दिखावे में रिश्ते-नाते छूट गए, बचपन के साथी कहां बचे?

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी
: ज़िन्दगी से ब्लाक सभी रिश्ते अनब्लाक कर दें, तो खुशियों के पल मिल सकते हैं। मगर अहंकार भी तो है : तेरा मेरा नहीं, सब कुछ हमारा कहलाता था। अब बच्चों को कोई अपने कपड़े नहीं देता, ईगो और अहम् पीछा नहीं छोड़ता :

आमिर किरमानी
हरदोई : उन दिनों की बात है, जब बड़े चौराहे पर 5 रुपये के 2 छोले भटूरे मिलते थे और गोलगप्पे चवन्नी के 5, तब लोगों के मकान छोटे, मगर दिल बड़े होते थे। यह Space/Privacy जैसे शब्दों के तो माने भी नहीं पता थे क्योंकि छतें पड़ोसियों से जुड़ी होती थी और टायलेट तक कॉमन होते थे। हमारे दूर के रिश्तेदारों के नाम तक पड़ोसियों को रटे होते थे। डेढ़ दर्जन के परिवार का 3 कमरों में ठाठ से बसर होता था। छुट्टियों में रिश्तेदारों का परिवार भी साथ होता था। काली दाल को घी में सूखे धनिए का छौंक लगा छक कर खाते थे, फिर बाल्टी में भिगोए आम और आंगन में रखे ठंडे दूध को पीते छत पर बिस्तर बच्चे मिनटों में लगाते थे।
सूरज उगने से पहले बिस्तर से उठ भी जाते थे। पैसे कम पर खुशियां बहुत थी। राजकुमार और अमिताभ बच्चन के डायलॉग से शामें कटती थी। ईगो,अहम् या नखरे कहां किसी में होते थे। VCR किराये पर लेकर रात भर पड़ोसियों के साथ मिल कर फिल्मे देखते थे, चित्रहार मुफ्त में देखते थे। तेरा मेरा नहीं, सब कुछ हमारा कहलाता था। भाई की शादी में आया सामान, बहन की शादी में चला जाता था। शादी ब्याह अपने आप में त्योहार होते थे, बाहर से आए रिश्तेदार पड़ोसियों के घर पर सोते थे। मांगे हुए गद्दे, मटर छीलते सब्ज़ी काटते परिवार, कढ़ाई में पकती सब्ज़ियों,पनीर और आइसक्रीम पर हम बच्चों की लार टपकती थी, वाह क्या नज़ारे होते थे।
घंटे भर की कुट्टी और मिनटों में चुम्मी होती थी। चचा, फूफी, ख़ाला के बच्चे सब भाई बहन कहलाते थे, उनके आगे की रिश्तेदार भी पूरी डिटेल से गिनवाते थे। सब बड़े भाई बहनों के कपड़े बिना शर्म के पहनते थे, ईगो और अहम् आसपास भी ना मंडराते थे। लेकिनआज दौर बदल गया है। छोले भटूरे खाने बाज़ार नहीं हल्दीराम और पिज़्ज़ा हट जाने लगे हैं, बच्चों को पांच सौ का नोट बेधड़क थमाने लगे हैं। मकान आलीशान, लेकिन मन परेशान हो रहे हैं, कमरों से जुड़े टायलेट हैं फिर भी प्राइवेसी को रो रहे हैं। बच्चों से बड़ों तक को स्पेस चाहिए, बगल वाले घर में कौन रहता है, नाम तो बताइए?
आज सबको अलग कमरा चाहिए, बीबी को पंखा पति को AC चाहिए। अब कौन गर्मी की छुट्टियों में किसी के घर बिताता है? अपने कहाँ Vacation पर हैं, Facebook बताता है। फिक्र और वज़न बढ़ रहे हैं, आज पैसा और कैसे बढ़ाएं इसी फिक्र में घुल रहे हैं। आज 56 भोग खाते हैं, फिर पचाने बेमन से Gym जाते हैं। घर, गाड़ी, बैंक में जमा धन, खुशियों के सामान सब हैं, खुशियाँ बांटने वाले नहीं हैं।
मामा चाचा के बच्चे अब Cousins और उनके आगे के Distant Relatives हो गए हैं। Social Media पर कई Sis और Bro ज़रूर हो गए हैं, अब लोग समय बिताने के लिए Mall जाते हैं और Mall में Shopping करने के लिए कपड़े खरीदते हैं। अब बच्चों को कोई Cousin कपड़े नहीं देता क्योंकि लेने वाले का ईगो और अहम् पीछा नहीं छोड़ता।एक बार पहन कर Maid को Zara के Top देते हैं फिर उसी को ताना भी देते हैं। अब शादियों में भी रिश्तेदार बस मूंह दिखाने आते हैं, घर में नहीं उन्हें अब होटल में ठहराते हैं। सारे परिवार वाले अब मेकअप करवाकर, खुद मेहमानों की तरह जाते हैं।
अब चाचा, मामा या फूफा जी नहीं, शादियों में खाने का ज़िम्मा Caterer उठाते हैं। दिखावे की दुनिया में रिश्ते नाते छूट गए, मेरे बचपन के साथी कहां रूठ गए ? अगर ज़िन्दगी से ब्लाक सभी रिश्ते अनब्लाक कर दें, तो खुशियों के पल मिल सकते हैं। पर बनावटी दुनिया मे बनावटी रिश्तों के बीच बनावटी ज़िन्दगी जी रहे हैं। जाने कहाँ गए वो दिन………
कोई मुझको लौटा दे, बचपन के वो दिन,
वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी.

(आमिर किरमानी हरदोई में अपनी पूरी जिन्‍दगी पत्रकारिता की झोली में हमेशा-हमेशा के लिए डाल चुके हैं। बदल चुकी पत्रकारिता ने फैसलों की डगर बदली है, लेकिन लेखन आज भी बेबाक है। )

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