निष्ठुर-निर्मम दौर में आ पहुंचा लाकडाउन-काल

दोलत्ती

: निम्नवर्ग में गूँजनी लगी हैं दुर्दशा की बेआवाज़ चीत्कार : स्कूल जाने वाले मासूम अब भीख मांगने लगे :
वीरेंद्र सेंगर
गाजियाबाद : लाकडाउन काल अब बहुत निष्ठुर और निर्मम दौर में आ पहुंचा है।जरा भी अपने घेरे से निकलिए।बाहर झांकिए।और गरीब बस्तियों की आहट भर लीजिए।बिना ध्वनि की चीत्कारें आपका दिल चीरकर रख देती हैं।अजीब मुर्दनी सी छा गयी है ,इन बस्तियों में।भूख और रोटी न मिलने की आशंका इन्हें बेचैन किये है ।वे यही सवाल करते हैं, बाबू जी ये किरौना कब बिदाई लेगा?रामनायक का सवाल था। रामनायक नोएडा के गेझा गांव में रहता है।वैसे ओडिशा का रहने वाला है।साल में एक या दो बार अपने देस जाता है।परिवार वहीं रहता है।यहां किराए के कमरे में तीन अन्य साथियों के साथ रहता है।पेशे से प्लंबर है।लेकिन एक साल पहले एक अपार्टमेंट से नौकरी छूट गयी थी।सो खुदरा काम करता आया है।अब सब ठप है।गांव हर महीने खर्च भेजता था।वहां पत्नी और मां.बीमार है।वहां से रोज फोन आता है।उधार लेकर कुछ भेजा था।अब किससे मांगे?सारे साथियों का हाल तो ऐसा ही है।
गेझा गांव सेक्टर 93 में आता है।इसके पास ही यहां आठ .दस बड़े अपार्टमेंट हैं।जिनमें उच्च मध्यवर्गीय परिवार रहते हैं।इनके फ्लैटों में काम करने वाली बाई यानी मेड यहीं रहतीं हैं।सुरक्षा गार्ड ,माली व साफ सफाई करने वाले रहते हैं। अपार्टमेंट में गार्ड और चतुर्थ श्रेणी के कर्मियों पर आमतौर पर संकट नहीं आया है।लेकिन करीब तीन हजार मेड संकट में हैं।क्योंकि ये घरेलू काम पार्ट टाइम ही करती हैं।आमतौर पर एक एक मेड चार छह जगह काम कर लेती है।ऐसे वे अपने मर्दों से ज्यादा कमाती रही हैं।इनके मर्द रिक्शा चलाने जैसे काम करते हैं।ज्यादातर दारू पीने जैसे ऐब भी पाल लेते हैं।घर आने वाली बाइयों का ये रोज का रोना झींकना होता है।वे काम करते करते मेम साहिबान को अपना दुखड़ा सुनाती रहती हैं। खैर,गरीब बस्ती का यह अपना समाज शास्त्रीय पहलू है। लेकिन जब संकट रोटी पर आता है तो इनकी जिंदगी का नरक ज्यादा ही रौरव होने लगता है।आज शाम लंबे अर्से के बाद गेझा बाजार गया।ग्रासरी सहित तमाम दुकानें खुली थीं।अपार्टमेंट के पास ही है, यह बाजार।एक अजब नजारा देखकर हैरान रह गया ।
कुछ दुकानों के पास चार से लेकर सात आठ साल के बच्चों के झुंड़ थे।कम से कम पचास बच्चे जरूर रहे होंगे।ये सब रोटी के लिए पैसे मांग रहे थे।बारह सालों से यहां रह रहा हूं ।यह दृश्य एक सदमे जैसा लगा। .
थोड़ी पड़ताल कर डाली।यही बताया गया कि आठ दस दिनों से ही ये बच्चे भीख मांग रहे हैं।ज्यादातर प्राईमरी स्कूल में पढते हैं।कुछ बच्चियां भी थीं।कुछ मांगते वक्त शरमा रही थीं।एक से कुछ पूछ लिया तो रो पड़ी।उसकी आंखें डबडबाई थीं।मां बापू का काम छूटा है।वो बोली ,आज पहली बार भीख मांगने निकली तो मा खूब रोई थी।वो कह रही थीकि भगवान इतने बुरे दिन हम गरीबों को क्यों दिखा रहा है?
