सुतापा सान्‍याल को छोडि़ये, मेरी नजर में तो वह बहादुर बच्‍ची भारत-रत्‍न की हकदार है

सैड सांग

: उसने अपनी दिखायी, और अपनी जिन्‍दगी को अपनी शर्त पर मौत के हवाले किया : दुराचारी और हत्‍यारे उस पर जुल्‍म ढाते रहे, मगर वह जूझती ही रही : फिर ऐसे आला अफसरों की क्‍या जरूरत, जो अपने दायित्‍वों को अपने स्‍वार्थो की वेदी पर बलि दे दें : चलिए, छेड़ दें “ना” कहने के अधिकार का आन्‍दोलन (पांच) :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मैंने इस युवती को अपनी मेरी बिटिया का दर्जा दे दिया है। मेरे पास इसके लिए पुख्‍ता कारण-तर्क भी हैं। कम से कम उसने अपनी देह के बारे में स्‍वतंत्र सोचने और फैसले का प्रयोग किया। वह अडिग रही अपने फैसले पर, तनी रही अपनी रीढ़-मेरूदण्‍ड पर। खुद को झुकाया नहीं, भले ही प्राण निकल गये।

मैं आपसे पूछता हूं कि क्‍या आपके पास इतना जिगरा है? बहुत दूर जाने की भी कोई जरूरत नहीं, आप अपने आसपास ही टटोल लीजिए। केंचुए की तरह बिलबिलाते हुए इंसान हमेशा गिड़गिड़ाते ही दिख जाएंगे। एक सामाजिक कार्यकर्ता विनीता सहगल का कहना है कि:-  “उस युवती ने अपनी “ना” के अधिकार का प्रयोग किया था। और इस अधिकार के लिए उसने जान तक दे दी। अब हमारे समाज में झांकिये ना, कि कितनी महिलाएं ऐसी हैं जो अपनी “ना” के अधिकार को लेकर अपनी आवाज उठा सकती हैं, उसके लिए लड़ पड़ना या जान दे देना तो बहुत कोसों दूर की बात है। मेरी नजर में तो वह युवती तो स्‍त्री-सशक्‍तीकरण की श्रेष्‍ठतम जीवन्‍त घटना है।”

अब यहां कई सवाल हैं दोस्‍तों।  वाकई, उस बिटिया ने अपने बाल-बच्‍चों जैसी घरेलू मजबूरी के चलते खुद के शरीर को एक दिन महज 400 रूपयों के लिए बेचना का सौदा किया, लेकिन केवल एक ग्राहक के लिए। जब उसने देखा कि वहां कई नर-पिशाच मौजूद हैं, तो उसने अपने ना के अधिकार का तत्‍काल प्रयोग कर लिया और उसी अधिकार के लिए प्राणोत्‍सर्ग कर दिया। उस पर नारकीय जुल्‍म-सितम ढाते गये, लेकिन उसने अपने अधिकार के पालन में ऊफ तक नहीं किया।

अपने अधिकार के लिए जान तक लुटा देने वाली महिला, कम से कम मुझे तो अब तक नहीं मिली। मैं तो सैल्‍यूट करता हूं। मेरी नजर में तो वह बिलकुल भारत-रत्‍न से कम नहीं। इसीलिए तो मैं उसे अपनी मेरी बिटिया कहता हूं।

अब, असल सवाल पर आते हैं। पुलिस महानिदेशक सुतापा सान्‍याल उस वक्‍त मानवाधिकार प्रकोष्‍ठ की प्रभारी थीं। पुलिस विभाग के एक महानिदेशक को सरकार एक बड़ा तामाझामा मुहैया कराती है। जिसमें विशाल मकान, भारी सुरक्षाकर्मी, आदेश का पालन करने के लिए अफसरों-कर्मचारियों की फौज, गाड़ी-घोड़ा और खुफिया जानकारी करने के लिए एक बड़ा गोपनीय बजट भी। किसी भी डीजी को कम से कम पांच हजार रूपया रोजाना का वेतन-भत्‍ता मिलता है। बाकी अन्‍य आर्थिक सुविधाएं उसके अतिरिक्‍त। लेकिन सुतापा सान्‍याल ने मोहनलालगंज हादसे में अपने एक भी अधिकार का इस्‍तेमाल नहीं किया। है कि नहीं? वह केवल अपने उच्‍चाधिकारी-उच्‍चाधिकारियों और आकाओं के हुक्‍म का ही पालन करती रहीं।

