: किसी के चरणों पर दंडवत होते ही अप्रतिम प्रतिभा का क्षरण अवश्यम्भावी : परिचितों में हमेशा याद रहेंगे करमचंद जासूस वाली स्टाइल अडॉप्ट किये सतीश जी :
कुमार सौवीर
लखनऊ : करीब सात दिनों से बुखार-सर्दी के चलते नाक और खांसी के बीच जूझ रहा हूं, कि अचानक सुबह-सुबह खबर मिली कि सतीश शुक्ला का निधन हो गया। यह कोई ऐसी खबर नहीं थी कि एकदम से ही मैं खड़बड़ा पड़ता। पिछले 20 दिनों पहले जब से वे अस्पताल में भर्ती कराये गये थे, तब से ही लग रहा था कि सतीश शुक्ला कभी भी साथ छोड़ सकते हैं। दस दिनों पहले ही वे कृशकाय होकर घर वापस लौट आये थे, लेकिन आज इस खबर ने एक धक्का तो जरूर दिया ही।
सुल्तानपुर और लखनऊ के बीच तक ही उनकी जिन्दगी घूमती रही। डॉक्टर पिता के इकलौते बेटे थे सतीश शुक्ला, लेकिन उन्होंने अपना जीवन वकालत में खोजा, और धूनी लगायी लखनऊ हाईकोर्ट में। ऐसा नहीं कि वे अपने शैक्षिक स्तर पर कोई खास मैरीटोरियस रहे हों, लेकिन उनका लहजा और उनकी पेशबंदियों ने उन्हें नायाब बना डाला। ऐसा भी नहीं कि वे वकालत में कोई बहुत मेधावी रहे थे, लेकिन उनके तौर-तरीकों ही नहीं, बल्कि अपने काम में उनकी लगन ने उनको सनसनीखेज बनाने का रास्ता बुन दिया। किसी भी शख्स को पल भर में गहरे तक प्रभावित कर देने का कौशल उन्हें जन्मजात भी था। बाकी काम किया उनकी शैली ने।
सतीश शुक्ला से मेरी मुलाकात सन-84 में हुई। अब यह तो हर्गिज याद नहीं आ रहा है कि उनसे पहली मुलाकात का माध्यम या कारण कौन था या उस भेंट की घटना कब पेश आयी, लेकिन पहली मुलाकात में ही मुझे लगा कि इस शख्स में दूसरों से बेहतर गूदा है। जाहिर है कि पहली और बाद की मुलाकातों का आधार तो उनका व्यवहार ही रहा था, जो उनकी बातचीत की शैली और आत्मीयता के तंतुओं को बांधने में सहयोगी हुआ करती थी। लेकिन जल्दी ही ऐसे सवालों की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, वजह यह कि सतीश शुक्ला जी लगातार घरेलू और आत्मीय होते जा रहे थे। वे उम्र में बड़े थे, इसलिए मैंने उन्हें बाकायदा भाईसाहब पुकारना शुरू कर दिया। सच बात तो यही है कि हाईकोर्ट के कॉरीडॉर से परिचय कराने में सतीश शुक्ला का ही योगदान था। लोकप्रिय करेक्टर्स के प्रति सतीश जी बहुत जल्दी ही प्रभावित हो जाते थे। मुझे याद है पंकज कपूर ने एक टीवी सीरियल शुरू किया था। नाम था करमचंद जासूस। अगले कई बरसों तक सतीश जी पंकज की शैली में अपने कोट में गाजर भरे रहते थे, और लोगों को पंकज की शैली में गाजर खाते दीखते थे, उसी शैली में अपना हावभाव भी अख्तियार कर लिया था सतीश शुक्ला ने।
इसी बीच सतीश शुक्ला ने हाईकोर्ट के तालाब में एक जोरदार पत्थर फेंका, तो तहलका मच गया। एक के बाद एक नौ जजों पर अदालत की अवमानना का मामला दायर करा दिया सतीश शुक्ला ने, जिसमें दो तो सुप्रीम कोर्ट के जज थे। उस विवाद पर मैंने दैनिक जनसत्ता में एक बड़ी रिपोर्ट भी छापी थी। बहरहाल, जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट से तबादला पर आये एक जज पर तो उन्होंने सरेआम आरोप लगा दिया कि उन्होंने आतंकवादियों के साथ डील करायी थी। तेज-तर्रार शख्स थे सतीश जी। कभी-कभार तो बेहद अक्खड़ और बदतमीजी के स्तर तक भी उतर जाते थे। एक जज से उन्होंने जम्मू-कश्मीर संविधान की प्रति देने से मना कर दिया। गनीमत थी कि बाद में बार और बेंच ने सतीश शुक्ला के बीच चल रहे उस विवाद को शांत करा दिया।
उस दौरान सतीश शुक्ला पर आरोप लगने लगा था कि वे जस्टिस डीएस बाजपेई के इशारे पर काम करते हैं। हो सकता है कि उस चर्चा में कोई दम रहा हो, लेकिन उस इशारे में उनको मिलने वाला द्रव्य की सम्भावनाएं मैंने कभी भी सतीश शुक्ला जी के घर अथवा उनके व्यवहार पर नहीं देखीं। या फिर वे उस चक्की में केवल मोहरा ही बने रहे, पिसते ही रहे। क्योंकि उसके बाद से सतीश शुक्ला में झक्की भाव दिखने लगा था। उसका एक कारण यह भी हो सकता था कि वे अपने जीवन में कोई ठोस सम्पत्ति नहीं जुटा पाये। सिर्फ एक दड़बा जैसा मकान जो रेंट-कंट्रोल से मिला था। सतीश शुक्ला जैसी प्रतिभा को इसमें अपनी हेठी न महसूस हुई होगी, मैं नहीं मानता। लेकिन उसके बावजूद उनके तेवर बरकरार ही रहे। याचिकाओं को बात-बात पर खिल्ली उड़ा कर उसे खारिज कर वकीलों को चिढ़ाने वाली प्रवृत्ति वाले एक जज साहब वकीलों से कहते थे कि जाइये, बड़े दरबार में जाइये। इस पर भरी अदालत में सतीश शुक्ला भड़क गये थे। मुझे याद है जब एक बार मैंने अपनी टोली से सतीश शुक्ला को दैनिक जागरण में विधि संवाददाता बनाने की कवायद छेड़ी थी। उस में भी सतीश जी बहुत मेहनत करते थे। लेकिन उनकी अधिकांश खबरों की शैली अखबार को सूट नहीं करती थी।
अपने काम में बहुत परिश्रम और अध्ययन करते थे सतीश शुक्ला। मैंने देखा है कि सतीश शुक्ला जी अमीनाबाद में प्रदीप श्रीवास्तव ( जो बाद में जस्टिस बने ) के चैम्बर में केस-फाइल तैयार करने वाला काम खोजने जाया करते थे। लेकिन सतीश शुक्ला के अरमान बहुत ज्यादा थे, जबकि क्षमता शायद कम। वे उछालना तो लम्बा चाहते थे, लेकिन उछाल का दम उतना नहीं था। वे कुछ सफल वकीलों की तरह जीवन-शैली अपनाना चाहते थे, लेकिन मुमकिन नहीं था। हालत त्रिशंकु की तरह हो गयी शायद। पारिवारिक तंतु भी कमजोर होने लगे। दरअसल, सतीश शुक्ला जी अपनी असफलता का झगड़ा अपने बेटे से निकालने लगे, और पारिवारिक विवादों का समाधान घर के बाहर। बहरहाल, इसके बाद से ही उनकी सेहत गिरने लगी। कई और बातें और घटनाएं भी हुईं, जो वाकई बेहद जघन्य, घृणित और बेहद शर्मनाक भी हुईं। लेकिन चलिए, उस पर बाद में बात कर ली जाएगी। फिलहाल तो सतीश शुक्ला जी की विदाई कर दी जाए।
लेकिन हां, बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि सतीश शुक्ला बहुत अच्छे गायक भी थे। हेमंत कुमार का गाया एक गीत उनका पसंदीदा था:- ये नयन डरे डरे, ये जाम भरे भरे, ज़रा पीने दो…