रणजीत बच्‍चन कांड: मुठभेड़ नहीं, प्रायोजित था गोली मारना

दोलत्ती

: घेराबंदी की रणनीति ऐसी बनायी कि मूर्ख भी शरमा जाए : चिरकुटों साथ फोटो खिंचवाने वाली पुलिस फर्जी मुठभेड़ पर खामोश : नवीन तिवारी हत्‍याकांड जैसी पुनरावृत्ति हुई थी आशियाना में :
कुमार सौवीर
लखनऊ : अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष रणजीत बच्‍चन की मौत तो इश्‍क में निपट गयी थी, लेकिन उस मामले को खोलने के नाम पर पुलिस ने जो-जो धत-करम किये, उससे तो साबित हो गया कि लखनऊ की पुलिस अपनी वाहवाही के लिए किसी भी सीमा तक उतर सकती है। किसी को भी निपटा सकती है, फर्जी व्‍यूह-रचना कर सकती है, नये-नये झूठे किस्‍से बुन सकती है। और खास बात तो यह कि ऐसी करतूतों को छिपाने के लिए पत्रकारों का मुंह भी सिल सकती है। सच बात तो यही है कि रणजीत बच्‍चन के मामले में यह सारी की सारी झूठी कहानियां बुन डाली थीं लखनऊ पुलिस ने। दोलत्‍ती टीम ने इस मामले को तह तक झांकने की कोशिश की, तो पुलिसिया कार्य-प्रणाली और पत्रकारों की करतूतें एकदम नंगी हो गयीं। सच बात तो यह है कि इस हादसे ने एक बरस पहले गोमतीनगर में एप्‍पल के मैनेजर नवीन तिवारी की हत्‍या जैसा कांड बुन दिया था।
शुरूआत करते हैं पिछली 7-8 फरवरी-20 की आधी रात से, जब लखनऊ पुलिस ने आशियाना थाना क्षेत्र में जीतेंद्र नामक एक व्‍यक्ति के पैर पर गोली मार दी थी। दोलत्‍ती-सूत्रों को मिली खबरों के मुताबिक यह मुठभेड़ एक अजीब रणनीति के तहत हुई, जिसका न कोई सुर था, और न कोई ताल। न कोना था और न कोई कुतरा। एक पत्रकार के मुताबिक रात करीब साढ़े ग्‍यारह बजे लखनऊ पुलिस का मैसेज आलमबाग थाना पुलिस को भेजा गया कि जीतेंद्र नामक एक शूटर मुम्‍बई से चारबाग रेलवे स्‍टेशन पर पहुंचा है। लेकिन इस मैसेज को चारबाग इलाका को सम्‍भालने वाले नाका हिंडोला थाना को कोई भी खबर नहीं दी गयी। इसके बाद फिर एक मैसेज कैंट थाना पुलिस को भेजा गया कि जितेंद्र उस इलाके में पहुंचा है। पुलिस के मुताबिक यह खबर मिलने पर पुलिस ने घेराबंदी की, और आशियाना थाना क्षेत्र में जीतेंद्र के पैर पर गोली मार कर दबोच लिया। लेकिन हैरत की बात है कि इस दौरान न तो हुसैनगंज थाना पुलिस को उसकी खबर दी गयी और न ही आशियाना पुलिस को। हां, हैरत की बात जरूर रही कि साइबर का एक दारोगा जरूर मौके पर मौजूद रहा। एक पत्रकार का सवाल था कि किसी भी ऑपरेशन के दौरान साइबर सेल के दारोगा की जरूरत आश्‍चर्यजनक थी, यह दारोगा हर घटना पर क्‍यों दिख जाता है, यह हैरतनाक है।

इतना ही नहीं, जीतेंद्र को जिस तरह दबोचने की फोटो एनकाउंटर के दौरान पुलिस ने खिंचवायीं थीं, वह किसी को भी अचरज में डाल सकती थीं। इस फोटो में एक तोंद-दार दारोगा ने जीतेंद्र की गर्दन को दबोच कर जमीन पर धरचुक्‍क दिया गया दिखाया था, जबकि जीतेंद्र के हाथ में पिस्‍तौल मौजूद दिख रही थी। एक पत्रकार ने बताया कि इतना साहस दिखाना केवल झूठ के बल पर ही बुना जा सकता है।
कुछ भी हो, लगता है कि पुलिस ने उस मामले की पूरी फाइल ही बंद कर दी। उसके बाद पुलिस ने न तो यह बताया कि जीतेंद्र लखनऊ कब पहुंचा था, और न ही यह बताया कि जीतेंद्र को रेलवे स्‍टेशन से बाइक और हैलमेट किसने दी थी। और न ही यह कि लखनऊ आने का उसका मकसद क्‍या था। पुलिस इस बात को भी घोंट गयी कि रेलवे स्‍टेशन से लेकर आशियाना तक के रास्‍ते में आने वाले कई थाना क्षेत्रों को जीतेंद्र की गतिविधियों की खबर क्‍यों नहीं दी गयीं। (क्रमश:)

(यह सच है कि हिन्‍दूवादी नेता कमलेश तिवारी की हत्‍या को अखिल भारतीय हिन्‍दू महासभा के प्रदेश अध्‍यक्ष रणजीत बच्‍चन की हत्‍या से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है। बावजूद इसके कि यह दोनों ही नेता कट्टार हिन्‍दूवाद से पोषित थे। लेकिन कमलेश जहां साम्‍प्रदायिक सिरे से निपटे थे, वहीं बच्‍चन का अंत इश्‍क-मोहब्‍बत से हुआ। लेकिन कमलेश के मामले में पुलिस ने तह तक छान ली थी, लेकिन बच्‍चन के मामले में लगातार भ्रामक हालत बनी हुई है। और यह हालत केवल पुलिस ही नहीं, बल्कि पत्रकारों की ओर से भी है। कई कोनों पर तो ऐसा लग रहा है, कि पुलिस और पत्रकार इस मामले में एक-दूसरे की जिन्‍दगी बनते जा रहे थे। दोनों ही लगातार एक-दूसरे या फिर एक-दूसरे के साथ मिल कर बहुत कुछ छिपाते भी रहे हैं।
दोलत्‍ती टीम इस मामले पर लगातार पड़ताल में है। यह मामला जल्‍दी ही श्रंखलाबद्ध तरीके से प्रस्‍तुत किया जाएगा। तब तक दोलत्‍ती के अगले अंक की प्रतीक्षा कीजिए। )

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