पिता दिव्‍य अनुभूति है। अहसास बाप के बाद होता है

बिटिया खबर

: सतर्क रहिये, ताकि चाइल्‍ड-एब्‍यूज न हो : सच जान मैं फ्रैंज काफ्का से विपरीत ध्रुव पहुंचा : वसीली अलांग्‍जांद्रोविच सुखोम्लिस्‍की की किताब है, बाल हृदय की गहराइयां : कुलपति डॉ एसपी नागेंद्र बोले कि आप कढ़े हैं : छठी इंद्री होते ही मैं भागता जैसे माफिया धनंजय सिंह, आईपीएस पाटीदार, अनंत तिवारी या दिनेश दुबे :

कुमार सौवीर

लखनऊ : बाप एक महान दस्‍तावेज होता है। बच्‍चे की मुकम्मिल नींव ही नहीं, शख्सियत की पूरी अजीमुश्‍शान इमारत होता है। इसमें अनुभूतियां होती हैं। साहस होता है। कोशिशों का समुंदर होता है। बेशुमार झटकों को बर्दाश्‍त करने का एक बेमिसाल शॉक-एर्ब्‍जावर होता है, माद्दा होता है संतोष करने और बच्‍चे तक बेशुमार संतुष्‍ट करने का। परिश्रम करने की असीम ताकत होती है बाप में। भूखे रहने की आदत होता है बाप। बाप दूसरों के सामने तो अपना घुटने के बल रह सकता है, लेकिन अपने अपने बच्‍चे के लिए हमेशा एक ताकतवर सहारा बना रखता है। बावजूद इसके कि वह अपने बच्‍चों के लिए उनके सामने लगातार छोटा बनने में गुरेज नहीं करता, और उसके सामने आत्‍मसमर्पण करने में कोई भी गुरेज नहीं करता। उसकी अंतिम इच्‍छा होती है कि उसकी संतान उससे काफी ऊंचे पायदान तक पहुंच जाए।
लेकिन पता नहीं क्‍या वजह है कि दुनिया के महानतम लेखक होने के बावजूद फ्रैंज काफ्का अपने बाप को लेकर ऐसे मनोविज्ञान के सामने बेहद बौना साबित हो गये। बजाय इसके कि वे अपने बाप को दुनिया का सबसे बड़ा और ताकतवर ही नहीं, बल्कि सर्वशक्तिमान व्‍यक्ति मानते, फ्रैंज काफ्का ने अपने बाप को अपनी जूती की नोंक पर रख दिया। अपने बाप को सबसे बड़ा त्‍यागी मानने के बजाय, काफ्का ने अपने बाप को पूरी दुनिया के सामने निहायत बौना साबित कर उन्‍हें बाल-मनोविज्ञान की तय-शुदा शर्तों और आधारों को ही खारिज कर दिया।
यह भी हो सकता है कि मैं मनोविज्ञान या सामाजिक विज्ञान को ठीक से नहीं पढ़ पाया। मनोविज्ञान या सामाजिक विज्ञान तो दूर, मैंने तो बचपन से ही औपचारिक और परम्‍परागत विद्या-अर्जन की ठेंगा दिखा दिया। वजह यह कि मैं पढ़ाई को अनावश्‍यक मानता था, या फिर हालातों ने मुझे इस योग्‍य नहीं समझा कि मैं ठीक से पढ़ सकता। बड़े भाई संजीदा, मंझले भाई सुंदर, जबकि मैं यानी दीप्तिमान त्रिपाठी उर्फ़ कुमार सौवीर बेहद बदशक्ल, बेशऊर, असभ्य और अराजक भी माना जाता था। ऐसी जन्‍मना प्रवृत्तियों के बीच शिक्षा का न तो स्‍थान होता है और न ही समय अथवा अनुशासन की गुंजाइश। पापा और मम्‍मी में गंभीर अंतर्विरोध था, इसलिए वे बहराइच के एक प्राइमरी स्‍कूल में टीचर के पद में जमी थीं। इसलिए पापा का सारा आक्रोश मेरी पीठ पर ही उतरता था। दिन भर में 2-4 बार तो मोहल्ले में शोर सरीखे बगूले उठाते थे। सब को पता रहता था कि कक्कू की यानी मेरी कुटम्मस चल रही है। अक्‍सर तो मैं सिर्फ निक्‍कर में ही, अथवा कभी-कभार वस्‍त्र-विहीन अवधूत की तरह पापा से बचने