लीजेंड्स ऑफ बनारस: तबले का शाहंशाह किशन महराज

मेरा कोना

चुपके से जेब में डाली गयीं कई अंगूठियां अभी भी हैं किशन पास

: लीजेंड्स ऑफ बनारस ( तीन ) : तबले पर काशी का डंका जिन्‍दगी भर बजाता रहा तबले का कृष्ण कंहैया : पैदा होते ही कान में फूंक दिया गया था शास्त्रीय संगीत का मूल मंत्र : तबले के सामने कभी भी पाल्‍थी नहीं, बल्कि बज्रासन ही हमेशा लगाया : रखैल को तीस साल तक रखने के बाद अचानक छोड़ना जैसा धब्‍बा जरूर लगा किशन महराज पर :

वाराणसी। जिन्दगी का यह सफर भी खूब रहा। पैदा होते ही घर के मुखिया ने एक कान में शास्त्रीय धुन और दूसरे कान में तबले की थाप सुनाकर वह स्फूर्ति भर दी कि नौ साल की उम्र में ही इस बाल कलाकार ने सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू कर दिया। बारह साल की उम्र में काशी में मिली पहली सार्वजनिक चुनौती का सफलतापूर्वक सामना किया और 16 साल की आयु तक पहुंचते-पहुंचते बम्बई में महाराज कश्मीर हरीसिंह द्वारा आयोजित संगीत प्रतियोगिता में महान गायिका सिद्धेश्वरी देवी के साथ संगति कर डंका बजा दिया। यह बात है सन 39 की। इस बीच में ही हालात कुछ इस तरह से सलीके से जुड़ते गये कि कृष्ण प्रसाद मिश्र का नाम संगीत की दुनिया में किशन महाराज के नाम से मशहूर हो गया।

लेकिन यह महज संयोग भी कहां रहा? किशन महाराज का जन्म 3 सितंबर सन 1923 को काशी में हुआ था। यह दोहरी प्रसन्नता का दिन था। एक तो बेटे का जन्म और वह भी जन्माष्टमी के मौका। कृष्ण अष्टमी वाले दिन वक्त था रात के ठीक बारह बजे। यानी ठीक कृष्ण जन्म का ही समय। उनके पैदा होते ही परंपरानुसार दाई ने आवाज दी। घर के मुखिया ने उसी कक्ष में आकर किसी पवित्र मंत्र की तरह संगीत व तबले की धुन बच्चे को सुनायी। यानी तय हो गया कि यह बच्चा भी रिवाज के मुताबिक तबला ही बजायेगा। और कृष्ण से किशन बने बच्चे ने जल्दी ही कृष्ण की तरह मुरली के स्थान पर तबला और बांया सम्भाल लिया। यह व्यवसाय इस परिवार में पिछले करीब दो-ढाई सौ साल से चला आ रहा था। घर की महिलाओं को छोड़ कर हर सदस्य एक साथ विभिन्न वाद्य यंत्रों अथवा गायन में ताल-संगत देता था। परिवार एक पूरी टीम बनता था।

खैर संगीत शिक्षा का भार उठाया ताऊ पं कंठे महाराज ने। तब दो ही तबला वादक थे। एक कंठे तो दूसरे अहमद जान थिरकुआ। कंठे महाराज की तूती बोलती थी काशी में। तो कृष्ण प्रसाद कंठे महाराज के शिष्य बन गये। शुरूआत की त्रिताल से। परिचितों की संगीति का पहला मुकाबला जीतने के बाद नागरी प्रचारिणी सभा में काशी स्तरीय एक मुकाबले में हमउम्र लेकिन अनुभवी डांसर के साथ प्रदर्शन का मौका मिला। वाहवाही तो जैसे कदम ही चूमने लगी थी तब। लेकिन बम्बई मुकाबले के बाद तबले से पैसों की बौछार की शुरूआत हो गयी। अचानक ही दो प्रतिभाओं का संगम हो गया। पं रविशंकर के साथ किशन महाराज की जुगलबंदी सन 43 से 54 तक खूब चली। देश विदेश में इंडियाज चार्मिंग पेयर के नाम से मशहूर इस युवा जोड़ी पर महिलाएं भी मर मिटीं। किशन महाराज को खूब याद है कि उनके जेबों से प्रेमपत्र और हीरे-सोने की अंगूठियां निकलती थीं। लेकिन कभी भी किसी ने अपनी पहचान जाहिर नहीं की। इसी बीच विवाह हो गया।