सुतापा सान्‍याल से कहा गया कि जाओ और इस मामले में साफ झूठ बोल दो मीडिया के सामने। और सुतापा सान्‍याल ने ऐसा कर दिया। बेहिचक। जबकि वे जानती थीं कि जो भी कराया जा रहा है, वह बिलकुल झूठ है और अपराध है। और सुतापा सान्‍याल द्वारा बोले गये ऐसे सारे झूठ युगों की सत्‍यता को कलंकित कर देंगे। लेकिन सुतापा सान्‍याल ने झूठ का ही दामन सम्‍भाला

मगर उस मेरी बिटिया ने ऐसा नहीं किया था। उसने आखिरी दम तक संघर्ष किया। भले ही उसकी जान चली गयी। जबकि सुतापा सान्‍याल ने अवांछित, आपराधिक और षडयंत्री किलाबंदी में खुद को एक मोहरा ही बनना पसन्‍द किया, अपने “ना” अधिकार का कत्‍तई प्रयोग नहीं। इस पूरे दर्दनाक हादसे के बावजूद उन्‍होंने अपनी “ना” के अधिकार का प्रयोग नहीं किया। अगर कर लेतीं तो आज वे स्‍त्री-सशक्‍तीकरण और महिला सम्‍मान की शिखर-पुरूष बन जाती होतीं।

और कहां वह दो-कौडी की मेरी बिटिया, जिसने औरत की खुद्दारी का एक नया आयाम-अध्‍याय लिखने के लिए अपना प्राण दे दिया। अब अपने बारे में आप पुलिस अफसर और प्रशासनिक अफसर खुद तय कर लें, मगर इस मेरी बिटिया को मैं भारत-रत्‍न से श्रेष्‍ठ मानता हूं।

मेरी बिटिया जिन्‍दाबाद।

जाहिर है कि कोई भी महिला अब सुतापा सान्‍याल को अपना आदर्श नहीं मानेगी। इसीलिए मैं अब खोजना चाहता हूं ऐसे अफसरों को, जिन्‍होंने खुद को बिक जाने के बजाय अपने होने को साबित किया। भारी दुश्‍वारियों के बावजूद अपना पक्ष बिलकुल साफ रखा। इसमें से कुछ ने तो इसकी भारी कीमत भी चुकाई, लेकिन अडिग रहे। हमेशा। सिर तान कर।

हमारा यह अभियान शुरू हो चुका है। नाम है:- “ना” कहने का अधिकार आन्‍दोलन। हम चाहते है कि इस अभियान कम से कम उस दिन तक जरूर चले, जब एक आला शासकीय सेवक सुतापा सान्‍याल द्वारा इस काण्‍ड को भयंकर विद्रूप शक्‍ल देने वालों के खिलाफ एक बड़ा जागरूक अभियान न पैदा हो जाए। इस अभियान में हम आपको रोजाना यह भी बतायेंगे कि किस तरह बड़े सरकारी नौकर अपने आकाओं की “हां” में खुद को खत्‍म कर देते हैं, और कैसे चंद लोग अपने “ना” कहने के अधिकार का प्रयोग कर खुद को प्रकाश-स्‍तम्‍भ के तौर पर दमकते दिख जाते हैं।

इस मामले को अब हम सिलसिलेवार छाप रहे हैं। इसके अगले अंकों को देखने-पढ़ने के लिए निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा :- चलिए, छेड़ दें “ना” कहने के अधिकार का आन्‍दोलन

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