के लिए यह गली, वह गली भाग निकला था, और पापा डंडा लेकर मुझे खदेड़-रगेद दिया करते थे। कोई भी घरेलू, सामाजिक, राष्‍ट्रीय अथवा अंतर्राष्‍ट्रीय समस्‍या हो, पापा के हाथ में बेंत, और नजरें मुझ पर। छठी इंद्री तत्‍काल जागृत हो जाती थी, और मैं उचक कर कुछ इस तरह कूद कर भाग निकलता था, जैसे यूपी का एक फरार माफिया धनंजय सिंह और आईपीएस पाटीदार के अलावा अनंत तिवारी या दिनेश चंद्र दुबे। लेकिन बाद में मकान में रहने वाली एक बुआ मुझे कुछ इस तरह दुलराती थीं, जैसे योगी जी अपने ढीढ और मुंहलगे लौंडे-लफाड़ी अफसरों के साथ व्‍यवहार कर अपनी ही सरकार का सत्‍यानाश किया करते हैं।
किस्‍सा-कोताह यह कि मैं घर से भाग निकला। फिर कानपुर समेत कई जगहों पर होटलों में बर्तन धोया, वेटरी का काम बरसों बरस किया। कई होटलों में काम करने के दौरान पीटा भी गया। जीआरपी वालों ने रेलवे स्‍टेशन पर पहुंचने वाले बाकी बच्‍चों की तरह मुझे भी कई-कई बार पांच से पंद्रह रुपयों तक में होटलवालों के हाथों बेंचा। एक होटल मालिक ने मुझे चोरी के आरोप में दिसम्‍बर की सर्दियों में तंदूर की राख में पटक-फेंका। नतीजा, यह कि राख की तपिश से मेरा दाहिना पैर बुरी तरह झुलस गया। बेहाल होकर मैं किसी तरह कानपुर सेंट्रल स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म तक पहुंच गया। कुछ दिन जबर्दस्‍त बुखार और सिर्फ भूख के बीच बिताया। इसी बीच एक रिक्‍शा-चालक ने मेरा इलाज कराया और रोटियां खिलायीं। लेकिन एक दिन उसने रिक्‍शा चलाने की दीक्षा के बहाने दैहिक-शोषण करने की कोशिश भी कर डाली। ठीक उसी तरह, जैसे द्रोणाचार्य ने एकलव्‍य को मूर्ख बनाने की साजिश की थी। यह भयावह दंश था। प्रत्‍येक अभिभावक को अपने बच्‍चों को ऐसे अनुभवों के हालातों से उबारने की हरचंद कोशिश करनी चाहिए। बहरहाल।
खैर, उस पर बात तो बाद में कहूंगा, लेकिन उसके बाद महीनों तक रिक्शा भी चलाया और बसों में कंघी, नेलकटर, नेल पालिश वगैरह बेचा। फिर कानपुर से लखनऊ की बाज़ारों तक पंसारी का सामान भी सप्लाई किया। इसी बीच हाईस्कूल की परीक्षा दी, लेकिन इससे पहले ही नुक्कड़ व स्टेज नाटकों में भी हाथ मांजा। भाषा बढ़िया हो चुकी थी तब तक। दो जून-82 को साप्ताहिक सहारा में प्रूफ रीडर की नौकरी मिल गई। घर वालों से मुलाकात भी होनी शुरू हो गई। लेकिन अक्टूबर-84 को पापा ने बहुत दुखी मन से मुझे घर वापस बुलाया। बोले:- “मैंने तुम पर बहुत अन्‍याय किया। अब घर वापस आ जाओ।” मेरी आंख डबडबा गयीं। फौरन घर से बाहर निकला, ताकि आंसू न बहे। और उसी दिन मैं अपना सारा लेकर पापा के पास पहुँच गया।
