पारसनाथ यादव : नाम व डीलडौल तो बड़ा, दिल बौना

दोलत्ती

: पूर्वांचल में जनता नहीं, सपा का स्‍तम्‍भ थे पारसनाथ : सामंती ठाकुरों की सत्‍ता को मिट्टी में मिलाने को मुलायम सिंह यादव का चमत्‍कार चला : यदु-क्षमता को अक्षौहिणी में तब्‍दील कर दिया :
कुमार सौवीर
जौनपुर : पारसनाथ यादव जितना बड़ा नाम था, उतना ही बड़ा कद और डील-डौल। लेकिन सच बात यही रही कि दिल के मामले में पारसनाथ यादव बहुत ओछे और बौने ही बने रहे। निहायत छोटे-छोटे स्‍वार्थों के लिए उन्‍होंने अपनी प्रतिष्‍ठा तक को दांव पर लगा दिया और अंतत: अपना नाम ही बदरंग चेहरा के तौर पर कुख्‍यात हो गया।
हालांकि आज तो पारसनाथ पंचतत्‍व में विलीन हो चुके हैं, लेकिन जब उनके पांचों तत्‍व मौजूद थे, वे केवल मुलायम सिंह यादव के साथ ही जुड़े रहे। कहा जाता है कि पारसनाथ ने मुलायम सिंह यादव से अलग होने की कल्‍पना भी नहीं की थी। लेकिन सूत्र यह भी बताते हैं कि यह भी एक रणनीति थी पारसनाथ यादव की। दरअसल, पारसनाथ खूब समझ चुके थे कि यह पूरा जिला ठाकुर और यादव बहुल है। राजनीति की शुरूआत में ही पारसनाथ यादव की शातिर निगाहों ने भांप लिया था इस जिले में अगर एकछत्र ताकत बनना है, तो उसके लिए ठाकुरों को औकात में रखना पड़ेगा। पारसनाथ यादव यहभी खूब समझते थे कि अगर यह ऐसा युद्ध करने की जुर्रत करते हैं, तो उसका अंजाम बहुत बुरा भी हो सकता होगा। वजह यह कि उस दौर में यादव केवल अखाड़े में ताल ठोंकते थे, मुगदर भांजते थे। लेकिन उससे बाहर निकल पाने की न तो उनमें समझ थी और न ही एकजुट ताकत।
पारसनाथ खूब समझ गये कि इस युद्ध को सिर्फ जौनपुर के पिद्दी भर या चंद यादवी अखाड़ाबाजों से ही नहीं निपटा जा सकेगा। उसके लिए उन्‍हें प्रादेशिक यादव नेता की जरूरत होगी, जिसके कांधे पर वे जौनपुर के यदु-क्षमता को अक्षौहिणी सेना में तब्‍दील कर यहां के यादवों के कांधों पर जातीय तोपें टिका कर सफलतापूर्वक निशाने पर गोले दाग सकें। पारसनाथ को मुलायम सिंह यादव से बेहतर नेता कोई नहीं मिला। वजह यह कि मुलायम सिंह यादव न केवल पिछड़ी जाति के दिग्‍गज नेताओं में शुमार हो चुके थे, बल्कि अपराध जगत से जुड़े कुख्‍यात लोगों के साथ उनके खासे-अच्‍छे सम्‍बन्‍ध भी थे। पारसनाथ को मुलायम के तौर पर अपना रणनीतिक अराध्‍य कृष्‍ण मिल गया, जो उसकी जरूरत पड़ने पर सारथी भी बन सकता हो। उधर अयोध्‍या में हुए गोलीकांड और रक्‍तपात का लाभ मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी की जेब में अच्‍छाखासा आ चुका था। मुलायम सिंह यादव की करीबी के चलते पारसनाथ ने उस जेब में भरे अकूत राजनीतिक लाभ को स्‍वाभाविक रूप से लूट लिया।
लो काम बन गया।
मडि़याहूं से लेकर रामनगर राजनीतिक तौर पर ठाकुरों का बोलबाला था। पारस इसी इलाके के रहने वाले थे और ठाकुरों की सामंती कार्रवाइयों में खुद को दमित महसूस करते रहे थे। हालांकि यहां यादव भी बेशुमार थे, लेकिन उनकी कीमत राजनीतिक तौर पर नहीं थी। लेकिन मुलायम का प्रश्रय होते ही दबे यादवों ने इस पूरे इलाके को मथुरा और द्वारिका में तब्‍दील करना शुरू कर दिया। यदुवंश का झंडा फरफर फहराने लगा। अचानक हुए इस राजनीतिक तूफान को ठाकुर समझ नहीं पाये और अचानक बाजी हार गये। पारसनाथ यादव विधानसभा पहुंच गये तो यादवों को लगा कि पारस के माध्‍यम से वे पूरे देश की राजनीति को राष्‍ट्रीय जीत का पहला पायदान बन सकेंगे। और फिर यह दिग्‍विजय शुरू हो गया। तीर-तूरीण जैसा दर्प और घमंड हर यादव की वेशभूषा में शामिल होने लगा। ठाकुरों का गढ़ माने जाने वाले टीडी कालेज में भी यादवी मल्‍लयुद्ध के ताल ठोंकनी शुरू हो गयी। छात्रसंघ में दखल बढ़ने लगा।
और यह सब पारसनाथ यादव की ही रणनीतियों का अंजाम था। पारसनाथ ने राजनीति में अपराध का एक जबर्दस्‍त तड़का-छौंका लगाना शुरू कर दिया कि विरोधी चारों खाने चित्‍त होने लगे। मुख्‍तार अंसारी और अभय सिंह जैसे लोगों को भी पारसनाथ ने सहारा देना शुरू कर दिया। एक दौर तो ऐसा हुआ कि मुख्‍तार अंसारी अपनी चुनावी मंचों पर एक सुर में पारसनाथ और मुलायम सिंह यादव के प्रशस्ति-गीत गाने लगे। उधर पारसनाथ ने खुद को महबूब कहना शुरू कर दिया। महबूब और मुख्‍तार यह दो शब्‍द उस दौर में चमत्‍कारिक माने लगे थे। इसका असर मुस्लिम वोटों पर पड़ा। सटीक निशाना लगा, और पारसनाथ लगातार अजेय बनते ही रहे।

