सरकार ! कोरोना पर लगाओ निजी अस्पतालों-स्कूलों को

दोलत्ती

: सबसे बडी राष्ट्रीय नहीं, वैश्विक आपदा : बीमारों को अस्पताल, घर लौटती भीड को जबरन क्वारेंटाइन हेतु निजी स्कूलों पर कब्जा ले सरकार :
कुमार सौवीर
लखनऊ : कोरोना ने पूरी दुनिया को दहला दिया है। गरीब तो दूर, विकसित देश भी मौत से दो:चार हैं। हर ओर मौत का नाच चल रहा है। भारत में सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता के सवाल पर तो बाद में चर्चा होती रहेगी। सरकारी एजेंसियों की पोल तो लगातार निर्वस्त्र होती जा रही है। लेकिन सबसे पहले तो जरूरत इस बात है कि मौत की दहलीज तक पहुंच चुके नागरिकों को कैसे बचाया जाए। और उससे भी ज्यादा जरूरी सवाल तो यह है कि इस भयावह संक्रामक महामारी से बाकी नागरिकों और दुनिया को कैसे बचाया जाए।
दो सवाल हैं। एक तो कैसे संक्रमण रोका जाए, और कोरोना से चपेट में आ चुके लोगों का इलाज कैसे हो?
फिर तो इस वक्त बीमार या बीमारी की कगार पर खडे होने वाले देश के सवा सौ करोडों नागरिकों को लाशों में तब्दील नहीं होने देने के लिए क्या किया जाए, यह सवाल तो भूख से मरने वालों की हालत से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बन चुका है। हमारे सरकारी अस्पताल और वहां की सुविधाएं ऐसी बिलकुल भी नहीं, जो इस भयावह हादसे का एक छोटा सा भी हिस्सा वहन कर पायें। अब तक सरकार ने जो भी इस मसले पर किया, वह जाहिर है कि अगर पूरी तरह पर्याप्त होता, तो यह हालत इतनी बदतरीन न हो पाती। लेकिन उसके बावजूद सरकार अपनी संभव गुंजाइशों पर काम कर रही है।

