अवध का आखिरी नवाब अपने आखिरी वक्‍त भूखा था, बंगाल ने उसे थामा, अपनाया

सैड सांग

: आखिर क्‍या करता वाजिद अली शाह, रो पड़ा था : कलकत्‍ता की आवाम ने नवाब की मुफलिसी को महसूस किया, गले लगाया : सिर्फ कलकत्‍ते तक ही सीमित है आलू की बिरयानी, आज भी खूब प्रचलित है :

कुमार सौवीर

कलकत्‍ता : माना कि वह अवध का नवाब था, लेकिन आखिर क्‍या करता। नाच-गान, रास-रंग और लजीज पकवानों के शौकीन वाजिद अली शाह को सिर्फ अपने ही लिये नहीं, बल्कि अपनी रियाया और अपने मेहमानों के लिए मेहमान-नवाजी के लिए पहचाना जाता था। लेकिन अंग्रेजों ने उसकी बुरी गत बना डाली थी। जो लखनऊ उसकी सांस और जिन्‍दगी माना जाता था, उसे ही गरदनिया देकर अंग्रेज ने उसे धकेल कर बंगाल भेज दिया। गनीमत थी कि गोरी  हुकूमत ने उसे जेल में नहीं भेजा, लेकिन जेल से छह मील गंगा के किनारे उसे नजरबंद कर दिया। लेकिन यही हालत वाजिद अली शाह के लिए नाक कटने लायक हो गयी। मगर कलकत्‍ते ने इस निर्वासित नवाब को हाथों हाथ लिया और उसकी मु‍फलिसी के नमूनों को अपनी शान में टांक लिया।

मैं आज कलकत्‍ते का आखिरी दिन है, कल दोपहर वापसी होगी। आज मैंने कलकत्‍ते की गलियां नापीं। दोपहर विक्‍टोरिया पहुंचा। विक्‍टोरिया, यानी जहां रानी विक्‍टोरिया का स्‍मारक है। विशालकाय। पूरा का पूरा 57 एकड़ में फैला है यह विक्‍टोरिया स्‍मारक और उसका सजा-धजा तथा हरा-भरा इलाका। पूरा दिन लगा गया इसके चप्‍पे-चप्‍पे को छानने में। दर्जनों दर्शकों से मिला, बतियाया, कर्मचारियों से भेंटियाया, खोद-खोद कर पूछा। सभी ने इस स्‍मारक और उसके पार्कों की जी-भर कर तारीफें की। सब खुश तो मैं भी खुश।

अरे यार, अचानक ही याद आ गया कि कलकत्‍ते से तो हमारे लखनऊ का पुराना रिश्‍ता है। मसलन, मेरे मामा शांति निकेतन में संस्‍कृत के आचार्य हुआ करते थे। मैं लखनवी हूं, लेकिन दिखता हूं खांटी बंगाली की तरह। दक्षिणेश्‍वर, धूलि घाट और बडा बाजार में कई बंगालियों ने कई बार मुझसे बंगाली में पता तक पूछ लिया। मैं अचकचा गया। लेकिन अब आप लोग अगर इसे मेरा घमंड मानते घूमें, तो खूब घूमते रहियेगा, लेकिन हकीकत यही है कि इन पिछले तीन दिनों में मैंने गौर किया कि कई महिलाएं मुझे गौर से देखती और बतियाने की कोशिश करन लगती हैं। खैर,

