पुलिस के शीर्षस्‍थ अफसरों की बेशर्मी को देखना हो तो मायावती को केक खिलाते विक्रम सिंह की फोटो देखियेगा

मेरा कोना

: ऐसे आला अफसरों की करतूत-नुमा पाप की गठरी लादते हुए पूरी जिन्‍दगी खटकाता है आम पुलिसवाला : अब तो साफ हो चुका है कि पुलिसवाले का अगर नौकरी करनी होगी तो वह नेताओं से रिश्‍ता बनायेगा, अफसरों से नहीं : सपा-बसपा के कार्यक्रमों में कोई भी गनर वरिष्‍ठ अ‍फसरों को सैल्‍यूट नहीं करता, टोपी पहनता तो कोसों दूर की बात है : अंक-पांच

पुलिसवाला

लखनऊ : (गतांक से आगे) पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री मायावती को अपने हाथों से केक खिलाते तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह की तस्वीर पुलिस की व्यवस्था में आई विकृति का सबसे शक्तिशाली प्रतीक है. जब पुलिस का सबसे बड़ा अधिकारी ही इस तरह नतमस्तक नजर आए तो क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई कांस्टेबल या सब इंस्पेक्टर किसी छुटभैये नेता की बात न मानने की हिम्मत करेगा?’

न्‍यूज पोर्टल www.meribitiya.com से बातचीत के दौरान एक दूसरे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘ऐसे में खुद ही सोचिए कि क्या फोर्स के मन में अपने मुखिया के लिए आदर का भाव होगा. जब डीजीपी ही यह करते दिखें तो किसी कांस्टेबल या सब इंस्पेक्टर को यही लगता है कि उसकी सुनवाई कहीं नहीं होने वाली और उसे अपना मोर्चा खुद ही संभालना है. इससे फोर्स का मनोबल टूटता है.’ पूर्व डीजीपी और सुप्रीम कोर्ट में पुलिस सुधारों के लिए याचिका दायर करने वाले प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘जब एडीजी, आईजी और डीआईजी रैंक के अधिकारी अपने राजनीतिक आकाओं की जी-हुजूरी करते दिखें तो एसआई और इंस्पेक्टर रैंक के कर्मचारियों को लगता है कि खुद को बचाना है तो सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय एमएलए या एमपी के साथ रिश्ते बनाकर रखे जाएं. और यही असुरक्षा उन्हें अपने स्थानीय संरक्षकों के हित में काम करने के लिए मजबूर करती है.’

यह तो बातें रहीं इस लेख श्रंखला के लेखक यानी एक अनाम-से पुलिसवाला की पीड़ा, जो उसने मेरी बिटिया डॉट कॉम तक लिख भेजी थी। लेकिन हकीकत यही है कि पिछले करीब ढाई दशकों के दौरान पुलिस के चरित्र में निहायत शर्मनाक गिरावट दर्ज हुई है। कहने की जरूरत नहीं कि यह गिरावट केवल बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे क्षेत्रीय और जातीय आधारित वैचारिक लोगों के गिरोह से पनपी है, जिन्‍होंने राजनीति को निजी हितों के लिए हर कृत्‍य-कुकृत्‍य तक से भी परहेज नहीं किया। हकीकत यही है कि आप किसी भी बसपा या सपा पार्टी के कार्यक्रम में पहुंचिये। ऐसे कार्यक्रमों में कानून-व्‍यवस्‍था में जुटे सीओ और एसपी तक के स्‍तर के अफसरों की भी ड्यूटी नियमत: लगती है। लेकिन वहां बडे नेताओं के साथ आने वाले उनके सरकारी गनर कभी भी इन अफसरों के सामने सैल्‍यूट तक नहीं करते। सरकारी टोपी लगाना तो वे अपनी हेठी समझते हैं।

अब अगर कोई अफसर  इस पर किसी गनर पर कार्रवाई कर उसे डांटना या दंडित करना चाहे तो वह अव्‍वल तो वह सिपाही उस अफसर की स्‍पष्‍ट अवहेलना कर देगा। एक वरिष्‍ठ अधिकारी ने बताया कि ऐसे गनर को यह नेता-मंत्री लोग अपना निजी नौकर के तौर पर प्रस्‍तुत करते हैं। सिपाही से अपना निजी सूटकेस उठाना, चाय लाने का आदेश देना और अपने बच्‍चों-पत्‍नी तक की सेवा कराना तक का काम ले लेते हैं। बदले में इन सिपाहियों को घरेलू सुख-सुविधाएं भी मिल जाती हैं। ऐसे में वह सिपाही-गनर किसी अफसर के आदेश का पालन कैसे करेगा।

हकीकत तो यही है कि विक्रम सिंह जैसे अफसरों ने वाकई पुलिस संस्‍था को रसातल तक पहुंचा दिया है। आम पुलिसवाला की नजर में विक्रम सिंह जैसे अफसर किसी नराधम पिशाच से कम नहीं हैं, जिन्‍होंने आम पुलिसवाले का सम्‍मान तक अपने जूतों से मसल दिया। आम पुलिसवाला के शब्‍दों में इस नीच शीर्षस्‍थ अफसर ने जो करतूत की है, उस अमिट पाप को धोया ही नहीं जा सकता है। फिलहाल तो अब ऐसे अधिकारी की आशा ही कर सकते हैं जो अपनी बेशर्म और नीचता से उबर कर सत्‍ता के तलवे चाटने के बजाय, पुलिस का अपना निजी गौरव की नयी इबारतें दर्ज कर सकें। आमीन

पुलिसवाला। यह शब्‍द ही हमारे समाज के अधिकांश ही नहीं, बल्कि 99 फीसदी जनता की जुबान पर किसी गाली से कम नहीं होता है। लेकिन इस गाली के भीतर घुसे उस इंसान  के दिल में कितनी पीड़ा के टांके दर्ज हैं। पुलिसवाला कि नर्क या दोजख का बाशिंदा नहीं होता है। परिग्रही भी नहीं होता। वह भी इंसान होता है। जैसे हम और आप। लेकिन हालात किसी को भी कितना तोड़-मरोड़ सकते हैं, इसे समझने के लिए आइये, यह दास्‍तान पढि़ये। यह पीड़ा है, जो खबर की तर्ज पर है। एक संवेदनशील पुलिसवाले ने इस रिपोर्ताज नुमा इस लेख श्रंखला को मेरी बिटिया डॉट कॉम को भेजा है। यह हम इसे चार टुकड़ों में प्रकाशित करने जा रहे हैं। इसकी अन्‍य कडि़यों को देखने-पढने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिए:- दारोगा जी, सूजी है ?

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