सरकार तुम्‍हारी खाला का अड्डा नहीं, निजी मकान है तो खाली करो सरकारी आवास

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: योगी ने दिग्‍गज पत्रकारों का कद घुटनों से बित्‍ता भर काट दिया : सरकारी मकान पर डेरा डाले हैं, अपने मकान में मॉडल-शॉप खोल रखी : अफसरों को भी खाली करना पड़ेगा सरकारी मकान :

कुमार सौवीर

लखनऊ : अखिलेश यादव खुद को पत्रकारों का सबसे बड़ा पैरोकार कहलाते नहीं थकते थे, लेकिन विधानसभा में सरकारी मकानों पर काबिज पत्रकारों वाली व्‍यवस्‍था से उनके मुंहलगे पत्रकारों की छींकें निकल गयीं। अब योगी सरकार ने उन पत्रकारों को उनकी औकात दिखाने की व्‍यवस्‍था कर दी है, जो लखनऊ में निजी मकान होने के बावजदू बड़े मकानों पर काबिज हैं। इनमें से तो अधिकांश ने अपने निजी मकानों का व्‍यावसायिक रूपांतरण भर कर रखा है और उन्‍हें भारी-भरकम किराये पर दे रखा है। कुछ लोगों ने तो वहां मॉल खोल रखा है तो किसी ने मॉडल-शॉप खोल कर दारू की मंडी खोल रखी है।

ताजा आदेश के तहत ऐसे पत्रकारों को अपने चुंगल में दबोचे गये सरकारी मकानों को खाली करना ही होगा। जाहिर है कि इस आदेश उनकी सारी रंगबाजी वाले सपनों को कब्र की ओर रवाना कर दिया है। हालांकि यह आदेश सरकारी कर्मचारियों और अफसरों पर भी समान रूप से लागू होने वाला है, लेकिन सबसे ज्‍यादा मुर्दनी पत्रकारों के खेमे में ही महसूस की जा रही बतायी जाती है।

पत्रकारों को उनकी औकात में लाकर खड़ा करने जा रही है योगी सरकार। खबर है कि उन पत्रकारों से मकान छीन लिया जाएगा, जिनके पास लखनऊ में पहले से ही कोई निजी मकान है। बात तो ठीक ही है। सरकार आपको मकान इसलिए देती है, क्‍योंकि आपके पास आवास की दिक्‍कत है। लेकिन अगर आपके पास निजी मकान है, तो आप दूसरों का हक क्‍यों छीन कर सरकारी आवासों पर काबिज हैं।  खबर यह भी है कि यह आदेश केवल पत्रकारों पर ही नहीं, बल्कि उन सरकारी कर्मचारियों और अफसरों पर भी समान रूप से लागू होगा, जिनके पास पहले से ही लखनऊ में मकान मौजूद है।

सूत्र बताते हैं कि लखनऊ में सरकार के करीब 15 हजार मकान हैं। इन मकानों की व्‍यवस्‍था उप्र राज्‍य सम्‍पत्ति विभाग करता है। इनमें से करीब साढ़े चार सौ सरकारी मकानों पर काबिज हैं पत्रकार। इनमें से कई बड़े पत्रकारों ने अपने रसूख का इस्‍तेमाल करके बटलर पैलेस, गुलिस्‍तां, राजभवन और डालीबाग कालोनी वगैरह इलाकों के बड़े-बड़े मकान हासिल कर रखे हैं। इनमें से कई ने तो अपने इन सरकारी मकानों को कुछ इस तरह तोड़ा-मरोड़ा, संजोया-बनाया और उसमें बुनियादी बदलाव कर रखा है, मानो यह सरकारी मकान नहीं, बल्कि उनके पुरखों की सम्‍पत्ति है, जो उनके वंशजों तक पैत्रिक सम्‍पत्ति के तौर पर हस्‍तां‍तरित होती जाएगी। इन लोगों ने तो उन आवासों में दुनिया भर की सुख-सुविधाओं पर बीसियों लाख रूपयों तक का खर्चा कर रखा है।

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पत्रकार

लेकिन अब यह अलग चर्चा-बहस का मुद्दा है कि इन लोगों के पास इतनी रकम कहां से आयी, कि सरकारी मकानों पर उन्‍होंने इतना खर्चा कर लिया। लेकिन बहस की बात तो यह होनी चाहिए कि क्‍या वाकई यह पत्रकार सरकारी मकान हासिल करने की पात्रता रखते थे। जी नहीं, बिलकुल नहीं। बल्कि इन लोगों में से अधिकांश के पास तो अपना खुद का सरकारी मकान है। और उनमें से भी ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्‍या ऐसे लोगों की है जो सरकार से अनुदान हासिल करके मकान हासिल कर चुके थे। इसके लिए सरकारों ने बाकायदा पत्रकारों की आवासीय योजनाएं शुरू की थीं। मसलन पत्रकार पुरम, पत्रकार पुरम द्वितीय वगैरह-वगैरह।

ऐसे पत्रकार अपने निजी मकानों को तो किराये पर दे कर हर महीना पचासों हजार रूपयों की उगाही कर रहे हैं। कई ने तो उससे कई गुना ज्‍यादा किराया अपने मकानों को व्‍यावसायिक गतिविधियों के लिए लगा दे रखा है। जहां कहीं मॉल खुला है, कहीं डिपार्टमेंटल स्‍टोर तो कहीं बिरयानी-कबाब का रेस्‍टोरेंट। और तो और, कई लोगों ने तो अपने मकानों को मॉडल शॉप के तौर पर भी विकसित कर रखा है। जहां करीब तीन लाख रूपयों तक का किराया वसूला जाता है। पत्रकारपुरम के वे सारे मकान जो सड़क से सामने हैं, व्‍यावसायिक गतिविधियों में लिप्‍त हैं।

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उजड़े चमन

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