लेकिन यह भी एक बड़ा गबड़-चौथ है। लखनऊ विश्‍वविद्यालय के एक कुलपति हुआ करते थे डॉ एसपी नागेंद्र। लेकिन पहले एक किस्‍सा सुन लीजिए। बात है सन-85-86 की। मुझे साप्‍ताहिक शानेसहारा नाम के अखबार से निकाल बाहर कर दिया था। दोष था कि मैं ट्रेड यूनियनिस्‍ट हूं। झगड़ा हुआ तो सुब्रत राय ने मुझे, साथी श्‍याम सिंह अंकुरम, सुरेंद्र सिंह समेत कई कर्मचारियों को बर्खास्‍त कर दिया। झगड़ा बहुत बढ़ा। पूरे देश में मजदूर आंदोलन चरम पर था। सॉलिडॉरिटी बेहिसाब थी हम सब में। एक दिन मैंने सुब्रत राय के भाई जयब्रत को हमने दफ्तर में घुस कर जमकर जूतों से पीटा था। हम नौकरी पर उसी वक्‍त वापस लिये गये, लेकिन चंद महीनों बाद ही सुब्रत राय ने अखबार ही बंद कर दिया। तब मेरा वेतन था छह सौ साठ रुपये महीना। नवभारत टाइम्‍स के सांध्‍य समाचार नामक दैनिक अखबार में मुझे महज डेढ़ सौ रुपल्‍ली की नौकरी मिली थी। संपादक थे घनश्‍याम पंकज। मजबूरी थी, क्‍या करता मैं। पंकज जी ने मुझे लखनऊ विश्‍वविद्यालय में शिक्षा और पूरे लखनऊ की छात्र-राजनीति की बीट थमा दी। यह पहला मौका था, जब किसी को शिक्षा और छात्र-राजनीति की रिपोर्टिंग का जिम्‍मा मिला। तब तक यह हेय क्षेत्र हुआ करता था।
जल्‍दी ही मैंने अपनी एक अलग पहचान बना ली। कुलपति डॉ नागेंद्र मुझे बहुत सम्‍मान देते थे। अक्‍सर कुर्सी छोड़ देते थे। मैंने सकुचा कर ऐतराज किया, तो वे बोले कि मैं तो पढ़ा हूं। लेकिन आप तो कढ़े हुए हैं। मैं आज भी डॉ नागेंद्र जी के शब्‍दों को महसूस कर खुद में एक सिहरन सी महसूस करता हूं। यकीन नहीं आता है कि मैं एक निहायत छोटा व्‍यक्ति, और कहां कुलपति की कुर्सी को सुशोभित करने वाले दिव्‍य डॉ एसपी नागेंद्र जी।
पापा के अत्‍याचारों से तो मैं बेहद आहत था ही, लेकिन इतना तो समझता ही था कि पापा किन हालातों से दो-चार चल रहे हैं। एक ओर तो वे स्‍वतंत्रभारत दैनिक समाचार में मुख्‍य उपसंपादक की नौकरी करते थे, उसके बाद घर की सफाई। घर वालों के कपड़ों को धोना-सुखाना, भोजन की व्‍यवस्‍था, बच्‍चों की पढ़ाई का खर्चा और उनकी निगरानी, अपनी शेर-शायरी, अवध कल्‍चरल सोसायटी में उनकी सतत भागादारी, राष्‍ट्रीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के राष्‍ट्रीय सचिव, उप्र में संघ के महासचिव और उसके चलते पूरे उप्र में प्रत्‍येक जिले में संघ के कार्यकलापों पर निगरानी करना कोई चमत्‍कारी व्‍यक्ति ही कर सकता है। लेकिन पापा ने बखूबी किया। बावजूद इसके कि वे दाम्‍पत्‍य-विलगन जैसी आपदा को भी ढो रहे थे।
इतना ही नहीं, आर्थिंक संकट इतना भयावह था कि निक्‍सन मार्केट और इमरान ऐंड संस वाले नीलामी वाले के यहां से यूज्‍ड कपड़े नीलामी में लेते थे। ताकि किसी को उनकी रंगबाजी में कोई कोताही न महसूस सके। सब्‍जी मंडी उठने के बाद बची सब्जियों को वे बोरों में भर कर लाते थे। अक्‍सर तो बेकार या जडि़यानी सब्‍जी। तर्क यह कि सब्‍जी से पेट साफ होता है, और शरीर मजबूत होता है। पूरे समाज में पापा की खासी धाक थी। लेकिन चुपके से वे लालबाग नॉवेल्‍टी के पीछे देशी शराब के ठेके में चले जाते थे, कुछ ऐसे कि किसी को भनक तक न लगे। पत्रकारिता में जिस तरह घृणित व्‍यक्ति हेमंत तिवारी जैसे लोग निकृष्‍ट पोता हैं, वैसे ही और नराधम रहे हैं के-विक्रमराव। दोनों ही ने अपने पूरे जीवन में पत्रकारिता को जितना घटिया स्‍तर तक पहुंचा दिया है, वे किसी के लिए