मेरा कलकत्‍ता का सबसे बड़ा रिश्‍ता तो डेढ़ सौ साल पुराना निकल गया। वह यह कि लखनऊ के दसवें और आखिरी नवाब यानी “नवाब वाजिद अली शाह मः हजरत खालीद, अबुल मनसूर नासिर उद्दीन, पादशाह-ई-आदिल, कैजर-ई-जमान, आरंघा सुलतान-ई-आलम, महम्मद वाजीद अली शाह बहादुर” ने अपने जीवन के आखिरी दर्दनाक वक्‍त कलकत्‍ते में ही बिताया था। कमाल का था यह नवाब। ठुमरी का जन्‍मदाता है वाजिद अली शाह। इतना ही नहीं, कठपुतली की जो गुलाबो-सिताबो वाली कला अब खत्‍म हो चुकी है, उसकी शुरूआत उसी वक्‍त के आसपास ही है। यह नवाब कहने को तो नवाब था, लेकिन हकीकत यह थी कि इस शख्‍स ने लखनऊ में शाम-ए-अवध की असल रौनक अता फरमायी थी। नवाब के दरबार में हर दिन संगीत का जलसा हुआ करता था। ठुमरी को कत्थक नृत्य के साथ गाया जाता था। जब सन-1865 की सात फरवरी को अंग्रेजों ने नवाबत को खारिज कर अवध पर अपना कब्‍जा कर लिया और वाजिद अली शाह को घर-बदर कर कलकत्‍ता भेज दिया तो नवाब के आखिर शब्‍द थे:- बुल मोरा नैहर छूटो जाय। उसके करीब 22 साल बाद 21 सितम्‍बर- 1887 को कलकत्‍ते में ही वाजिद अली शाह की मौत हो गयी। दो गज जमीं भी न मिल सकी, कू-ए-यार में।

लेकिन हम बात कर रहे हैं सन 1865 की फरवरी की, जब वाजिद अली शाह का कलकत्‍ता भेजा गया। चूंकि वह नवाब थे, इसलिए उनके खर्चा-पानी के लिए सरकार ने दस लाख रूपया सालाना बांध दिया। राज-पाट छीन जाने से बेहाल नवाब के पास नौकरों की पूरी फौज थी। पूरा विशाल खानदान था। जल्‍दी ही पता चल गया कि इतनी रकम से काम नहीं चल पायेगा। खर्चों की काटा-काटी होते-होते रसाईघर तक पहुंच गयी। भोजन पकाने वाले की तादात ही सैकड़ा से ऊपर थी। रोज सैकड़ों मेहमानों के आने का सिलसिला बेशुमार था। मजलिसें-महफिलें सजती थीं। सभी लोग भोजन करते थे। ज्‍यादातर तो इसीलिए आते थे कि उन्‍हें अवधी डिश चखना था। गोश्‍त महंगा था। ऐसे में रसाइयों ने एक नयी रेसेपी तैयार की। इसमें बिरयानी में गोश्‍त के टुकड़े तो नाममात्र के होते थे, लेकिन आलू की भरमार हो जाती थी।

काम हो गया। बंगालियों को स्‍वाद बहुत भाया। खासकर मसालों में लखनवी अंदाज। खर्च भी कम हो गया, और शोहरत पर भी कलंक नहीं पड़ा। बंगालियों ने अपने किचन में इस डिश को तैयार कराना शुरू किया। चटखारों की आवाजें जब शहर में गूंजने लगीं, तो बाजार में यह डिश पसर गयी। आलू की बिरयानी की बम्‍बार्डिंग कलकत्‍ता तक होने लगी। आज यह हालत है कि कलकत्‍ते और हावड़ा में आलू की बिरयानी बेहद पसंद की जाती है।

विक्‍टोरिया स्‍मारक संग्रहालय के प्रमुख डॉक्‍टर जयंत सेनगुप्‍ता बताते हैं कि यह डिश केवल हावड़ा और कलकत्‍ते तक ही प्रचलित है। बाकी बंगाल को इस बारे में कोई रूचि नहीं।

अरे यही तो कमाल हो गया है मेरे दोस्‍तों। क्‍या आपको नहीं लगता है कि शायद ठीक इसी तर्ज में बिहार और यूपी में कभी गरीबी की कथा बनी लिट्टी-चोखा की प्राण-प्रतिष्‍ठा कर उसे अब देश-विदेश में ख्‍याति पहुंचा दी गयी हो।

यह यह प्रयास श्रंखलाबद्ध लेख के तौर पर है, जिसे मैं वामिक जौनपुरी साहब मरहूम और बंगाल के महानतम लेखकों, साहित्‍यकारों के साथ ही साथ भूख से जूझ रही अवाम को समर्पित करना चाहता हूं। इस रिपोर्ताज की अगली कडि़यों को खोलने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:भूका है बंगाल रे साथी

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