जो रकम मुखबिरों के हिस्से की थी, अफसरों ने डकार लिया

बिटिया खबर

अब सिर्फ मोबाइल सर्विलांस तक ही सिमटे हैं ”नयनसुख” अफसर 
सीक्रेट फण्ड का फण्डा औंधे मुंह गिरा, तो तंत्र जमीन सूंघ गया 
(नृशंसता के साथ मार डाली गयी लखनऊ की बेटी- 3 )

कुमार सौवीर

लखनऊ : किसी भी अपराध का खुलासा करने के लिए जिन एकाधिक आधारों की जरूरत होती है, वह है कम से कम चार आधार। इनमें एक तो है प्रत्यक्षदर्शियों से पूछताछ, घटना स्थल पर पसरे प्रमाणों की सूक्ष्म छानबीन, परिस्थितियों और पीडि़त से जुड़े लोगों व उनसे हुई कहासुनी का छिद्रान्वेषण। लेकिन इन सबसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू होता है पुलिस व प्रशासन का अपना निजी सूचना-तंत्र यानी मुखबिरी। आपको बता दें कि इस सूचना-तंत्र को विकसित करने या उसे निरंतर बनाये रखने के लिए पुलिस को खास मशक्कत करने की जरूरत होती है। पुलिस व प्रशासन इस तंत्र को मजबूत बनाये रखे, इसके लिए सरकार पुलिस को भारी रकम देती है। इसके लिए एक बाकायदा फण्ड होता है जो कानून-व्यवस्था से जुडे हर पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी को मिलता है। बजट के लिए इसके लिए अलग धनराशि आबंटित होती है। इसी रकम का संचालन पुलिस व प्रशासनिक के जिला प्रमुख सीधे या अपने अधीनस्थ। अधिकारी को अपने मुखबिरों को पालते-पोसते हैं। खास बात यह है कि इस रकम का कोई भी लेखाजोखा का आडिट नहीं किये जाने की छूट होती है। यह सीक्रेट फण्ड जिला प्रमुखों से लेकर शासन तक बड़े अफसरों तक को मिलती है। 
लेकिन बदले हालातों में ऐसा जरा कम ही होने की प्रथा पनपने लगी है। अब यह जिम्मेदार पुलिस दारोगा वगैरह को यह जिम्मा दे दिया जाता है कि वे मुखबिरों को पोषित करते रहें। लेकिन इस सीक्रेट फण्ड में किसी को भी छदाम नहीं दिया जाता है। सूत्र बताते हैं कि अधिकांश दारोगा बाजार से वसूली करता है और उसी रकम से अपना जेबखर्च और अपनी ऐयाशी करता है। इसमें धमकी, पकड़, हफ्ता आदि से वसूली होती है। लेकिन मुखबिरों को अक्सर यह पालन-पोषण नहीं मिल सकता है। ऐसे मामलों में दारोगा कहता है कि तुम्हें जैसे भी हो सके, मुखबिरी करो, वरना जेल में भेज दूंगा। चूंकि लगभग सभी मुखबिरों की पृष्ठिभूमि अपराध ही होती है, ऐसे में वे पुलिस की भृ‍कुटी बदलते ही बेहाल हो सकते हैं। ऐसे में मुखबिर मारे डर के कांख-पाद कर यह काम करने पर मजबूर होता है। इसके लिए वह दूसरे अपराध करना शुरू कर देता है। 
लेकिन कभी-कभी कोई मुखबिर पुलिस की इस दादागिरी से झुंझला पड़ता है तो सूचनाओं को संकलन और उन खबरों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया लापरवाही में या फिर जानबूझ कर देता है। ऐसे में छोटे छोटे-मोटे मामलों में तो बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं होती है, लेकिन जो बड़े हादसे या सनसनीखेज मामले होते हैं, उनमें भारी गच्चा हो जाता है। 
खैर। यह तो सरकारी प्रक्रिया की चूकें हैं, जो ज्यादातर साजिशों और गड़बडि़यों के चक्कर में फलती-फूलती रहती हैं। लेकिन शायद इसीलिए लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास के निकट नाले में बरामद हुई मेरी बिटिया बच्ची और सुल्तानपुर में पत्रकार करूणा मिश्र की हत्या के मामले में यह चूक, बाकायदा इस पूरे सिस्टम को गच्चा दे गयी।

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