्क दे रहे हैं, जिस तरह मुल्ला मौलवी देते रहे हैं। यही वक्त है, महिला संगठनों के सक्रिय होने और नया कानून पास कराने का…!

हार हो जीत… मायने रखती है सिर्फ जंग! मुसलमान औरतों का कारवाँ तो चल ही पड़ा है, गैर बराबरी वाले मजहबी कानूनों के खिलाफ… देर अबेर इंसाफ तो करना ही पड़ेगा न्यायाधीशों को… बाकी कट्टरवादी समाज को ये आज की पढ़ी-लिखी महिलाएँ खुद ही सम्भाल लेंगी……! अब वक्त बदल चुका है।

अवनीश पी एन शर्मा का यह लेख makingindia.co में प्रकाशित हो चुका है।

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