पत्रकारिता छोड़ बाकी हर गन्‍ने के तेली हैं ब्रजमोहन सिंह, महिमा अपरम्‍पार

मेरा कोना

: अपने कार्यक्रमों में नियमित रूप से महिमा व सना वगैरह की नुमाइश जरूर कराते हैं : पूरी पत्रकारिता फ्रेंचाइजी पर टिकी : गब्रजमोहन को एक सपा नेता ने एक मकान दे दिया नोएडा में, मस्‍ती के लिए : नयी शैली का कोल्‍हू- एक :

कुमार सौवीर

लखनऊ : गजब आदमी हैं ब्रजमोहन सिंह। नाम है वृंदावन-मथुरा और ब्रज जैसा, लेकिन रहने वाले हैं गोरखपुर के। बांसुरी बजाने का हुनर भगवान ने उन्‍हें नहीं दिया, तो क्‍या हुआ। वे मुम्‍बई की बड़ी-बड़ी हेराइनों को राधाओं की तरह अपनी उंगलियों से नचाते रहते हैं। एक राधा ने कृष्‍ण को भगवान बना दिया, लेकिन कई-कई फिल्‍मी राधाओं को ब्रजमोहन ने सुब्रत राय की लाइन पर डाल दिया। ऐसी फिल्‍मी राधाओं के बल पर ही यह कृष्‍ण दौलतमंद हो गया।

तो बोलो ब्रजमोहन महराज की जय

शंख बजाओ पूं पूं पूं, और घंटा बजाओ टन्‍न टन्‍न टन्‍न

हर पानी पैठने की कला में सिद्धहस्‍त हैं ब्रजमोहन सिंह। रहने वाले हैं गोरखपुर के। एक दौर का शीर्ष अखबार हुआ करता था दैनिक स्‍वतंत्र भारत। लेकिन बाद में केके श्रीवास्‍तव जैसे कई धंधेबाज लोगों ने इस अखबार को इतना बजा डाला, कि पूरा का पूरा अखबार ही लस्‍त-पस्‍त हो गया।

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पत्रकार पत्रकारिता

स्‍वतंत्र भारत में ही काम कर चुके एक वरिष्‍ठ पत्रकार बताते हैं कि इस अखबार के नाम पर यह लोग अपनी देनदारियां निपटा देना चाहते थे, इसीलिए इस अखबार की बोटी-बोटी नोंच डाली गयी। जब कंकाल बच गया, तो अरविंद सिंह जैसे लोग किसी कुशल लकड़बग्‍घे की तरह झपट ले गये। उसी दुर्दिन के दिनों में ही अरविंद सिंह ने ब्रजमोहन सिंह की प्रतिभा को पहचाना और उन्‍हें गोरखपुर का जिम्‍मा थमा दे दिया।

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ब्रजमोहन के अनुसार पत्रकारिता में वे 17 साल पहले आये थे। सूत्र बताते हैं कि तब बुरी तरह कांखते-कराहते दैनिक स्‍वतंत्र भारत से जुड़ कर ब्रजमोहन सिंह की जिन्‍दगी ही बदल गयी। नये-नये गुरू मिलते गये, नये-नये हुनर का सामना पड़ने लगा। प्रशिक्षण भी तीखा चल रहा था। नाम तो कहने के लिए खबर का होता था वहां, लेकिन खबरों के अलावा सारा कामधाम वे देखते, करते और कराते तो थे ही, कमाई के नये फलक भी खोजा, खोदा और निचोंडा जाते थे। भले ही अब तक जिन्‍दगी की चिरकुटई तक होती रही, लेकिन स्‍वतंत्र भारत में वे आसमान तक पहुंच गये। जहां ऐश्‍वर्य, धन, सम्‍मान, जुगाड़, तानाबाना, कैमिस्‍ट्री, दंद-फंद सब पसरा होता था। मार्ग तो पत्रकारिता के नाम पर था ही।

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तो साहब, ब्रजमोहन सिंह ने भले ही 17 साल पहले पत्रकारिता का झण्‍डा उठा कर किया, लेकिन जल्‍दी ही उन्‍हें अहसास हो गया कि पत्रकारिता का झण्‍डा अगर ज्‍यादा देर तक उठाये रखेंगे, तो बहुत ही जल्‍दी झण्‍डू-बाम हो जाएंगे। जाहिर है कि तब तक उनके सपनों ने करवट लेना शुरू कर दिया था। सफलता के नये-नये तरीके खोज ही चुके थे। समझ चुके थे कि अगर जिन्‍दगी में कुछ ठोस सफलता हासिल करना होगा, तो उसके लिए उन्‍हें कैसे भी हो मोटे केस हासिल करने होंगे, और उसके लिए बहुत परिश्रम करना होगा। जाहिर है कि यह काम पत्रकारिता से तो हो नहीं सकता था, हां पत्रकारिता की जमीन पर खड़ा होकर वे दिग्विजय हासिल कर सकते हैं।  इसलिए उन्‍होंने हर रंग का धंधा शुरू किया। बिलकुल गिरगिट की तरह। जहां ऐसा माहौल मिला, जुट लिये और वहां के सारे गन्‍ने चूस कर फेंक डाले।

तो बोलो ब्रजमोहन महराज की जय

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(क्रमश:)

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दास्‍तान-ए-डरपोंक


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