छिछोरे लफंगों से कम नहीं हैं यह वरिष्‍ठ पत्रकार

सैड सांग

: नौकरी छोड़ने पर इस पत्रकार ने भेजी एक कड़ी चिट्ठी : रश्मि का टर्मिनेशन गम्‍भीर सवाल उठाता है, गजेंद्र अवसाद में : एग्जिट इंटरव्यू में लिखा कि नौकरी न छोड़ी, तो उसकी मौत हो जाएगी : लांछन सब पर, पूरा क्रेडिट खुद लेने की साजिशें अखबार को नष्‍ट करेंगी : मासिक-धर्म- दो :

मेरी बिटिया संवाददाता

नई दिल्‍ली : (गतांक से आगे) राजुल सर, क्या हम लड़कियां इसलिए रिक्रूट हो रही हैं?  क्या यह संस्थान की प्रमाणिकता पर धब्बा नहीं लगाता?

मेरे सीनियर गजेंद्र जी तो संपादक जी के व्यवहार के कारण अवसाद में चले गए थे, जिसका उन्हें इलाज कराना पड़ा। बाद में अच्छा अवसर मिलने पर इस्तीफा दे गए। यहां भी विनीत जी ने खेल किया, इस्तीफे की बात पूरी टीम से छुपाकर रखी, आरबी लाल जी , अनूप जी , शशांक जी और  अशोक वैश्य जी से प्रचारित कराया कि गजेंद्र डरकर भाग गए, बिना सूचना दिये! उन्हें भगोड़ा तक कह गया! एक बार गजेंद्र जी से हो रहे बर्ताव पर मैंने अपनी बात रख दी थी तो  मेरे पीछे मुझे उनकी ‘सहेली’ बता दिया गया। ये बहुत ही हल्की बातें हैं पर शायद वे इसको भी तर्कों से ढंक सकते हैं।

बहुत ही योग्य व्यक्ति चीफ सब नीरज श्रीवास्तव जी को भी जूनियर्स के सामने बहुत प्रताड़ित किया गया, वो झुके नहीं तो साइड लाइन कर दिए गए।  कागज़ मजबूत रखने को वो दो डाक के हेड थे पर वास्तविकता में उनसे उस टीम में जूनियर के साथ बैठाकर काम लिया गया, जिस पूरी टीम के वह दो साल तक वह क्लस्टर हेड रहे।

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पत्रकार पत्रकारिता

इंटर्न से ट्रेनी तक का मेरा सफर बहुत आदर्श और सीख भरा रहा। पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में कोई भी एक जुनून के कारण आता है, वह पनपता तब ही है जब उसके जोश में पत्रकारिता के सिद्धांत और व्यवहारिक हालात बताते हुए तपाया जाए, उससे खबरों पर बात की जाए। उसे समझने, लड़खड़ाकर फिर उठने का समय दिया जाए। दो साल ट्रेनी रहने के दौरान मुझे मॉड्यूल के मुताबिक हर चरण में हर बात सिखाई गयी। मैं खुद को लकी मानती हूँ इस माहौल के लिए।

उदय सर आपको शायद ही याद हो पर मैंने आपको बताया था कि मेरे लिए दो साल कितने महत्वपूर्ण रहे । इंटरव्यू के दौरान मुझे प्रेरित करने को आपने अपने शुरुआती दौर के अनुभव बताकर मुझसे ऐसे ही मेहनत करने को कहा। आप बोले कि मुझमें आपको भविष्य का संपादक दिख रहा है। किसी भी फ्रेशर की तरह यह सुनना और वह इंटरव्यू मेरे जीवन के लिए ख़ास बन गया। पर अगर संपादक विनीत सक्सेना जैसे होते हैं तो मैं कभी नहीं चाहूँगी कि मैं यह बनूं।

जुयाल सर और उस समय के सभी वरिष्ठ साथियों ने जो माहौल दिया, उसके लिए मैं खुद को लकी मानती हूं। पर सर्वेश लकी नहीं रहा, करियर के शुरुआती दौर में उसे निराश होकर इस्तीफा देकर जाना पड़ा। उसकी ट्रेनिंग में कोई मॉड्यूल का पालन नहीं हुआ, वो मेहनती था, जल्दी समझ लेता था तो उसे जोत दिया गया। उसे प्रेशर हैंडल करने गिरने और संभलने का मौका ही नहीं मिला। इस बीच उसने उदय सर आपको कॉल और लिखित में हालात भी बताए। रश्मि जी को अचानक टर्मिनेट किये जाने और ऑफिस की मुर्दा चुप्पी से वह बहुत टूट गया। उसे शशांक वर्मा ने बाकायदा निकलवा देने की धमकी दी। वो किस हाल में पहुंच गया था यह समझने के लिए इतना ही काफी है कि उसने अपने एग्जिट इंटरव्यू में लिखा कि अगर कुछ दिन और यहां काम किया तो उसकी मौत हो जाएगी! मुझे नहीं पता एचआर को यह कितना गंभीर मामला लगा हो? पर ट्रेनी बैच में मेरा जूनियर होने के नाते मेरे लिए यह बेहद निराशाजनक था। मैं समझती हूँ कि अगर किसी ट्रेनी को इतना सहकर जाना पड़े तो यह किसी भी संस्थान के फेल होने की स्थिति है।

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सुरमा वाले बरेली का झुमका

रश्मि जी के साथ क्या हुआ और क्यों हुआ , इसकी असलियत से सब वाकिफ़ हैं। मैं सिर्फ इतना समझना चाहती हूँ कि क्या संस्थान में व्यक्तिगत हित साधना इतना आसान है?

विनीत सक्सेना ने दो लोगों को चमचा बना दिया, अनूप शर्मा और शशांक वर्मा। दोनों कभी ऐसे नहीं थे, यह मेरा नहीं सबका अनुभव है। ऐसा लगता है कोई गलाकाट प्रतियोगिता चल रही है, दोनों जानते हैं कि दूसरों को नहीं काटा तो खुद मारे जाएंगे। विनीत सक्सेना जब कभी बरेली से जाएंगे तो इस दोनों को कोई स्वीकार नहीं कर पायेगा। खुद को अमर उजाला में ह्यूमन रिसोर्स क्लीनर की भूमिका में मानने वाले विनीत सक्सेना फक्र से बताते हैं कि उनके आने पर छटनी होती है। वह हर टीमवर्क का क्रेडिट खुद लेते हैं, कहते हैं कि सिर्फ एक दो स्ट्रिंगर से पूरा अखबार निकल सकते हैं, उन्हें अमर उजाला की पद व्यवस्था में विश्वास नहीं। गाड़ी से ज़रूरी पहिये निकाल लिए जाएं तो क्या गाड़ी चल सकती है? क्या नोएडा कार्यालय का वर्क कल्चर भी यही है, क्या वहां भी अवकाश की जगह गालियां मिलती हैं,

लड़कियों को रात के दो-दो बजे तक घर अपने रिस्क पर जाना होता है, लड़कियों के बाथरूम जाने के टाइम तक पर नज़र रखी जाती है???  मुझे पता है ऐसा नहीं है पर फिर छोटे शहरों में मनमानी क्यों, यह जानना चाहूँगी। जो भी लोग वहां काम कर रहे हैं सब सिर्फ अपनी-अपनी मजबूरी में। मैं भी मजबूर थी अपने कमिटमेंट से कि जिस संस्थान ने मुझे ज़िन्दगी दी उसे किसी के व्यवहार के कारण भर से नहीं छोडूंगी पर बाद में जो हुआ वो अस्वीकार्य था।

मैंने सोचा था कि जो हो रहा है वो सब आप तक पहुंचता ही है इसलिए कुछ कहने का मतलब नहीं। पर संदेश शायद मोल्ड हो रहे हैं। इसलिये यह लंबा लेटर लिखा है। साथ में वह मेल अटैच है जिसपर स्पष्टीकरण मांगा गया। मैं घुटन से निकल चुकी हूं, जानती हूं कुछ होगा भी नहीं। बस एक विनती है कि वहां बचे लोग अब और न घुटें।

सादर

आपकी ही एक सम्‍पादकीय सहयोगी

(नाम गोपनीय)

नोट:- यह है उस महिला पत्रकार का इस्‍तीफा, जिसमें अपनी नौकरी तब छोड़ी, जब उसे बदतर हालात तक उत्‍पीडि़त किया गया। उस महिला पत्रकार के अनुरोध का सम्‍मान करते हुए हम उसका नाम सार्वजनिक नहीं कर रहे हैं, हालांकि मूल पत्र में इस महिला ने अपना नाम दर्ज किया था। यह अंक में इस पत्र का आखिरी हिस्‍सा दर्ज है। इसके पहले वाले हिस्‍से को पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-

मासिक-धर्म की बात सुनते ही अपना ही धर्म भूल गया संपादक

इस महिला पत्रकार ने तो अपने साथ लगातार होते जा रहे अपमान, और उत्‍पीड़न को एक सीमा तक सहन किया, लेकिन पानी जब नाक से ऊपर जाने लगा तो उसने अपने संस्‍थान के प्रबंधन तक अपनी शिकायत दर्ज की, और उस संस्‍थान को बाय-बाय कर दिया। आपके आसपास भी ऐसी घटनाएं पसरी ही होती होंगी। हो सकता है कि वह उत्‍पीडि़त महिला आप खुद हों, या फिर आपकी कोई सहेली-सहकर्मी अथवा कोई अन्‍य। इससे क्‍या फर्क पड़ता है कि आप किसी अखबार, चैनल में काम करती हैं, या फिर किसी आउटसोर्सिंग या मल्‍टीनेशनल कम्‍पनी की कर्मचारी हैं।

अगर आपको ऐसी किसी घटना की जानकारी हो तो हमें भेजिएगा। नि:संकोच। आपके सहयोग से हम ऐसे हादसों-उत्‍पीड़नों के खिलाफ एक जोरदार अभियान छेड़ कर ऐसी घिनौने माहौलों को मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं। आप हमें हमारे इस ईमेल पर सम्‍पर्क कर सकते हैं। आप अगर चाहेंगे, तो हम आपका नाम नहीं प्रकाशित करेंगे।

kumarsauvir@gmail.com और meribitiyakhabar@gmail.com भी।

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