किशन महाराज ने जीवन को अपने ही ढंग से जिया। पाल्थी मार कर कभी भी तबले के सामने नहीं बैठे। इसके लिए बज्रासन ही अपनाया। वे बताते हैं कि रामनामी माला जपते समय हनुमानजी पाल्थी मारते थे, लेकिन गदा उठा कर यु्द्ध के लिए प्रस्तुत होते समय वे बज्रासन पर ही आते थे। केवल प्रदर्शन ही नहीं, पूरी-पूरी रात रियाज करते समय भी बज्रासन पर ही बैठते थे। हम यु्द्धस्तरीय तैयारियां करते हैं। किशन महाराज के मन की पीड़ा तब उठती है जब वे क्रिकेट में करोड़ों की सम्भावनाओं के सामने संगीतज्ञों की हालत देखते हैं। उन्हें दुख है कि संगीत के लिए कुर्बान तक हो जाने वाले अधिकांश संगीतज्ञों का आज कोई भी सम्मान नहीं। खुद मैंने लाखों टुकड़े तबले पर मारे, मगर किसी ने सायकिल तक नहीं दी। हां, सन-73 में पद्मश्री और सन-92 में पद्मविभूषण के रूप में देश का सम्मानित नागरिक सम्मान राष्ट्रपति के हाथों जरूर मिला ।

काशी यानी बनारस को लेकर उनकी चिंताएं संगीत के स्तर पर ज्यादा हैं। विश्वनाथ मंदिर के दक्षिणी भाग में तो पचासों कार्यक्रम होते हैं मगर उत्तरी दिशा में सन्नाटा देख कर उन्होंने महा-मृत्‍युंजय समारोह शुरू किया। इसमें काशी की सांस्कृतिक विरासत को उत्तर की ओर ले जाकर उसमें संगीत, साहित्य और चित्रकला का तोहफा दिया। उन्हें झेंप लगती थी जब बूढे पिता को खुद से भी बढिया बजाते देखते थे। इसीलिए रियाज अकेले शुरू किया। माला फेरते समय किसी दूसरे की जरूरत कहां? वे कहते हैं कि संगीत प्रेम की विधा है। यह टीम-वर्क चाहता है। इसमें समर्पण है एक दूसरे के प्रति। दुराव व मनमुटाव कभी नहीं चल सकता। केवल मेहनत होनी चाहिए। एक बार तो नवरात्रि में एक दिन भी नहीं सोया था मैं।

तीन का संयोग उनके जीवन में गहरे तक जुड़ा है। इसी तारीख को पैदा हुए। तीन बेटियां हैं। तीन साल की उम्र में ही बड़े पिता के पास चले गये। किशन और तबले में भी तीन-तीन अक्षर होते हैं। विवाह 3 को हुआ और वाहन व मकानों की संख्या भी तीन है। वे तबले के शास्त्रीय पक्ष के ही पक्षधर हं। हम जोकर तो हैं नहीं कि तबले पर गाय, बछड़ा, हवाई जहाज, घोड़ा और ट्रेन की धुन निकालें और इस तरह केवल पैसा कमान के लिए बाजीगरी करते हुए लोगों को कला के नाम पर सर्कस करते घूमें।

लेकिन किशन महराज का एक पहलू और भी रहा, जो खुद का कृष्‍ण बताने के बावजूद उसका ठीक उल्‍टा रहा। वह यह कि किशन महराज की एक रखैल भी थी। उसके लिए उन्‍होंने एक अलग मकान रखा था। उस महिला से किशन महराज से दो बेटियां और हुईं। किशन महराज इस महिला के साथ भी इस महफिलों में जाते थे। करीब 30 बरसों तक उनका यह रिश्‍ता चला। किशन महराज ने मुझे बताया कि एक बार वह महिला उनके एक मित्र के साथ किसी पार्टी में चली गयी। इसका पता चला तो किशन महाराज ने उसी वक्‍त उस महिला को घर से बाहर निकाल दिया। किशन महाराज को इस घटना पर कोई भी मलाल नहीं है। इस बात पर भी नहीं, कि उन्‍होंने किसी महिला को रखैल के तौर पर अपनी जिन्‍दगी में शामिल किया और फिर उसे अपनी जिन्‍दगी की दूध में मक्‍खी की तरह निकाल बाहर कर दिया।

 

इस सीरीज को पूरी तरह देखने और पढ़ने के लिए कृपया क्लिक करें:- लीजेंड्स ऑफ बनारस

 

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