एक स्त्री को पाँव का स्पर्श
नहीं दे सकता पुरुष,
अधोगति को प्राप्त करने का भय!
तब रचता है एक अनूठी
भाव संरचना वात्सल्य की।
कहता है……,
मैं बालक,
मेरी अंगुलि पकड़ो,
सहारा दो कि
खड़ा हो सकूँ पेट पर,
नाभि पर नन्हे पाँव,
पकड़े रहो हाथ…,
हाथ नहीं बस एक अंगुलि
मेरी असंतुलित चाल
को सम्भालने भर के लिये।
एक कदम आगे रख दिये पाँव,
वक्ष पर उछल रहा मैं,
नन्हे पाँव के आघात को
अनुभव करो अपने वक्षों पर।
अब आगे बढ़ते पाँव मेरे
सहारा लेकर भी ढुलकता
मुख पर रखता हूँ पाँव,
अब नासिका पर और
अब पलकों पर और
मस्तक पर धर देता हूँ।
आह!
अब मुड़ता हूँ पीछे,
टेढ़ी गर्दन कर मुस्कुराता हूँ,
खिलखिलाहट से सिहर जाता हूँ।
अब नन्हे पाँव पीछे किये
उतर रहा हूँ मुख व ग्रीवा पर होते हुये।
धम्म से बैठता हूँ पेट पर,
एक पाँव सटा देता हूँ ग्रीवा से।
धर लेती हो मेरे पाँव के
अँगूठे को मुख में
नासिका को हँस कर
कुछ सिकोड़ते हुये,
खिलखिला पड़ता हूँ
गुदगुदी के अनुभव से,
नितम्ब पेट पर ही रखे
पटक देता हूँ दूसरा पाँव,
कि थक गया किलोल में।
सर झुका कर सरकता हूँ,
कि भूख लगी है।
पकड़ा नन्हे हाथों से
वक्ष को उचक कर…,
बस तृप्त हो रहा हूँ।
अपने पाँव मार रहा पेट पर,
हाथ बढ़ा छू रहा
चिबुक को, होठों को,
स्नेह व्यक्त कर रहा अबोला सा।
नींद में होता हूँ अब अनमना,
छोड़ कर वक्ष खिसकता हूँ पीछे,
नाभि पर रगड़ता हूँ नासिका,
नीचे आकर जंघाओं के बीच
दुबक सा जाता हूँ
रख कर अपने गालों को
उसी सुरक्षित गर्म आश्रय में।
ऊँघते हुये हाथ ऊपर बढ़ा
नाभि में अंगुलियों से ढूँढता कुछ
लेता हूँ संयत सी हल्की श्वाँसें
और उनमें महकती है
कस्तूरी, चंदन और ”माँ ”।
यह कविता है अर्शी की। अर्शी, यानी आशु चौधरी। अर्शी की कविताएं आपकाेे हिला डालेंगी।