उस पर तुर्रा यह कि प्रशासन और पुलिस संगठन से जुडे लोग अभी भी अपनी पुरानी सरकारी ढर्रे से उबर नहीं पा रहे हैं। उन्हें अभी भी इस हालत में बेहाल नागरिकों की जान बचाने के बजाय, अपनी अफसरशाही के तौर पर पेश करने में ही आनंद मिल रहा है। कोशिशों में संवेदनहीनता, व्यवहारगत कठोरता, दुराग्रह, झूठ, स्वार्थ, अहंकार, और खुद के प्रति लाभ की गुंजाइशें खोजना ज्यादा दिख रहा है।
ऐसी हालत में दुनिया को लाशों को तब्दील होने से रोकने के लिए क्या किया जाए, यह इकलौता ज्वलंत सवाल है, जिसका जवाब शिद़दत के साथ जवाब मांग रहा है। जाहिर है कि यह सवाल तो सरकार के सामने रखा जाना चाहिए, और जवाब भी सरकार को ही खोजना होगा। आम आदमी के तौर पर तो हम सिर्फ इतना कर सकते हैं कि अपने आसपास विहवल और पीडित लोगों की मदद करें। लेकिन सामूहिक समाधान के तौर पर तो सिर्फ सरकार ही फैसला कर सकती है। ऐसी हालत में व्यापक समस्या के व्यापक समाधान के लिए सवाल और जवाब सबसे पहले सरकार से की जाए।
तो पहला प्रश्न है इलाज। सरकार ने अपने नागरिकों को सीमित सरकारी चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाओं के सामने पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए निजी क्षेत्र के सरकारी अस्पतालों की अनुमति दे रखी है। जाहिर है कि निजी क्षेत्र का यह प्रयास जनकल्याण के बजाय विशुद्ध धंधा ही होता है। कहने की जरूरत नहीं कि सरकार के इस फैसले के चलते निजी क्षेत्र के अस्पतालों की अटटालिकाएं गगनचुम्बी होती गयीं, जबकि सरकारी अस्पतालों की इमारतें और वहां के उपकरण धूल-धूसरित होता रहा है।
ऐसी हालत में जरूरत है कि इस भयावह बीमारी से निपटने के लिए निजी क्षेत्र की मदद लेने की सख्त जरूरत है। सख्त जरूरत यानी उस जरूरत को पूरा करने के लिए पूरी सख्ती के साथ फैसला करना और उस फैसले को पूरी सख्ती के साथ लागू करना।
अब ऐसी हालत में सरकार उन क्षेत्रों को तब तक अपने अधिकार में ले ले, जब तक समस्या का समाधान न हो जाए। वरिष्ठ आईएएस अफसर रहे देवेंद्र नाथ दुबे की सलाह है कि इस हादसे से निपटने के लिए सरकार तो तत्काल प्राइवेट सेक्टर के तहत बने बडे छोटे अस्पतालों, नर्सिंग होम्स की इमारतों को अधिगहित कर लेना चाहिए। चूंकि यह नर्सिंग होम्स पूरी तरह एक्विप्ड हैं, अत्याधुनिक उपकरणों और चिकित्सकों व नर्सिंग स्टाफ के साथ लैस हैं, इसलिए वहां इलाज बेहतर तरीके से किया जा सकता है और सरकार ही नहीं, बल्कि जनता भी ऐसे अस्पतालों में आश्वस्त हो सकती है।
उधर मौत बनती जा रही कोरोना बीमारी से भयभीत लोग देश के उत्तर और पश्चिम क्षेत्र से अपने गांव लौटने लगे हैं। अकेले यूपी के पूर्वांचल की ओर पैदल जा रहे इनकी तादात लाखों में है। सरकार के ताजा आदेश के मुताबिक अब फरमान सुनाया गया है कि जो भी लोग हैं, वे वहीं पर रूक जाएं। आदेश के मुताबिक सभी लोगों को क14 दिनों तक खुद को कोरंटाइन करना होगा, और यह बाध्यकारी होगा। अन्यथा उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।
सरकार की दिक्कतें समझ में आती हैं। क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो पूरे देश भर में कोरोना संक्रमण भयावह स्तर तक पहुंच जाएगा। लेकिन समस्या यह है कि अगर ऐसे लोगों को कोरंटाइन किया जाए भी तो कहां पर। जेल में मुमकिन नहीं, मंडियों में जगह नहीं। गांवों में सरकारी स्कूलों की हालत ठीक नहीं। ऐसी हालत में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि निजी क्षेत्र के सारे स्कूलों को कोरंटाइन सेंटर बना लिया जाए। मसलन, लखनऊ का सिटी मांटेसरी स्कूल,​ जिसकी करीब दो दर्जन शाखाएं बडी इमारतों के तौर पर मौजूद है। यही हालत डीपीएस, लखनऊ कालेजियिट का है। रानी ​लक्ष्मी बाई स्कूल, लॉरेटो, लखनऊ पब्लिक स्कूल, सेंट फ्रांसिस, कार्मल स्कूल, लखनऊ महानगर ब्वायज, केकेसी, केकेवी, अमीनाबाद इंटरकालेज, वगैरह भी मुफीद स्कूल हैं।
कहने की जरूरत नहीं​ कि निजी क्षेत्र के अस्पताल हों, या फिर स्कूल, इन सभी का मकसद केवल कमाना ही है। लेकिन शर्मनाक हालत यह है कि यह लोग कमाने के बजाय अब केवल लूटने का अस्त्र बन गये हैं। ऐसी हालत में उन पर इस तरह की जनकल्याणकारी कार्रवाई करने से आम आदमी पर न तो कोई शिकायत होगी, और न ही देश में कोई विरोध ही होगा।
आपको अगर यह सुझाव बेहतर लग रहा है, तो उस पर अपनी सहमति जरूर दीजिएगा। और सरकार और प्रशासन को फोन या पत्र लिख कर बताइयेगा जरूर कि आपकी राय क्या है।

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