: एफबी में मुझे ऐसी महिलाएं मिलीं कि मैं धन्य हो गया, सबका ऋणी हूं : हर रिश्तों की मजबूत इबारतों को दर्ज कर देती हैं फेसबुक की दीवारें : कहीं स्नेह, कहीं दुलार, कहीं इश्क, तो कहीं शिकवों का भी सैलाब यहीं है : कमाल है फेसबुक पर संवेदनाओं-भावनाओं का व्यवसाय। श्रंखला– तीन :
कुमार सौवीर
लखनऊ : फेसबुक पर कई युवतियां मेरे साथ हैं, जिनसें मैं कभी नहीं मिला। लेकिन वे मुझे बहन-बेटी तक का ऐसा सुख-आनन्द सौंप गयीं, कि मैं धन्य हो गया। कई महिलाएं मेरी मित्र हैं, जिनसे मैं बहुत कुछ सीखता हूं। किसी के बारे में कुछ पूछना होता है तो मैं सीधे उन लोगों से पूछ लेता है।
कई ऐसी भी हैं जो मेरी प्रेमिका हैं। हर तरह की बातचीत हम कर सकते हैं, बतिया लेते हैं। खुल कर, नि:संकोच। किनसे मैं अभद्र तक हो जाता हूं, तो कभी वे भी हो जाती हैं। हां, मैं उनकी बदतमीजियां बर्दाश्त कर लेता हूं, जबकि कुछ ऐसी रह चुकी हैं, जो मेरे अंदाज से भड़क गयीं। दो तो हमेशा-हमेशा के लिए मुझे अपने जीवन से झटक गयीं। लेकिन ऐसी भी हैं आज भी, जो लगातार मुझसे पूछताछ नियम से करती हैं। खोद-खोद कर। सुबह से लेकर सोने के पहले तक की सारी बातें तफसील से पूछ लेंगी। लेकिन कभी अभद्रता नहीं। जरूरत भी नहीं पड़ी। ज्यादातर तो सात समुन्दर पार तक की रहने वाली हैं। न उनके पास मुझसे मिलने का समय है, और न मुझे उनके यहां तक जाने की हैसियत।
वे बिलकुल मेरी खास दोस्त हैं, किसी बड़ी बहन की तरह, या उससे भी बढ़ कर। कोई बेटी की तरह हैं, तो इठलाती हैं, मचलती हैं। उनसे से कभी मैं मेरी जान कह देता हूं तो कभी मेरी प्यारी, कभी गुडिया। तो कोई बड़ी उम्र की दोस्तं हैं। अपनी आदत से मजबूर होकर एक बार मैंने एक बार लिख दिया:- “चूतिया।” फिर क्या था। भड़क गयीं। बोलीं:- “अपनी भाषा दुरूस्त करो। यह तरीका है बातचीत करने का?”
मैं हक्का-बक्का। न सुनने का तैयार थीं, न समझने की। कह दिया तो कह दिया। खैर, जो बड़ा है, उसका सम्मान अगर मैं नहीं करूंगा, तो फिर कौन करेगा। और फिर मैं जानता हूं कि वे मुझे बहुत स्नेह देती हैं।
दोस्त ! मैं कोई अनोखा नहीं हूं। इसी भूमण्डल का पुरूष हूं, किसी दूसरे ग्रह से नहीं आया। मुझमें भी पौरूष हिलोरें लेता है। दूसरों के मुकाबले शायद कहीं ज्यादा प्रचण्ड, और भीषण आवेगमय। खैर, एक मनोविज्ञान शिक्षिका से मेरी गाढ़ी मित्रता हो गयी। न जाने क्या हुआ, मैं उनके समक्ष प्रणय-निवेदन कर बैठा। लेकिन उस महिला ने मुझसे बहुत देर रात तक मुझे समझाया। फिर मेरी बारी शुरू हुई, यानी फफककर रोना। एक्चुएली, आई लव रोना। मैं हिचकी ले रहा था, वे मुझे पुचकार रही थीं। अरे आमने-सामने नहीं यार। फोन पर। वह भी करीब ढाई घंटे तक। इसके बाद सब कुछ सामान्य हो गया। बस खत्म।
कुछ ऐसी भी हैं जो केवल उस उद्रेग तक ही सिमट जाती हैं। किसी बुलबुले की तरह। बस, आवेग उठा, और उसके बाद बात खत्म। आपको एक हफ्ता पहले का एक किस्सा सुनाता हूं। पूर्वांचल की एक खासी पढ़ी-लिखी युवती ने रात करीब साढे नौ बजे फोन किया। वे अविवाहित हैं। फेसबुक और ह्वाट्सअप पर भी उनसे बातचीत होती रहती थी। फोन पर भी। कई मसलों पर हम लोगों पर गम्भीर चर्चा भी हुई थी। खैर, उस दिन करीब पौन घण्टे के बाद उन्होंने सबसे मेरे साहस की प्रशंसा की। फिर बोलीं कि वे मेरी लेख-शैली और उसके कौशल पर फिदा हैं। यह भी कहा कि, “आपके साहस, बातचीत के अंदाज से मैं खुद को बहुत मजबूत महसूस करती हूं। हर बार यही लगता है कि मुझ में साहस की मात्रा और बढ गयी है।”
