महिला दिवस: फिसड्डी हुईं हिन्‍दू महिलाएं, मुस्लिम औरतें अव्‍वल

दोलत्ती

: जल्‍दी ही समझ जाएंगी, फिलहाल तो मोहरा हैं : सच बात यह कि मैं भी सीएए का तार्किक समर्थक हूं : काश, हिन्‍दू महिलाएं मुस्लिम बहनों को गले लगातीं :
कुमार सौवीर
लखनऊ : मुझे नहीं पता कि बीते बरस देश की सारी औरतों को कुछ खास मिला भी या नहीं। लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि इस दौरान कम से कम मुस्लिम महिलाओं को तो बहुत ज्‍यादा ही मिल गया है।
उन्‍हें सायास ही सड़क पर आना पड़ा, हालांकि इसमें उनका यह कदम अनायास ही था। वे सड़क पर आईं, भले ही उसमें उनकी शुरुआती सहमति न रही हो। भले ही वे एक रणनीति के तहत सामने आने पर मजबूर की गई हों। भले ही उन्हें मसले पर कोई हल्‍की अथवा ठोस जानकारी न रही हो, या फिर वे सिर्फ भेंड़-चल पर ही चलती रही हों। लेकिन इससे कौन इनकार कर पायेगा कि इस पूरे मामले में उन्होंने बोलना तो सीखा ही, और नारे लगाना भी शुरू किया। गले फाड़-फाड़ कर चिल्‍लाना सीखा है, उन्होंने जुबान का इस्तेमाल करना सीखना शुरू किया है। चलना और घूमना शुरू किया है। नारे लगाना सीखा और नारा लगाने का तरीका भी अप्‍लाई किया है।
यही तो वह स्‍त्री-सशक्‍तीकरण है, जिसकी सबसे ज्‍यादा जरूरत कम से कम दक्षिण एशियाई भू-भाग में महसूस की जा रही थी। पिछले लम्‍बे वक्‍त से और पूरी शिद्दत के साथ। लेकिन न इसके लिए उनके पास कोई ताकत थी, न ही उनका कोई हम-कदम था, और न ही कोई मजबूत इशारा या फिर कोई शिक्षक अथवा प्रेरक। कितना दर्दनाक मंजर था कि कट्टरता के घेरों में लगातार सिमटती ही रहीं और अपनी ही जुबान को हर बार छोटी से छोटीतर बनाने में जुटी रहीं। यह परम्‍परा उन्‍होंने अपनी बेटियों को भी सिखाया कि वे इंसान की भीड़ में सिर्फ दोयम या दूसरे दर्जे की नागरिक ही नहीं, बल्कि सही मायनों में घरेलू लौंडी-दासी भर ही हैं।
लेकिन आज देखिये तो तनिक। आज वे समाजिक मसले पर अपनी जुबान खुले आसमान में चला रही हैं। और यकीन मानिये कि कल यही महिलाएं अपने घरेलू और धर्म के मसले पर भी तो उंगली उठाने शुरू करेंगी। सियासत को भी वे आज न सही, कल तक समझ ही लेंगी, भले ही वे फिलहाल और आज मोहरा भर ही रही हों। लेकिन अब वे उस दौर की ओर बढ़ चुकी हैं, जहां रानी की लक्ष्‍मीबाई या फिर रजिया सुल्‍तान की तरह तलवार उठायेंगी और मर्दों को अपनी तलवार की नोंक पर रखा करेंगी, जैसे अभी कुछ बरस पहले तक मर्दों की जूतियों की नोंक पर टिकी रहती थीं।
आप देख लीजिए, कि यही महिलाएं कल तक किसी दूसरे मर्द के सामने नहीं पड़ती थीं, अब चेहरे से नकाब हटाने लगी हैं। इंशाअल्लाह, वे अपनी सामाजिक कुरीतियों को भी बेपर्दा करेंगी जरूर। जैसे ही वह अपना यह अभियान छेड़ेंगी, उनके अपने समाज में ही झंझट शुरू हो जाएगा। उनमें भी एक नया धर्म-गुरू पनपने लगेगा। जिसका जवाब सवाल पर बातचीत करना मर्दों के लिए बहुत आसान नहीं होगा। हालात लोहे के चने को चबाने की नौबत तक आने लगेगा। तो आज जिस घंटाघर या शाहीनबाग को आप पांच-पांच सौ रूपयों की बिकाऊ औरतें मान कर उन पर छींटाकशी कर रहे हैं न, कल वे आपका कान काटना शुरू कर देंगे। स्‍त्रीसशक्‍तीकरण का एक नया मजबूत आयाम और आध्‍याय लिखना शुरू कर देंगीं महिलाएं, जबकि तब से मर्द अपनी नौटंकी का बोरिया-बिस्‍तर समेटना शुरू कर देंगे। आमीन।
लेकिन हिन्‍दू महिलाओं से एक शिकायत तो हमेशा रहेगी ही।
वह यह कि शाहीनबाग या लखनऊ के घंटाघर पर जुटी मुस्लिम महिलाओं के आंदोलन में सहभागिता नहीं निभाई हिन्‍दू महिलाओं ने। अकेला छोड़ दिया मुस्लिम महिलाओं को। माना कि उनका यही मानना रहा होगा कि वे सीएए के समर्थन हैं, जबकि मुस्लिम महिलाएं सीएए के विरोध में थीं। लेकिन क्‍या सारी हिन्‍दू महिलाएं यह दावा कर सकती हैं कि वे आखिरकार सीएए का समर्थन क्‍यों कर रही हैं। यानी उन्‍हें पता ही नहीं है कि सीएए का विरोध करना चाहिए या फिर सीएए का अंध-समर्थन। यानी वे अनजाने में ही सीएए का समर्थन कर रही हैं, बेवजह और मूर्खतापूर्ण तरीके से। अब सोचिये कि ऐसी हालत में अगर मुस्लिम महिलाएं भी उसी तरह बिना सीएए के बारे में ठोस जाने-बूझे, सीएए का अंधा विरोध कर रही हैं, तो उसमें गलत क्‍या है। और अगर हिन्‍दू महिलाओं को पता है कि उनका कांसेप्‍ट सीएए को लेकर बिलकुल साफ है कि सीएए पूरी तरह समर्थन योग्‍य है, तो फिर हिन्‍दू महिलाओं को मुसलमान महिलाओं के साथ कदमताल करना ही चाहिए था, और इस तरह वे मुसलमान महिलाओं को गुपचुप तरीके से समझा पातीं कि सीएए का समर्थन क्‍यों करना चाहिए। मेरा दावा है कि ऐसी हालत में मुसलमान महिलाएं इस मामले में जल्‍दी ही अपना स्‍टैंड बदलना शुरू कर देतीं।
सच कहूं !
ऐसा अगर हो जाता, तो दुनिया की आधी दुनिया की सशक्‍तीकरण का झंडा उसके बाद से सीधे हिन्‍दुस्‍तानी महिलाएं ही थामतीं।
बाकी दुनिया टापती ही रह जाती।

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