पुलिस और प्रशासन तो पारसनाथ यादव की चेरी-दासी बन चुकी थी। उस वक्‍त का एक सीओ-सिटी ओपी पाण्‍डेय के बारे में तो लोग बताते थे कि पारसनाथ यादव का चरणोदक-चरणामृत ग्रहण किये बिना वह अपना दैनिक क्रिया भी नहीं शुरू करता था। बहरहाल, पारसनाथ की राजनीति का अहम पहलू तो यह रहा कि अपने मडियाहूं से लेकर पूरे जिले में पारसनाथ यादव ने ठाकुरों की सामंती व्‍यवस्‍था को नेस्‍तनाबूत करते हुए अपने पक्ष में लोकतंत्र को मोड़ा था, अपनी जीत के ठीक बाद से ही पारसनाथ यादव इस पूरे इलाके में जातीय यानी यादवी सामंती व्‍यवस्‍था के इकलौते सम्राट बन गये।
मैंने एक बार दिल्‍ली से लखनऊ लौटते वक्‍त पारसनाथ यादव मुझे रेलवे स्‍टेशन पर मिल गये। मैं सेकेंड एसी में था, जबकि उसी बोगी के एसी फर्स्‍ट के कम्‍पार्टमेंट में वे यात्रा कर रहे थे। अपना यह सवाल मैंने पारसनाथ यादव से एक बार पूछ लिया था कि आपने तो सामंतवादी व्‍यवस्‍था के खिलाफ युद्ध किया, लेकिन आप अब खुद ही एक बड़े सामंत साबित होते जा रहे हैं। आखिर क्‍यों। पारसनाथ का चेहरा काफी विद्रूप हो गया था मेरे सवाल पर। बोले, इस बारे में विस्‍तार से बातचीत करेंगे हम लोग।
यानी अब लगता है कि इस सवाल का जवाब हासिल करने के लिए मुझे अब पारसनाथ यादव के पास ऊपर जाना पड़ेगा। और यकीन मानिये कि मैं फिलहाल इस मूड में नहीं हूं। ( क्रमश: )

पारसनाथ यादव, यानी पूर्वांचल का एक दिग्‍गज समाजवादी पार्टी का पहरूआ। छह बार विधायक, तीन बारमंत्री, और दो बार सांसद। आज खबर मिली है कि पारसनाथ यादव की मृत्‍यु हो गयी है। वे कैंसर से पीडि़त थे। लेकिन उनका जीवन पूर्वांचल में एक निहायत शांत-भाव में स्‍वार्थी राजनीति में कुटुम्‍ब की समृद्धि और उसके लिए जघन्‍य अपराधियों और शातिर बदमाशों को प्रश्रयदाता से ज्‍यादा नहीं रहा। राजनीति में अपनी दूकान चमकाने के लिए पारसनाथ ने एक दांव चलाया, जिससे सपा में बड़े नेता भी उनके दांव में चारोंखाने चित्‍त हो गये। एक नारा लगवा दिया कि पारसनाथ यादव यूपी के मिनी मुख्‍यमंत्री हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *