तबाह मुखबिर-तंत्र ने अफसरों को मालामाल और समस्या को विषम बनाया

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

सुल्तानपुर में पत्रकार व लखनऊ की बच्ची की हत्या के खुलासे में तंत्र विफल 
वारदात के बाद हफ्तों बाद अंधेरे में ही भटकते रहे हैं पुलिसवाले, निदान शून्य
(नृशंसता के साथ मार डाली गयी लखनऊ की बेटी- 4 )

कुमार सौवीर 
लखनऊ :
जरा कोई बताएगा कि जब सुल्तानपुर के पत्रकार करूणा मिश्र की हत्या की साजिश, उसके कारिंदें, उनके तरीके और उस हादसे का सारा हाल-हवाल सुल्तानपुर जेल में बन्द हर बन्दी को पता था, तो उसका पता पुलिस को हत्या के सातवें दिन चल पाया। इतना ही नहीं, आप इस मुखबिर-सूचना तंत्र की असलियत जानना चाहते हों तो सीधे लखनऊ में परसों पायी गयी कक्षा-11 की छात्रा की मिली लाश को लेकर बांच दीजिए, जिसकी लाश पांच दिनों तक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के आवास, डीजीपी के आवास और वीमन हेल्पलाइन 1090 मुख्यालय से मात्र चंद कदम दूर ही था। लेकिन न पुलिस का कोई सिपाही मौके पहुंचा और न किसी मुखबिर की नजर उस पर पड़ी। पड़ती भी तो कैसे? हैरत की बात है ना?
खैर, अब पुलिस ने बयान दिया है कि करूणा की हत्या सुल्तानपुर के एक खनन माफिया राहुल सिंह के इशारे पर हुई थी। राहुल ने इस कत्ल के लिए अपने दो गुर्गों को लगाया था। इन लोगों ने तीन अन्य शूटरों की सेवाएं ली गयी थीं। इसमें दो लाख रूपयों की सुपारी दी गयी थी। इसमें एक मास्टरमाइंड मुन्ना सिंह अब तक जेल में बन्द था, लेकिन कुछ महीनों पहले उसे जौनपुर जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। 
दरअसल, राहुल सिंह और मुन्ना सिंह खनन माफिया हैं। इनका मूल धंधा जीसीबी के सहारे मिट्टी बेचना है। राहुल सिंह के इस धंधे में करूणा मिश्र हस्तक्षेप करता था। पुलिस का दावा है कि इसी के चलते उन लोगों ने करूणा को मौत के घाट उतार दिया। 
लेकिन कोई बात नहीं दोस्तों। जिसको मारना था, उसने मार दिया, जिससे मरना था, वह मर गया। जिन लोगों को साजिश करनी थी, उसने कर डाली। इसमें कोई आश्चर्य की बात तो है नहीं। 
लेकिन असल समस्या तो पुलिस की है। पुलिस ने इस हादसे से पहले और उसके बाद इसे सुलझाने में क्या-क्या किया। मैं दावा करता हूं कि कुछ भी नहीं। 
खुद आईजी ने आज बयान दिया कि करूणा को मौत के घाट उतारने की साजिशों का तानाबाना बुनाने और उसे अमली जामा पहनाने की खबर जेल में बंद अपराधियों को खूब थी। जेल की हवा में यह हवा लगातार तैर रही थी कि करूणा का काम अब होने को है, कम होगा या फिर हो चुका है। इसके बावजूद पुलिस को इसकी भनक नहीं मिल सकी, यह आश्चर्य की बात ही नहीं, बल्कि पुलिस के चेहरे पर एक जोरदार तमाजा भी है। 
इससे यह भी पता चल जाता है कि यूपी में सीक्रेट फण्ड का अधिकार रखे अधिकारी अपने इस अधिकार का इस्तेमाल किस तरह करते हैं। कम से कम अपने सूचना व मुखबिरों के तंत्र को मजबूत करने के लिए तो हर्गिज नहीं।

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