कोरोना से बचाव के साथ जहान की चिंता शुरू हुई है।प्रशासन के साथ अपार्टमेंट के आर डब्लू ए के अपने कानून हैं।बहसें हैं।विवाद हैं।मेड के बगैर दिक्कतें हैं।जेर ए बहस है कि एक मेड एक ही फ्लैट में काम करे।सवाल है कि उसकी पूरी पगार का क्या होगा?
बहस है कि मेड एक फ्लैट में काम करेगी तो क्या गारंटी है कि वो दूसरे अपार्टमेंट में चुपके से नहीं करेगी?सवाल दर सवाल हैं।यही कि वो दढ़बों रहती हैं, सो संक्रमित होने के ज्यादा चांस हैं।जनाब ! हमारे ही अपार्टमेंट में ही मेल पर ज्ञानियों ने करीब पचास सुझाव एक घंटे में दे डाले।तीन दिन से बहस जारी है।फैसला रुका हुआ है।खाते पीते नव अमीरों को सेवाएं तो सब चाहिए।लेकिन धारणा यही रहती है कि गरीब ही संक्रमण के वाहक हैं।रिटायर प्रशासनिक अधिकारी गण काफी हैं।सो उनके कुछ सुझाव भी हवा हवाई किस्म के होते हैं।भारत सरकार में बड़े ओहदे से रिटायर हुए साहब का सुझाव रहा कि मेड से शपथपत्र ले लिया जाए?इसमें ज्यादा आगे नहीं जाते।जब सवाल किया गया कि क्या बाई को भी शपथपत्र दिया जाएगा कि उसे फ्लैट मालिक के यहां से संक्रमण लगे तो पूरा हर्जाना वो भरेगा?जाहिर.है कि ये सवाल किसी साहब को रास नहीं आया।मुख्य गेट के बाहर रोज सुबह कुछ बाइंया रुका हुआ फैसला जानने आती हैं ।और मायूस होकर लौट रही हैं।आज गेझा में एक बाई मिल गई, जो कभी हमारे यहां भी सेवा दे चुकी थी।वह दुखी भी थी और गुस्से में भी थी।
बाबूजी बताओ?आपके यहां गारड और सफाई वाले हमारी तरह ही रहें।वे सब काम पर जांए।जू कि उनके बगैर आपका काम न चलै।उनसे तो किरौना न फैलो।गरीब बाइंया से इतना डर काहे को?बाई के तर्क का सही जवाब मेरे पास नहीं था।यही कहा, अभी फैसला हो नहीं पाया है।उसकी आंखें भर आयीं थीं।बोली, सर! गरीब से सबै छल कर लें।चाहे सरकार हो यह आप लोग ।आंसू पोछते पोछते शायद उसे लगा कि वो ज्यादा कड़क बोल गयी है।सो बात सभांली।कहा ,दुख में कुछ गलत बोल गयी तो माफी चांहू!मैं कुछ क्षणों के लिए अवाक रह गया।उसके दर्द भरे शब्द बेचैन कर रहे थे।जाते जाते वो बोल गयी।जिन अपने बच्चों को पेट काटकर पढाते हैं, उन्हें सिपाही जी और टीचर जी बनाने का सपना रहा।अब मजबूरी में पैसा टके मांगने के लिए कलेजे में पत्थर बांधकर भेजते हैं।लगता है कि भगवान किरौना क्यों भेजा?सीधे हमको मौत काहे नहीं भेज दिया।हम सबै पर भार हैं।सरकार पर भगवान पर।वो आगे बढते हुए बड़बडा़ए जा रही थी।मैं तो कब का निशब्द हो चुका था!

1 thought on “निष्ठुर-निर्मम दौर में आ पहुंचा लाकडाउन-काल

  1. प्रकाशित खबरों से लगता है कि निष्पक्ष पत्रकारिता को आप ऐसे पारदर्शी पत्रकारों की आवश्यकता है

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