भी शर्मनाक ही है। खैर, वह तो राजनीति थी ही। किसी न किसी को तो मरना ही था। के विक्रमराव जिस निचले स्‍तर तक उतर गये, पापा नहीं कर पाये। नतीजा, यह हुआ कि पापा को यूनियन छोड़नी पड़ी। यही उनके लिए मारक हो गया। तब तक हम लोग कमाने लगे थे। पापा शराब में डूबते गये और एक दिन जैसे ही संकल्‍प लिया कि वे अब शराब नहीं पियेंगे, उसके सातवें दिन ही पापा ने प्राण त्‍याग दिया। यह तारीख 27 जनवरी-85 थी।
मैं पढ़ा तो ज्‍यादा नहीं रहा, लेकिन कढ़ गया। मगर पापा की ही तरह जुझता रहा। समाज की टेढ़ी नजर भी देखी। परिवार को खंडित करते देखा, तो अधिकांश लोगों से मित्र के संबंध के नाम पर आहत भाव भी झेला। अपनों में परायापन देखा, और विश्‍वास में धोखा भी बेहिसाब भुगता। लेकिन सबसे ज्‍यादा भयावह डंक को परिवार में अपनों से ही मिला। बच्‍चों से उपेक्षा भोगी तो कोई बात नहीं, लेकिन सबसे असह्य पीड़ा तो तब हुई, जब दाम्‍पत्‍य चिटक कर बिखर गया। आत्‍मीयता की बिलबिलाती टूटन झेली। बच्‍चों को मजबूत बनाने के लिए मैंने रोजाना 18 से 29 किलोमीटर तक की दूरी स्‍केटिंग उनसे करायी। साथ में रहता ही था। तब भी, जब मेरा पैर में मल्‍टीपल फ्रैक्‍चर हो गया था। लेकिन उसके बाद अचानक एक दिन साशा और बकुल बेटियों ने दंगल फिल्‍म का एक गीत सुनाया, तो मैं दहल गया। गीत के बोल थे कि:- बापू सेहत के लिए, तू तो हानिकारक है।
बाप रे बाप। बच्‍चे अपने बाप को किस तरह देखते और महसूस करते हैं, इसका कुछ-कुछ अलहाम तो मुझे इसके पहले ही हो चुका था। लेकिन मामला इतना ज्‍यादा चला जाता है, इसका अहसास नहीं था। लेकिन जैसे मुझे इस गीत का अर्थ समझ में आया, मैं दहल गया। यकीन मानिये कि मैं हमेशा-हमेशा के लिए फ्रैंज काफ्का के ध्रुव से ठीक विपरीत ध्रुव तक पहुंच गया। इसके बाद से ही मैंने सभी मित्रों, शुभचिंतकों और अभिभावकों को एक किताब पढ़ने की इल्तिजा की है। वसीली अलांग्‍जांद्रोविच सुखोम्लिस्‍की नामक लेखक की इस किताब को जरूर पढि़येगा, जिसका नाम है:- बाल हृदय की गहराइयां।
एक बाप अपने बच्‍चे को मार रहा है, पीट रहा है, डपट रहा है, इसका प्रदर्शन तो समाज में स्‍वत: हो ही रहा है। छवि तो बन ही रही है। लेकिन पीठ-पीछे किन-किन दर्दों, दंशों और डंकों से वह बाप जूझ रहा है, यह बच्‍चों ही नहीं, किसी के लिए भी अकल्‍पनीय है। मैं पहले ही समझ गया था कि मुझ पर पापा द्वारा की जा रही पिटाई तो एक क्षेपक मात्र है, लेकिन असली गाथा तो कितने स्‍नेह, प्रेम, आत्‍मीयता और समर्पण से गुंथी है, मगर असली समझ तो तब हुई, जब पापा मुझ से हमेशा-हमेशा के लिए ब्रह्माण्‍ड-व्‍यापी हो गये। दुख हमेशा सालता ही रहेगा कि हम सच को तब समझे, जब दुलराने वाला ही चला गया।
परिवार में सबके सामने खुद को बड़ा रहने के पीछे उनकी मंशा सिर्फ इतनी ही थी कि उनके बच्‍चे उनसे भी कई गुना ऊंचे हो जाएं। और उसके लिए उन्‍होंने खुद को कितने नीचे पायदान तक उतार लिया था, बाप रे बाप।
त्‍याग की पराकाष्‍ठा रहे हैं पापा।
आई लव यू पापा !

