: फ्रांस और उस पर कट्टरवादियों से परे से भी कई सवाल : केवल सच यही नहीं होता है, जो अब तक दिखता रहा, सच उससे परे भी होता है : त्रिभुवन और निहालुद्दीन उस्मानी का नजरिया भी देखो :
दोलत्ती संवाददाता
लखनऊ : ऐसा नहीं है कि ऐसे नजरिया केवल एंकागी या फिर सर्वमान्य ही रहा है। यहां जहां मैं जिन दोनों शख्सियतों के बारे में बात कर रहा हूं, वे देश के प्रमुख दो विभिन्न धर्मों से जुड़े लोगों खास या आम लोगों के नजरिये हैं।
एक तो हैं देश के एक प्रख्यात पत्रकार त्रिभुवन, जो उदयपुर के भले ही रहने वाले हों, लेकिन वे देश ही नहीं, बल्कि आम समग्र जन-समाज की आवाज पढ़ते, बोलते और समझते भी हैं। जबकि हैं करीब दो दर्जन भाषाओं के प्रकांड पंडित निहाल उद्दीन उस्मानी, जो बहुत कम बोलते या लिखते हैं। लेकिन जब भी लिखते हैं, तो अच्छे-अच्छों की पतलून ढीली कर देते हैं।
इन दोनों ने हाल ही नहीं, बल्कि पिछले करीब चालीस बरसों में जातीय हिंसा वाली हरकतों को बेहद करीबी से देखा और समझा ही नहीं, बल्कि उनके मूल कारणों का विश्लेषण भी किया है।
तो पहले निहाल उद्दीन उस्मानी की शब्दों में उनकी पीड़ा को समझने की कोशिश कीजिए। उन्होंने लिखा है कि :- मेरे मन में किसी धर्म के प्रति द्वेष की भावना नहीं है। परन्तु 90 के दशक में जब राम मंदिर आन्दोलन अपने चरम पर था और उस समय जो माहौल सृजित किया गया था , तब मैं किसी को जय श्रीराम का नारा लगाते हुए सुनता था तो लगता कि कोई मुझे गाली दे रहा है. सामान्य होने में मुझे काफ़ी समय लगा था. कुछ वैसी ही फीलिंग आजकल उस समय होती है जब कोई इस्लाम का गुणगान करता है , हालांकि मैं फ्रांस की घटना का समर्थन कतई नहीं करता.
दूसरा नजरिया है त्रिभुवन का। उन्होंने लिखा है कि:- अब बताओ क्या फ़र्क़ है इन दोनों में? आज कुछ को एक तो कुछ को दूसरा जेहादी लगता है। एक योगी है और दूसरा शायर। एक धर्म का प्रतिनिधि है और दूसरा साहित्य का। दोनों को समाज के लोगों ने सिर आँखों पर बिठाकर रखा है। देश और दुनिया के वातावरण को राजनीतिक स्वार्थियों और कट्टरपंथी लोगों ने इतना विषाक्त बना रखा है कि अगर एक योगी और एक शायर अपने विवेक से विचलित हो सकते हैं तो आम आदमी को तो क्या ही कहें।
सच तो ये है कि असल में थे तो दोनों ही हिंसक और कट्टरपंथी; लेकिन एक धर्म और राजनीति के घालमेल से सत्ता का धंधा कर रहा था और दूसरा भावनाओं को शायरी में घोलकर लफ़्ज़ों की तिजारत से अपनी दुकान चला रहा था। लोग अपनी-अपनी कट्टरता की कारा के बंदी होकर देश और दुनिया के वातावरण को ख़राब करने में जाने-अनजाने ही सहयोगी बने हुए हैं। दरअसल मनुष्य को विवेकशील होने की ज़रूरत है। न इस्लाम मनुष्यता विरोधी है और न ही सनातन धर्म। हिंसक और कट्टरपंथी सदा से थे, हैं और रहेंगे। उन दोनों की भर्त्सना ज़रूरी है!