कौमी आवाज: ओबैद नासिर परोस रहे हैं रोचक जानकारियां

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: एसोसियेएटेड प्रेस का एक बुलंद स्‍तम्‍भ हुआ करता था कौमी आवाज : ऐसे थे हमारे सम्पादक शीर्षक से तैयार इस लेख में संघी-विचारधारा के प्रति घृणा से भरे दिखते हैं लेखक : वर्तनी का भयावह गलतियों से भरा-अटा हुआ है यह लेख :

 

ओबैद नासिर

लखनऊ : मेरी पत्रकारिता कौमी आवाज़ के रिपोर्टर कम उप सम्पादक के तौर पर १९८८ में शुरू हुई थी उस समय पद्मश्री इशरत अली सिद्दीकी मुख्य सम्पादक और श्री उस्मान गाणी सम्पादक थे दिल्ली एडिशन के सम्पादक मोहन चिरागी साहब थे। आइये अपने सम्पादकों से अपका परिचय कराते हैं

१- पहले और फाउंडर एडिटर हयात उल्लाह अंसारी :- इन्हें नवीन उर्दू पत्रकारिता का बाबा आदम कहा जाता है इन्होने उर्दू पत्रकारिता और उसकी भाषा शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन किये और इसे अंग्रेजी पत्रकारिता के समक्ष खड़ा किया उर्दू को अरबी और फ़ारसी के साए से निकाल उसका शुद्ध भारतीयकरण किया कई शब्दों के हिज्जे (स्पेलिंग ) बदली उनकी सबसे बड़ी सिफत उनकी चौ मुखी लड़ने की क्षमता थी। वह संघियों और मुज्संघियों दोनों से एक साथ लड़ते थे कांग्रेस के द्क्षिन्पंथियों से भी उनकी जंग चलती रहती थी खुद चूँकि वरिष्ट कांग्रेसी थे बापू के यहाँ परवरिश हुई थी उन्होंने ने ही उनकी शादी कराई थी जवाहर लाल नेहरु से घरेलु सम्बन्ध थे इसलिए उनसे नीचे के किसी कांग्रेसी को वह सेठते नहीं थे उर्दू के मुजाहिद थे उसके लिए वह गोबिंद बल्लभ पन्त सम्पूर्नानद सी बी गुप्ता जैसों से खुल के लड़ते थे। अखबार की आर्थिक स्थिति खराब हुई तो केवल एक रूपया सैलरी पर सालों काम किया गर्म शेरवानी नही बनवा पाए तो दिसम्बर जनवरी की सर्दी में बदन पर अखबार लपेट कर ऊपर से खद्दर के शेरवानी पहन लेते थे एक बेटी के इलाज के लिए पैसा नहीं जुटा पाए तो उसको खो दिया। बाद में विधान परिषद् और राज्य सभा के सदस्य बने।

२- पद्मश्री इशरत अली सिद्दीकी :- यह भी फाउंडर ग्रुप में थे हयात उल्लाह साहब के बाद एडिटर फिर चीफ एडिटर बने पक्के गाँधी वादी आखिर समय तक सिर्फ खद्दर पहना हमेशा कपडे अपने हाथ से धो कर पहनते थे दफ्तर में दिन भर जमे रहते थे सिर्फ दो केले खा के दिन गुज़ार देते थे एक पिन भी फर्श पर पडी देखते तो न सिर्फ उठा के रख देते बल्कि स्टाफ को डांटते भी थे इंदिरा जिनके साथ विदेशी दौरे पर गए तो चेयरमैन यशपाल कपूर ने उन्हें विदेशी मुद्रा की एक बड़ी रकम खर्च करने को दी वापस आ कर उसे वापस करने लगे तो कपूर साहब ने कहा यहतो आपको खर्च के लिए दिया था बोले इंदिरा जीके साथ गया उनके साथ रहा उनके साथ खाया पिया इसलिए कुछ खर्च ही नही हुआ यह हयातुल्लाह साहब की तरह चुमुखी तो नही लड़ते थे लेकिन उसूलों से समझौता भी नहीं करते थे न कभी कलम का सौदा किया न अपने जमीर का। यह भी बहुत सरल और भारतीय उर्दू लिखते थे बल्कि पुराने शब्दों और मोहाव्रों का खूब प्रयोग करते थे हमेशा मोटे साइकिल को फटफटिया ही कहा और लिखा गुड खाए गुलगुलों से परहेज़ सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली आदि मोहाव्रे बहुत लिखते थे बी;लकी कभी कभी तो सम्पादकीय शीर्षक ही बना देते थे मालूमात का खज़ाना थे हम जूनियर लोग खुद उनसे पूछने की हिम्मत नहीं कर पाते थे तो खुद डेस्क पर आ कर कुछ पूछ लेते और फिर युस्न्पर आधा घंटा लेक्चर दे के स्म्झाते थे हमेशा डांटते रहते थे जिसमे बुजुर्गों वाली मोहब्बत छुपी होती थी जिसको न डांटते वह स्म्झ्ताथा अज इशरत साहब उस से नाराज हैं।

उस्मान गनी साहब:- सुना है तीसरे खलीफा हजरत उस्मान गनी बहुत सीधे मुरववत दार और खुले हाथ वाले थे अल्लाह ने यह सारी खूबियाँ उस्मान साहब में इकट्ठा कर दी थीं न करना जानते ही नहीं थे ,कोई अगर चिड़िया का दूध भी मांगे तो उस्मान साहब यह नहि कह पाते थे की चिड़िया दूध नहि देती बल्कि कहते अच्छा देखिये कोशिश करता हूँ उनके बारे में लोग कहते थे की राजनीत से लेकर फल्कियात (स्पेस साइंस )तक के मामले में उस्मान साहब एक्सपर्ट हैं उनकी नालेज गजब की थी साहित्य विज्ञान धर्म डिप्लोमेसी आदि कोई विषय ऐसा नहीं था जिसपर उनकी मज़बूत पकड़ न हो उपर्युक्त तीनो सम्पादकों से अलग उस्मान साहब की भाशाशैली में साहित्यिक पूट होता था उनकी नसर (गध्य ) नज्म का मजा देती थी सम्पादकीय के लिये उर्दू के महान कवियों के अशार कोट करने में बेमिसाल थे।

मोहन चिरागी :-यह दिल्ली एडिशन के एडिटर थे इस लिए हमारा ज्यादा साथ नहीं रहा जब दिल्ली जाता या वह लखनऊ आते तो मुलाक़ात होती थी बहुत मोहब्बत और ख़ुलूस वाले आदमी थे दिल्ली का स्टाफ उनकी तारीफें करता था चूँकि एडिटोरियल एक ही होता था जो उस्मान शब् लिखते थे इस लिए वह कालम लिखते थे लेकिन उनकी उर्दू लखनऊ वालों के मिज़ाज पर फिट नहीं बैठती थी वह कौमी आवाज़ को जिंदा रखने के लिए आखिर डीएम तक जद्दो जेहद करते रहे।

आज इन चरों में से मोई हमारे बीच नहीं लेकिन वह हम सबको कलम पकड़ना सिखा गए और उनका यह क़र्ज़ हम सब मरते दम तक अदा नहीं कर पायेगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *