: एक बेमिसाल शख्सियत वाली डॉ पुष्पावती तिवारी को बेहद हल्के में सिमेट दिया हिन्दुस्तान अखबार ने : पूरी जिन्दगी मिशनरी अंदाज में इलाज किया, आजादी की लड़ाई भी लड़ी : एक मदर टेरेसा सी शख्सियत के सामने अखबार ने खुद को बेहद ओछा साबित कर दिया :
कुमार सौवीर
लखनऊ : बात मां की नहीं, शख्सियतों के मूल्यांकन की है। एक महान महिला का बेहद कमतर रेखांकन किया बेशर्मी पर आमादा हिंदुस्तान अखबार ने। हमारी बातचीत का मुद्दा किसी मां का किसी दूसरी मां के सामने मूल्यांकन का हरगिज़ नहीं है। लेकिन जब शख्सियत के मूल्यांकन की बात चल रही हो, ऐसी हालत में महानतम व्यक्ति को जितने निचले स्तर पर हिंदुस्तान अखबार ने रखा है वह वाकई इस अखबार के संपादकीय दिवालियापन का जीता-जागता प्रमाण है। खासतौर से तब, जब यहां महान व्यक्ति असंख्य परिवारों की गोद भरने के साथ ही साथ लाखों परिवारों और वहां की महिलाओं को निरोग करने का जीवन संकल्प में जुटा रहा हो।
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ताजा मामला है डॉक्टर पुष्पावती तिवारी का मंगलवार को निधन हो गया। तकरीबन 90 वर्ष तक की उम्र में ब्रह्मलीन हुई इस महिला का पूरा जीवन लखनऊ में बीता। मूलतः कानपुर की रहने वाली डाक्टर तिवारी अपने विवाह के बाद से ही लखनऊ में बस गईं और अपने पति के साथ ही आजादी के आंदोलन में जुटी रहीं। उनके पति शंकर दयाल तिवारी भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रदेश सचिव थे। चिकित्सक के तौर पर डॉ पीवी तिवारी हुसैनगंज के उदय गंज क्षेत्र में अपना क्लिनिक चलाती नहीं। अपने व्यवसाय और व्यवहार में बेमिसाल डॉ तिवारी ने आर्थिक रूप से कमजोर तबके की महिलाओं, उनके बच्चों का निशुल्क इलाज तो किया ही, वह वामपंथी आंदोलन से जुड़े लोगों व उनके परिवार का भी मुफ्त इलाज करती रहीं। हां, अपनी आजीविका के तौर पर उन्होंने अपनी फीस बेहद न्यूनतम रखी। इतनी, कि लोग-बाग अपने दांतों तो तले उंगली दबा देते थे। महज दो रूपये प्रति मरीज की फीस।
मंगलवार की देर शाम डॉ तिवारी का निधन कानपुर में एक संक्षिप्त बीमारी के बाद अपनी बेटी के घर हुआ था। 23 नवंबर को डॉक्टर तिवारी की अंत्येष्टि भैंसा कुंड में दी गई। उसके पहले विद्युत शवदाह गृह में सरकार की ओर से पुलिस की टोली ने उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया। इस पूरे दौरान लखनऊ और आसपास के जिलों के कई नामचीन साहित्य का राजनीतिक पत्रकारों सामाजिक मौजूद थे।
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लेकिन हैरत की बात रही कि डॉक्टर तिवारी के निधन व उनकी अन्त्येष्टि की खबर अधिकांश अखबारवालो ने नदारद रखी, जबकि समाजवादी पार्टी से जुड़े नेता, अयोध्या विवाद के वकील जफरयाब जिलानी की माताजी के निधन की खबर जरूर प्रकाशित हुई। हिंदुस्तान अखबार ने डॉ तिवारी से जुड़ी खबर बमुश्किल 7 लाइन में छापी, मगर जिलानी की माताजी खबर को उसके दुगुने से ज्यादा स्पेस छापा गया।
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हम यह साफ कर कर दें कि हमारा मकसद किसी भी मां को किसी दूसरी मां के साथ तुलना कर उन्हें ऊंचाइयां अथवा निचला दर्जा देने का की मंशा नहीं है। मां सिर्फ मां होती है, और इसके अलावा कुछ भी नहीं। लेकिन हमें यह जरूर देखना पड़ेगा कि एक शख्सियत के तौर पर समाचार संस्थानों और पत्रकारों ने इन दोनों घटनाओं को किस तरीके से पेश किया। जाहिर है कि डॉ तिवारी असंख्य परिवारों, निर्बल और आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं और उनके परिजनों के दिलों पर राज करती रही हैं, इसलिए उनसे जुड़ी घटना कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। जबकि जफरयाब जिलानी की माता जी केवल एक घरेलू महिला थीं।
मगर अखबारों-पत्रकारों ने केवल समाजवादी पार्टी के नेता जफरयाब जिलानी का करीबी बनने के चक्कर में इस खबर को तरजीह दी, मगर डॉ पुष्पावती तिवारी के निधन की खबर को गायब कर दिया। हिंदुस्तान अखबार ने तो उन्हें बेहद हवाई अंदाज में पेश किया।