अब समस्या यह थी कि ऐसी बातों पर मुझे क्या कहना-करना चाहिए, मुझे नहीं पता। सिवाय इसके कि मैं ओहो, हां, ओके, हूं हूं, अच्छा, अरे, वाह, अरे नहीं जैसे शब्दों का लगातार इस्तेमाल करता रहता। लेकिन अचानक उन्होंने यह कह कर मुझे स्तब्ध कर दिया कि:- “आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, आपकी बातें सुन-पढ़ कर दिल उमड़-घुमड़ पड़ता है। शायद मुझे आपसे कुछ-कुछ प्यार हो गया है। कुल मिला कर मैं यही कहूंगी कि आई लव यू।”
मैं अचानक धड़ाम से गिरा। लेकिन चूंकि नीचे उमंगों-भावनाओं का गुलगुला गद्दा पड़ा था, इसलिए मैं आनंद में गोते लगाने लगा। हां, काफी देर तक यह समझ में नहीं आया कि मुझे क्या प्रतिक्रिया करनी चाहिए।
बावजूद इसके कि मैं उन लहरों में उतरने ही लगा, लेकिन इसके पहले खुद को संयत करने के चलते मैंने उसे हंसी-हंसी में कह दिया:- ” आपने तो बड़ा टेक्निकल मामला फंसा दिया है। एक तरफ तो आप कह रही हैं कि आपको मुझे कुछ-कुछ प्यार हो गया है। जबकि उसके ठीक बाद आप यह कह रही हैं कि आई लव यू। तो, समस्या यह है मैडम, कि आपको अगर थोड़ा-थोड़ा प्यार हो गया है तो टोटेलिटी में लव कैसे हो गया और अगर सम्पूर्णता में लव हो चुका है तो फिर यह थोड़ा-थोड़ा गणितीय संदर्भ अजीब लगता है, इसमें तो प्रेम का यह बीज-गणित का समीकरण ही गलत साबित हो जाएगा। हा हा हा। “
वह काफी देर तक मुझसे बतियाती रहीं, मेरी बात पर खूब ठहाके लगाये उन्होंने। लेकिन हैरत की बात है कि सुबह के बाद से उन्होंने मुझे न तो कोई फोन किया, न कोई संदेश और न ही मेरी किसी पोस्ट पर कोई प्रतिक्रिया ही। मैंने वाट्सअप पर उन्हें नमस्ते किया, तो कुछ देर बाद सीन का टिक नीला निशान दिख गया, लेकिन जवाब धेला भर नहीं आया। अब मैं कोई कूकुर तो हूं नहीं कि बार-बार उनके दुआरे कुंकुंआता ही रहूं। अगर वे अपनी राह चली गयी हों तो फिर मैं उनकी राह का रोड़ा क्यों बनूं। ” मान न मान, मैं तेरा सइयां ” वाली हालत मैं खुद के लिए उचित नहीं मानता।
हां, यह भी है कि मैं उस महिला के साहस का प्रशंसक जरूर हो गया हूं कि कम से कम उसने अपनी भावनाओं का इजहार करने का साहस जुटाया। वरना तो हमारे समाज में तो औरत तो “खुदा की गइया” ही मानी जाती है, जिसकी अपनी निजी ख्वाहिश कोई नहीं होती। और फिर, अगर उस महिला ने अगले दिन अपनी राय बदल दी, तो यह उसकी परिपक्वता का प्रतीक है। ठीक है कि उसमें आवेग, उद्वेग, संवेग उमड़े, तो ठीक है। उमड़ना ही चाहिए। इसमें बुरा क्या है। यह तो उसके जीवन्त होने का प्रमाण है। यह तो महिला सशक्तीकरण का प्रतीक भी है। अगर उसने मुझसे किनारा कर लिया, तो यह तो और भी बड़ा फैसला किया। मैं उसकी और ज्यादा प्रशंसा करता हूं। हां, अगर उसमें यह साहस और जुड़ जाता कि वह अपनी इस अनिच्छा को जाहिर कर देती, तो शायद वह हालत श्रेष्ठतम होती। लेकिन फिर सोचता हूं कि क्या बाकी पुरूष उसके ऐसे कुबूल-नामा को सहज मान ले पाते। शायद नहीं।
अरे हंगामा हो जाता साहब, हंगामा ( प्रतिदिन क्रमश:)