मिच्छामि दुक्कड़म: पापा बोले तो मैं फफक कर रो पड़ा
पापा ! मैं साक्षात बुद्ध हूं, बुद्धू हर्गिज नहीं 
पिता का मतलब तो सियारामशरण त्रिपाठी का बेटा जानता है। आई लव यू पापा 
मंडी में फेंकी गयी सब्जियों का पहाड़ ढो लाते थे पापा, इससे सेहत सुधरती है 
अधिकांश जिलों में जो पत्रकार-संघ हैं, पापा की वजह से 
पापा की मृत्‍य का कारण हैं विक्रमराव, पर हैं वे भी पिता-तुल्‍य 
अरे काफ्का क्या बोलेगा ? पापा के बारे में मुझसे पूछिये ना 
लसोढ़ा चखे पतंगबाजी क्‍या खाक समझोगे ? 
काश ! मैं मर जाता, तो महान बाप बन जाता 
कुमार सौवीर का चिराग तो बहुत पहले ही बुत जाना चाहिए था 
स्‍वतंत्रभारत और पायनियर: निहारिये तो अतीत के अजीमुश्‍शान दस्‍तावेज
बहुत महीन और शातिर होती है बाप की जात 
संकल्‍प लिया कि अब शराब न छुएंगे, और मौत आ गयी 
बेदाग-निष्‍पाप पत्रकार को बेईमान करार दे डाला 
फादर्स डे: यह काफ्का के बाप का नहीं, मेरे प्‍यारे पिता का किस्‍सा है 

2 thoughts on “पिता दिव्‍य अनुभूति है। अहसास बाप के बाद होता है

  1. वाक़ई कितना कुछ सहा है आपने, मेरे पापा ने तो मुझे कभी पीटा ही नहीं, काश कभी मारा होता, लेकिन आपने जो झेला और अनुभव किया है, कमाल है, आपको सलाम पेश करता हूं कि आप मेरे मित्र बन गये हैं,
    धन्यबाद, सादर, आपसे प्रेरणा मिलती राहेगी

  2. दर्द जीवन का और प्यार पापा का। वास्तव में दिल को छू गया पूरा लेख । पापा को सादर नमन🙏

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